सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांस के शासक लुई चौदहवें ने ‘मैं ही राज्य हूँ’ की घोषणा करते हुए एक निरंकुश शासन की स्थापना की थी जिसके लिए ‘एस्टेट्स जनरल’ जैसी प्रतिनिधि सभा का कोई मतलब नहीं था। ख़ुद को ईश्वर का प्रतिनिधि और ‘चर्च का बड़ा बेटा’ मानने वाले लुई 14वें ने गैर कैथोलिकों के ख़िलाफ़ दमन की नीति अपनायी थी। इसी के साथ उसने जनता की बदहाली से बेपरवाह होकर पेरिस से 12 मील दूर वर्साय मे शानदार शीशमहल बनवाने में ख़ज़ाना लुटा दिया था। तमाम बाग़ बग़ीचों से घिरे इस खूबसूरत महल के विशाल आईनों मे छवि निहारने में मशगूल रहने वाले लुई14वें की हरक़तों का ख़ामियाज़ा लुई सोलहवें को भुगतना पड़ा जब 1789 में फ्रांस में क्रांति हुई और सम्राट तथा भूखी आबादी को ‘रोटी नहीं तो केक खाने’ की सलाह देने वाली रानी मेरी एंतोनियोत का सिर धड़ से अलग कर दिया गया।
‘समता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ का घोष करने वाली फ्रांसीसी क्रांति को ‘सभी क्रांतियों की जननी’ माना जाता है। ये तीनों महान लक्ष्य भारत के संविधान में भी दर्ज हैं लेकिन ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी इसके मर्म से कोई मतलब नहीं रखते। उल्टा वे लुई 14वें की ‘मैं ही राज्य हूँ’ की नीति पर ही चल रहे हैं। तीन महीने से जल रहे मणिपुर को लेकर उनका रवैया बताता है कि वे संसद के प्रति खुद को ज़रा भी जवाबदेह नहीं मानते। उनका यही रुख सरकार पर निगरानी रखने वाली अन्य संस्थाओं के प्रति भी है जो लगातार कमज़ोर होती जा रही हैं और सरकार से सवाल पूछने की हैसियत में नहीं रह गयी हैं। मोदी के आलोचक देशद्रोही की श्रेणी में डाल दिये गये हैं और मीडिया और छवि प्रबंधन एजेंसियों के ज़रिए राजनीतिक समर्थकों को ऐसे भक्तों में बदलने का प्रोजेक्ट तेज़ी से चल रहा है जो मोदी को ‘ईश्वर का वरदान’ मानकर भौतिक स्थितियों के प्रति आँख मूँद लें।
2024 के आम चुनाव को लेकर बढ़ती सरगर्मी और विपक्षी एकता की प्रभावी कोशिशों के बीच हाल ही में पीएम मोदी ने अपने तीसरे कार्यकाल (?) में भारत को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में बदल देने की गारंटी दी है। इस तरह से वे एक बड़े लक्ष्य के साथ खुद को नत्थी करके जनता को ज़मीन नहीं आसमान की ओर देखने को प्रेरित कर रहे हैं। उनकी इस अदा पर हाल में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘बवाल’का वो डायलॉग फिट बैठता है कि ‘माहौल ऐसा बनाओ कि लोग रिज़ल्ट पर ध्यान न दें।’
अर्थव्यवस्था की सहज रफ्तार भी आबादी (जो अब दुनिया में सबसे ज़्यादा मानी जा रही है) को देखते हुए भारत को स्वाभाविक रूप से तीसरी अर्थव्यवस्था बना सकती है। ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी नून-तेल पर खर्च करके अर्थव्यवस्था में योगदान देता है। सवाल ये है कि उसे मिल क्या रहा है? यह बात कैसे नज़रअंदाज की जा सकती है कि भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले मे 128वें स्थान पर है। या विश्व भुखमरी सूचकांक में भारत फिसलकर 107वें स्थान पर पहुँच गया है और इस मामले में पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों का हाल भी उससे बेहतर है। महँगाई और बेरोज़गारी अपने चरम पर है जिसने आम आदमी की ज़िंदगी दूभर कर दी है। जब सरकार 80 करोड़ लोगों को पाँच किलो अनाज देने का प्रचार करत हुए अपनी पीठ ठोंकती है तो वह प्रकारांतर से देश की आधी से ज़्यादा आबादी की भयावह आर्थिक स्थिति को स्वीकार कर रही होती है।
तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी इस बात को छिपा लेते हैं कि जो विकसित देश इस सूची से बाहर हैं, वे प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत से कई गुना बेहतर स्थिति में। आईएमएफ के डेटा के मुताबिक भारत का प्रति व्यक्ति आय सलाना 2600 डॉलर है। जबकि यूनाइटेड किंग्डम की 46,370 डॉलर और अमेरिका की 80003 डॉलर और जर्मनी का 51380 डॉलर है। भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी चीन में प्रति व्यक्ति आय 13720 डॉलर है। आँकड़ों की यह तस्वीर ही सब कुछ कह देती है।
लेकिन मोदी सरकार ज़मीनी हक़ीक़त पर पर्दा डालने में जुटी है। इसी कोशिश के तहत ही वो हर उस व्यक्ति या संस्था के प्रति दुश्मन जैसे व्यवहार कर रही है जो उनके आँकड़ों के पीछे छिपे अँधेरे पर रोशनी डालने की कोशिश करते हैं। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज़ (आईआईपीएस) के निदेशक के.एस.जेम्स का निलंबन इसका ताज़ा उदाहरण है। महिला पहलवालों के यौन उत्पीड़न के आरोप की जाँच के दौरान कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद या भाजपा संसदीय दल से ब्रजभूषण शरण सिंह को निलंबित न करने वाली मोदी सरकार ने के.एस.जेम्स को इसलिए निलंबित कर दिया कि उनके रहते उनकी नियुक्ति को लेकर मिली शिकायतों की जाँच नहीं हो पायेगी।
दरअसल, केंद्र सरकार के तहत आने वाले आईआईपीएस ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के तहत जो डेटा जारी किये हैं उससे सरकार के तमाम दावों पर सवाल उठ गये हैं। मसलन भारत के खुले में शौच से मुक्ति हो जाने के सरकारी दावे के विपरीत एनएफएचएस ने बताया कि देश के 19 फ़ीसदी परिवार शौचालय सुविधा का उपयोग नहीं करते। लक्षद्वीप के अलावा एक भी राज्य नहीं है जहाँ कि सौ फ़ीसदी आबादी के पास शौचालय की सुविधा हो। यही नहीं एनएफएचएस की रिपोर्ट मे कहा गया है कि 40 फ़ीसदी से अधिक घरों में खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन की व्यवस्था नहीं है। उज्जवला योजना को लेकर किये गये तमाम दावों के उलट रिपोर्ट है ग्रामीण क्षेत्र की 57 फीसदी आबादी के पास रसोई गैस की सुविधा नहीं है।
ऐसे में ये क्यों न माना जाये कि सरकार ने संस्था के निदेशक के ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई की है? असमानता रिपोर्ट जारी करने वाले ऑक्सफ़ैम के ख़िलाफ़ भी अप्रैल में सीबीआई छापे की कार्रवाई हो चुकी है। कुछ समय पहले ही ऑक्सफैम की इस रिपोर्ट ने तहलका मचा दिया था कि भारत के 1 फ़ीसदी अमीरों के पास देश की 40 फ़ीसदी से ज़्यादा की संपत्ति है। 50 फ़ीसदी आबादी सिर्फ़ तीन फ़ीसदी संपत्ति पर निर्भर है। ‘सर्वाइवल ऑफ़ द रिचेस्ट: द इंडिया स्टोरी’ शीर्षक से आयी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महामारी के बाद जब देश के आम आदमी की ज़िंदगी तबाह हो गयी थी तो भारत के अरबपतियों की संपत्ति में 121 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ था। 2020 में जिन अरबपतियों की संख्या 102 थी वो 2022 में 166 हो गयी। ये वही अवधि है जब महामारी की वजह से पूरा देश त्राहि-त्राहि कर रहा था।
इस भीषण ग़ैरबराबरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, महंगाई आदि की ज़िम्मेदारी से मोदी सरकार बच नहीं सकती। भारत की अर्थव्यवस्था का ‘वाल्यूम’ नहीं, लोगों का जीवनस्तर बताता है कि कि कोई सरकार देश के लिए हानिकारक है या लाभदायक। मोदी राज में समता, समानता और बंधुत्व के संवैधानिक लक्ष्य जिस तरह धूमिल हुए हैं, उसकी अतीत में कोई मिसाल नहीं है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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