आज़ाद भारत इस 15 अगस्त को पूरे 74 साल का हो जाएगा। 74 साल के इस बूढ़े देश के जवान बेटे-बेटियों को आज कुछ भी याद नहीं कि भारत के जन्म के समय क्या-क्या हुआ था। उन्होंने कुछ लोगों के नाम सुन रखे हैं और उनके बारे में सुनी-सुनाई और पढ़ी-पढ़ाई धारणाएँ पोस रखी हैं। एक थे जिन्ना, जिन्होंने धर्म के आधार पर देश को दो भागों में बँटवा दिया। एक थे नेहरू जिन्होंने प्रधानमंत्री बनने के लिए देश का बँटवारा स्वीकार कर लिया। एक थे पटेल जो नेहरू से ज़्यादा योग्य थे लेकिन गाँधी जी ने उनको प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। एक थे गाँधी जिन्होंने पहले तो बँटवारे का विरोध किया, लेकिन बाद में न केवल मान लिया बल्कि पाकिस्तान को 50 करोड़ दिलवाने के लिए अनशन भी किया। और एक थे सुभाष चंद्र बोस जो बंदूक़ के बल पर देश को आज़ाद कराना चाहते थे लेकिन असफल रहे और बाद में नेहरू ने उनको गुमनामी के अँधेरे में जीने को मजबूर कर दिया।
ये सब किंवदंतियाँ हैं जो फ़ेसबुक और वॉट्सऐप पर ‘सत्यकथा’ की तरह चलती रहती हैं जो उतनी ही सच होती हैं जितनी कि कोई भी कल्पित कहानी। अव्वल तो कोई सत्य जानता नहीं चाहता और जो जानना चाहता है, उसे भी ‘सच और केवल सच’ कहीं नहीं मिलता। हर जगह फ़िल्टर्ड ट्रुथ है। तो क्या सच जानना इतना ही मुश्किल है या कि बिल्कुल असंभव है? हम ऐसा नहीं मानते।
हम यह कोशिश करेंगे कि उस दौर की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं और निर्णायक मोड़ों की गहराई में जाएँ और पता करें कि भारत-पाक बँटवारे के लिए परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार थीं या कुछ शख़्सियतें या दोनों; और क्या इस बँटवारे को किसी भी तरह से टाला जा सकता था। हमारा मक़सद किसी को हीरो और किसी को विलन साबित करना नहीं है क्योंकि हम केसरिया-हरे-लाल-सफ़ेद चश्मे से इतिहास को नहीं देखना चाहते। हमारे लिए ये सबके-सब केवल और केवल पात्र थे जो अपने समय और अपनी परिस्थितियों के अनुसार अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभा रहे थे।
पाक को भारत से जुड़ा रखना चाहते थे जिन्ना!
दो क़ौमों का सिद्धांत
सर सैयद अहमद ख़ाँ कोई कट्टरवादी और संकीर्णतावादी मुसलमान नहीं थे। उलटे वे एक समाज सुधारक थे और चाहते थे कि मुसलमान अपने पिछड़ेपन से उबरें जिसका उनके मुताबिक़ एक ही तरीक़ा था कि वे आधुनिक तालीम हासिल करें, ख़ासकर अंग्रेज़ी और विज्ञान की। सर सैयद अहमद ख़ाँ देख रहे थे कि अंग्रेज़ भविष्य में भारतीयों को शासन और प्रशासन में प्रतिनिधित्व देने और बढ़ाने को राज़ी हो सकते हैं और उनको डर था कि यदि मुसलमानों ने शिक्षा के प्रति अभी से रुचि नहीं दिखाई तो वे भविष्य में शासन और प्रशासन में भागीदार होने की क़ाबिलियत साबित नहीं कर पाएँगे। सर सैयद अहमद ख़ाँ को शिक्षा और धर्म संबंधी अपने विचारों के कारण कट्टरवादी मुल्लाओं से भारी विरोध सहना पड़ा।
1885 में जब शिक्षित भारतीयों को शासन में अधिक प्रतिनिधित्व दिलाने और नागरिक-राजनीतिक विषयों पर शासन के साथ चर्चा करने के लिए कुछ नेताओं ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया तो उसके नेताओं ने सर सैयद अहमद को भी उसके साथ जुड़ने को आमंत्रित किया लेकिन सर सैयद अहमद नहीं मानते थे कि कांग्रेस जैसी कोई संस्था हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के हितों का प्रतिनिधित्व कर सकती है।
कांग्रेस की गतिविधियों से सर सैयद अहमद ख़ाँ को एक और डर सताने लगा था। वह यह कि यदि कभी अंग्रेज़ों ने भारत से डेरा-डंडा उखाड़ने का तय किया तो मुसलमानों का क्या होगा?
एक तो वे वैसे ही शिक्षा के मामले में पिछड़े हुए थे, दूसरे हिंदुओं का भारत में बहुमत है। ऐसे में उनको लगा कि आज़ाद भारत में मुसलमानों के साथ बराबरी का सलूक नहीं किया जाएगा। इसीलिए वे चाहते थे कि अंग्रेज़ों का राज बना रहे। मार्च 1888 में मेरठ में दिए गए एक भाषण में उन्होंने कहा:
‘इस समय हमारी क़ौम शिक्षा और संपत्ति के मामले में बहुत ही बुरे हाल में है लेकिन अल्लाह ने हमें ईमान की रोशनी दी है और हमारे पास क़ुरान है जो हमें राह दिखाती है और जिसने पहले से निश्चित कर दिया है कि हम और वे (अंग्रेज़) मित्रतापूर्वक रहेंगे। अब अल्लाह ने उन्हें हमारा शासक तय कर दिया है। इसलिए हमें उनसे मित्रता बढ़ानी चाहिए और ऐसे तरीक़े अपनाने चाहिए जिससे उनका शासन स्थायी और सुदृढ़ हो जाए, और यह बंगालियों के हाथ में न जाने पाए… अगर हम बंगालियों के राजनीतिक आंदोलन में शरीक होंगे तो हमारी क़ौम को नुक़सान होगा, क्योंकि हम किताब वाले लोगों (ईसाइयों) का आधिपत्य छोड़कर हिंदुओं की अधीन नहीं होना चाहते।’
इसी भाषण में उन्होंने आगे कहा:
‘मान लें कि कल अंग्रेज़ और उनकी सेना भारत छोड़कर चले जाएँ और साथ में अपनी तोपें और शानदार हथियार और बाक़ी सबकुछ भी लेते जाएँ तो भारत का शासक कौन होगा? क्या यह मुमकिन है कि इन हालात में दोनों क़ौमें- मुसलमान और हिंदू- एक ही सिंहासन पर बैठे और सत्ता में बराबर के भागीदार हों? निश्चित रूप से नहीं। यह ज़रूरी है कि दोनों में से कोई एक, दूसरे को अपने अधीन रखे। यह उम्मीद करना कि दोनों बराबरी के दर्ज़े पर रह सकते हैं, एक असंभव और अकल्पनीय ख़्वाहिश है। लेकिन जब तक एक क़ौम दूसरी क़ौम को अपने अधीन न कर ले और उसे अपना फ़रमाँबरदार न बना ले, तब तक शांति संभव नहीं है। यह निष्कर्ष निहायत ही पुख़्ता सबूतों पर आधारित है और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।’
सर सैयद अहमद के प्रयासों से मुसलमानों में अंग्रेज़ी शिक्षा का प्रभाव बढ़ा। शिक्षा के साथ शासन में भागीदारी का कौशल और इच्छा ने भी जन्म लिया।
लेकिन साथ ही यह भय भी सताने लगा कि अल्पसंख्यक होने के कारण उनको शासन में बराबरी की हिस्सेदारी नहीं मिल सकेगी और उनको न केवल दबाया जाएगा बल्कि उनकी संस्कृति, उनके धर्म और उनकी भाषा को कुचलने का प्रयास किया जाएगा।
इसी भय के कारण सर सैयद अहमद ख़ाँ के विचारों से प्रभावित कुछ प्रमुख मुसलमानों ने 1906 में अखिल भारतीय मुसलिम लीग की स्थापना की। इन नेताओं ने तब के वाइसरॉय मिंटो से मिलकर माँग की कि भारत के शासन से जुड़ा कोई भी भावी परिवर्तन हो तो उसमें मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के तहत सीटें सुरक्षित की जाएँ ताकि ‘असहानुभूतिशील’ बहुसंख्यक हिंदुओं से उनकी सुरक्षा हो सके।
पहले जिन्ना ने देश तोड़ने की माँग का किया था विरोध
लेकिन इस माँग का विरोध किया एक मुसलमान ने ही। वह मुसलमान था मुंबई का एक जाना-माना बैरिस्टर जो 1896 से ही कांग्रेस से जुड़ा हुआ था। उसने मुसलिम लीग के नेताओं की इस माँग का यह कहकर विरोध किया कि एक, ये नेता मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते और दो, उनकी यह माँग देश को तोड़ने वाली है। उस बैरिस्टर का नाम था मुहम्मद अली जिन्ना।
जिन्ना का शुरुआती राजनीतिक इतिहास बहुत दिलचस्प है। दिलचस्प इस कारण कि शुरू में वे जिन बातों का विरोध कर रहे थे, आगे चलकर वे उसी के समर्थक हो गए। यही नहीं, आगे चलकर वे इसी मुसलिम लीग के अध्यक्ष बने। लेकिन परिस्थितियों के साथ विचारों और इरादों का बदलना कोई अनूठी व अस्वाभाविक बात नहीं है। यह बदलाव अगर हमने जिन्ना में देखा तो कांग्रेस के बाक़ी नेताओं में भी। लेकिन इसके बारे में हम बात करेंगे अगली कड़ियों में।
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