लोकसभा चुनाव 2019 बहुत ही दिलचस्प दौर में पहुँच गया है। जिस चुनाव को मोदी के पिछले पाँच साल के काम-काज पर होना था, वह भविष्य की योजनाओं के मुद्दे पर लड़ा जाने वाला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को भरोसा दिला दिया है कि वह अब देश को आतंकवाद की राजनीति से मुक्ति दिला देंगे।
उसके लिए उन्होंने राजनीति की पिच को बहुत ही ऊंचाई पर लाकर छोड़ दिया है। विपक्षी पार्टियाँ उनके भाषणों पर प्रतिक्रिया देने की ड्यूटी निभा रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाली विपक्ष पार्टियाँ उन मुद्दों को उठाना भूल गई हैं जिन पर लोकसभा का चुनाव होना चाहिए था।
सरकार की नाकामी से घिरी थी सरकार
प्रधानमंत्री ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जो वायदे किये थे, उनका लेखा-जोखा इस चुनाव की स्थाई धारा होनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री ने पद संभालने के बाद कहा था कि उनको देश की जनता ने जो पाँच साल दिए हैं, वह 2019 के चुनाव के पहले उसका हिसाब देंगे।
विचार से और खबरें
शुरू में तो मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की समझ में ही कुछ नहीं आ रहा था, लेकिन क़रीब दो साल बाद उसने सरकार की कमियों को रेखांकित करने का काम शुरू किया। राहुल गांधी ने विपक्ष का धर्म निभाया और दिसंबर 2018 में तीन राज्यों से बीजेपी की सरकार को बेदख़ल करने में सफलता पाई। वह नरेंद्र मोदी के 2014 के चुनाव के पहले किये गए वायदों पर ख़ास ध्यान दे रहे थे। मोदी ने प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों का वायदा किया था, किसान की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया था, विदेशों से काला धन लाने का वायदा किया था और भी बहुत सारे संकल्प किये थे। कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों ने उन मुद्दों को उठाया और बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा कीं।
बीजेपी का मनोबल 'डाउन'
जिस कांग्रेस से भारत को मुक्त करने की बाद नरेंद्र मोदी ने की थी, उसी कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बना कर साबित कर दिया कि कांग्रेस मुक्त भारत एक असंभव संभावना है।2014 में नरेंद्र मोदी की जीत और उनकी सरकार के बनने में यूपीए के राज के भ्रष्टाचार का भारी योगदान था। संकल्प था कि मोदी जी के राज में भ्रष्टाचार नहीं होगा।
लेकिन लोकपाल की नियुक्ति न करके और रफ़ाल सौदे में कुछ नियमों की अनदेखी करके बीजेपी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ऐसा अवसर दे दिया जिस के सहारे उन्होंने नरेंद्र मोदी की ईमानदारी वाली छवि पर हथौड़े मारने शुरू कर दिए।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के बाद राज्य में जितने भी उपचुनाव हुए सब में बीजेपी के उम्मीदवार हार गए। दोनों पार्टियों ने लोकसभा के लिए भी चुनावी गठबंधन कर लिया। बीजेपी के आशीर्वाद से समाजवादी पार्टी के पुराने नेता शिवपाल सिंह यादव ने नई पार्टी भी बना ली, लेकिन उनका कोई ख़ास राजनीतिक असर नहीं दिख रहा।
सम्बंधित खबरें
सपा-बसपा गठबंधन के रूप में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को ज़बरदस्त प्रतिद्वंदी मिल गया है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की कमज़ोरी रेखांकित हो चुकी है। 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार की स्थापना में इन चार राज्यों में मिली बहुत बड़ी संख्या में सीटों का भारी योगदान था। इन राज्यों में कमज़ोर होने का मतलब था कि केंद्र में बीजेपी सरकार बनना नामुमकिन नहीं तो कठिन ज़रूर हो जाना। नरेंद्र मोदी के 2014 के वायदे विपक्षी पार्टियाँ सभी मोर्चों पर उठा रही थीं और सरकार के लिए जवाब देना मुश्किल हो रहा था।
मोदी की पिछलग्गू मीडिया
मोदी और केंद्र सरकार का 'सौभाग्य' है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग उनको 'सही' मानता है और उनकी 'तारीफ़' करता है। लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो कठिन सवालों को भी उठा रहा है। सोशल मीडिया में सरकार की नाकामियों को जम कर उठाया जा रहा है। ऐसे में मोदी के लिये चुनाव जीतना उपलब्ध तरीकों से संभव नहीं था।कुछ नया करने की ज़रूरत थी। मौजूदा बीजेपी उसी तरह की स्थिति में पहुँच गई, जिसमें 1991 में मंडल कमीशन की सिफ़ारिश लगने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी की बीजेपी फँस गई थी।
1986 से बीजेपी के नेता बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद के सहारे जनमानस में लोकप्रियता अर्जित कर रहे थे। हिन्दुओं का एक बड़ा तबक़ा बीजेपी की तरफ आकर्षित हुआ। मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दू समाज का एक तबक़ा बीजेपी के साथ लामबंद भी दिखा। लेकिन उसी दौर में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं और देश की 54% पिछड़े तबके की आबादी को अपनी तरफ़ खींचने का दाँव चल दिया। पिछड़ी जातियों के लोगों को सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण दे दिया। यह एक अलग तरह की लामबंदी की शुरुआत थी।
रथयात्रा का ट्रंप कार्ड
पिछड़ी जातियों के लोगों की वफ़ादारी अपनी जाति के साथ होना तय थी। बीजेपी के नेता सकते में थे। सारे किये कराये पर पानी पड़ने वाला था। उसी दौर में लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा की घोषणा कर दी। जहाँ-जहाँ से रथयात्रा गुज़री, वहां बहुत बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण हुआ और हिन्दुओं का एक तबक़ा एकजुट हो गया।यह आडवाणी की राजनीति का जलवा था कि उन्होंने चुनावी राजनीति के पैमाने बदल दिए और जब उनको लगा कि हिन्दू मन भाजपामय हो रहा है तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को झटका देकर पैदल कर दिया। कांग्रेस के सहयोग से चन्द्रशेखर ने सरकार चलाने की कोशिश, की लेकिन कांग्रेस ने उनकी सरकार को ठीक उसी तरह गिरा दिया जैसे उन्होंने 1979 में चरण सिंह की सरकार गिराई थी।
मुद्दा यह है कि 1990 में रथयात्रा के ज़रिये लाल कृष्ण आडवाणी ने मंडल कमीशन के असर को ख़त्म करने का प्रयास किया। चुनाव में ओबीसी जातियों का एक वर्ग जाति की सीमा से बाहर आकर हिन्दू बन गया और बीजेपी को लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में सीटें मिलीं। नैरेटिव बदल गया था और बीजेपी एक ताक़तवर जमात बन चुकी थी।
इसी तरह 2014 में नरेंद्र मोदी ने पूरे देश को भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर, दो करोड़ प्रतिवर्ष की नौकरियों की बुनियाद पर, किसानों की खुशहाली के सपने पर और मज़बूत सरकार के वायदे के साथ एकजुट कर दिया। जातीय पहचान के ऊपर आर्थिक खुशहाली और रोज़गार के वायदे ने देश को नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा कर दिया।
पुलवामा हमले से बदला खेल
2019 में भी 14 फरवरी के पहले के जो भी विमर्श थे उसमें नरेंद्र मोदी सरकार रक्षात्मक मुद्रा में थी। लेकिन जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के क़ाफ़िले पर आतंकवादी हमले के बाद देश में देशप्रेम चुनावी मुद्दा बनने की दिशा में बढ़ रहा था। नरेंद्र मोदी ने वायु सेना को अधिकृत किया और पाकिस्तान में घुसकर वायुसेना ने बमबारी की और नतीजा समाने है।पूरा देश आज देशप्रेम की बात कर रहा है। कोई भी मंहगाई, किसानों की दुर्दशा, राम मंदिर और रॉबर्ट वाड्रा के भ्रष्टाचार की बात नहीं कर रहा है। नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक बहस के दायरे को बहुत ऊंचा कर दिया है। अब चर्चा यह है कि यह चीज़ें तो हैं ही, लेकिन देश की रक्षा आतंकवाद से करना और पाकिस्तान को औक़ात दिखाना ज्यादा ज़रूरी काम हैं।
प्रधानमंत्री की कोशिश है कि वे मुद्दे चुनावी विमर्श में न आयें जिनमें उनकी कमज़ोरी दिखती है।
ममता बनर्जी को छोड़कर पूरा विपक्ष सिर्फ प्रधानमंत्री के भाषणों पर प्रतिक्रिया दे रहा है। विपक्ष ने पहल पूरी तरह से नरेंद्र मोदी को दे दी है। हालांकि देश की रक्षा और आतंकवाद से देश को बचाना, किसी भी सरकार का बुनियादी धर्म है। लेकिन देश के लोगों को जो चुनावी वायदे किये गए थे उनको भी पूरा किया जाना ज़रूरी है।
अब जब कि नरेंद्र मोदी ने 'एजेंडा' फ़िक्स कर दिया है, नया 'नैरेटिव' शुरू कर दिया है, यह देखना दिलचस्प होगा कि उनके एजेंडे को ही विरोधी दल लागू करने में जुटे रहते हैं या देशप्रेम के अलावा दूसरे मुद्दे भी उठाने की हिम्मत जुटा पाते हैं।
अपनी राय बतायें