पूरा एक सप्ताह बीत गया, ना तो बात हुई, ना बात बन पाई। फिर बात बनाने की कोई ईमानदार कोशिश भी नहीं हुई। किसका ‘ईगो’ या अहंकार बड़ा रहा- जो माफ़ी मांगने के लिए कह रहे हैं या फिर जो पूछ रहे हैं कि किस बात के लिए माफ़ी? इस बहस से बड़ा मसला यह है कि नुक़सान जनता का हो रहा है। जनता के मुद्दों पर चर्चा नहीं हो रही।
संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में मौटे तौर पर कोई कामकाज नहीं हुआ। पार्लियामेंट शब्द लैटिन भाषा से बना है जिसका मतलब है बातचीत, संवाद तो फिर पार्लियामेंट में बैठने वालों के बीच संवादहीनता क्यों हो रही है, क्या आपस में बैठकर कोई मुद्दा हल नहीं किया जा सकता और यह मुद्दा कोई इतना गंभीर राष्ट्रीय हित या सीमा विवाद जैसा नहीं है, लगता है कि विषय से ज़्यादा अहम बड़ा हो गया है?
मानसून सत्र में हंगामे और अशोभनीय व्यवहार को लेकर सरकार के प्रस्ताव पर 12 विपक्षी सांसदों को राज्यसभा से निलम्बित कर दिया गया यानी पूरे शीतकालीन सत्र में वे सदन की कार्रवाई में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। यानी उऩकी जो ज़िम्मेदारी है वो उसे पूरा नहीं कर पाएंगे। तो सवाल यह है कि राज्यसभा के सभापति, सरकार के संसदीय कार्यमंत्री या फिर सदन में अलग-अलग पार्टियों के नेता बैठकर इसे क्यों ख़त्म नहीं कर लेते।
औपचारिक तौर पर सदन में माफ़ी मांगने के बजाय सभापति के कक्ष में क्यों नहीं इसे सुलझा लिया जाता। कहा जाता है कि सदन को चलाना सरकार की प्राथमिक ज़िम्मेदारी होती है और सदन को सुचारू रूप से चलाने में विपक्ष को सहयोग देना चाहिए, तो क्या दोनों ही पक्ष अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा नहीं कर रहे। कुछ लोग कहते हैं कि यह झगड़ा अहम का नहीं है, मसला तो चुनावों का है, फ़रवरी-मार्च में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों का है। राजनीतिक दलों को लगता है कि इस बहाने वो जनता की नज़र में अपनी बात को ताक़तवर तरीक़े से रख पाएंगे।
माना जाता है कि सत्ता पक्ष को बड़ा दिल रखना चाहिए और विपक्ष को भी इसे अहम का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। इससे उलट सप्ताह के आख़िरी दिन तो विपक्षी सदस्यों के धरने के ख़िलाफ़ सत्ता पक्ष के सांसद भी प्रदर्शन करने लगे।
ऐसा माना जाता है कि संसदीय व्यवस्था में लोकतंत्र बहुमत से चलता है, लेकिन उससे भी ज़रूरी अल्पमत के हितों का ध्यान रखना भी बहुमत की ज़िम्मेदारी ही नहीं, असल मायने होता है।
वैसे, हाल के वक़्त में सबसे ज़्यादा हंगामा 2010 में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर हुआ। उस साल लोकसभा में सिर्फ़ 2 फ़ीसदी और राज्यसभा में सिर्फ़ 6 फ़ीसदी काम हुआ। तब हंगामा करने वाले ज़्यादातर विपक्षी सांसद बीजेपी से थे। तब कांग्रेस सरकार थी।
साल 1963 में पहली बार ऐसा मौक़ा आया। तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन संसद के दोनों सदनों से संयुक्त सत्र को संबोधित कर रहे थे, उस वक़्त कुछ सांसदों ने हंगामा किया और फिर वॉकआउट कर गए। तब लोकसभा ने इन सांसदों पर कार्रवाई की। फिर 1989 में ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान हंगामे के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा 63 सांसदों को लोकसभा से निलंबित किया गया। इसके बाद 2010 में जब राज्यसभा में केन्द्रीय मंत्री महिला आरक्षण बिल पेश कर रहे थे, कुछ सांसदों ने मंत्री के हाथ से बिल की कॉपी छीन ली। तब सात सांसदों को निलंबित किया गया।
साल 2013 और 2014 में तेलंगाना राज्य के गठन का विरोध करने वाले 9 सांसदों को, फिर 12 सांसदों और फिर 16 सांसदों को निलंबित किया गया। साल 2019 में लोकसभा में आंध्र प्रदेश के लिए विशेष दर्जे की मांग पर हंगामा करने वाले 45 सांसदों को एक दिन के लिए निलंबित किया गया। और 2020 में तीन कृषि क़ानून का विरोध करने वाले कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और टीएमसी के सांसदों ने हंगामा किया। इस पर आठ सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित किया गया। 2021 में मानसून सत्र के दौरान लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस के 6 सांसदों को एक दिन के लिए निलंबित किया गया।
संभवत: दो मौक़े तो ऐसे भी आए जब सांसद के ख़िलाफ़ सबसे कड़ी कार्रवाई करते हुए उनकी सदस्यता को ख़त्म करने का फ़ैसला लिया गया।
माना जाता है कि देश की राजनीति में जब से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ तब से संसद में हंगामों का शोर बढ़ने लगा और दबाव की राजनीति के लिए इसका इस्तेमाल सरकार के कामकाज पर रोक लगाने के लिए किया जाने लगा। लेकिन लंबे समय बाद जब 2014 में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार आई तो लगा कि वो इस दबाव की राजनीति के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हमेशा ही संसद की बैठक शुरू होने से पहले हर मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार रहने की बात करते रहे हैं। आँकड़ों की बात मानें तो साल 2009 से 2014 के बीच मनमोहन सिंह सरकार के मुक़ाबले 2014 से 2019 और बाद में सदन में ज़्यादा चर्चाएँ हुईं क़रीब 32 फ़ीसदी। बहुत से महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा भी हुई तो बहुत से बिल बिना विस्तृत चर्चा के भी पास किए गए।
संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने के लिए दोनों सदनों में नियम बने हुए हैं। इन नियमों के तहत सांसदों को दूसरे के भाषण में बाधा करने की इजाज़त भी नहीं है। लोकसभा में इन नियमों में 1989 में बदलाव किया गया। अब सांसदों के सदन में नारेबाज़ी करने, प्लेकार्ड दिखाने, सरकारी काग़ज फाड़ने और कैसेट या कुछ और बज़ाने पर रोक है। दोनों सदनों के सभापति को सांसद के ठीक से व्यवहार नहीं करने पर सदन से बाहर निकालने का अधिकार है, तब सांसद को पूरे दिन सदन से बार रहना पड़ेगा। ज़्यादा अशोभनीय व्यवहार होने पर सभापति सदस्य का नाम ले सकते हैं। इस पर संसदीय मंत्री उस सदस्य को निलंबित करने का प्रस्ताव ऱख सकते हैं और सदन उस पर सहमति दे तो निलंबन हो सकता है। यह निलंबन उस सत्र के आख़िरी दिन तक रह सकता है। लोकसभा ने साल 2001 में नियमों में 374 A (ए) जोड़कर लोकसभा अध्यक्ष को किसी भी सदस्य को पाँच दिन के लिए निलंबित करने का अधिकार दे दिया गया।
वाजपेयी सरकार के वक़्त बेहतर संसदीय व्यवस्था के लिए एक राष्ट्रीय सम्मेलन साल 2001 में हुआ। उसमें बहुत से राजनेताओं ने अपने विचार ज़ाहिर किए।
तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का कहना था कि सदन चलाने की ज़िम्मेदारी सत्ता पक्ष या बहुमत वाले दल की होती है और उसे दूसरे दलों को विश्वास में लेकर सदन चलाना चाहिए। विपक्षी दलों को अपनी बात रखते के साथ सदन चलाने में मदद करनी चाहिए।
तब विपक्ष की नेता सोनिया गांधी का मानना था कि चर्चा लोकतंत्र का अहम हिस्सा है, इसलिए सदन में हंगामे कम और चर्चा ज़्यादा होनी चाहिए। श्रीमती गांधी का कहना था कि सभापति को सरकार के ख़िलाफ़ मुद्दे या सवाल उठाने में विपक्षी दलों का सहयोग करना चाहिए। विपक्षी सदस्यों में से कुछ की जब यह राय बनी कि सदन को बिलकुल नहीं चलने देने से उसकी छवि पर उलटा असर पड़ेगा और सरकार यह जताने की कोशिश करेगी कि विपक्ष को जनता के मुद्दे उठाने में रुचि नहीं है, तो लोकसभा की कार्यवाही चलने देने और बहस में हिस्सा लेने का फ़ैसला किया गया।
साथ ही बहस के आख़िर में हर सदस्य सांसदों के निलंबन की वापसी की मांग रखेगा तो क्या ऐसी ही व्यवस्था राज्यसभा में नहीं की जा सकती। मुझे याद आ रहा है कि जापान में एक बार एक जूता बनाने वाली कंपनी के मज़दूरों ने मैनेजमेंट के किसी फ़ैसले के ख़िलाफ़ हड़ताल पर जाने का फ़ैसला किया तो उन्होंने काम नहीं रोका, बल्कि पूरी हड़ताल के दौरान वे सिर्फ़ दाहिने पैर के यानी एक तरफ़ का जूता बनाते रहे, जिससे बंद करने का आरोप भी नहीं लगा और मैनेजमेंट भी दबाव में आ गया और हड़ताल ख़त्म हो गई।
मेरी मंशा और हैसियत दोनों ही माननीय सदस्यों को सलाह देने की नहीं हैं, बस इतना याद दिलाने की इच्छा है कि वो याद रखें कि वो जनता के नुमाइंदे हैं लेकिन उनके इम्तिहान यानी चुनावों के वक़्त “एक्ज़ामिनर” भी जनता ही होती है और वो पूरे पांच के कामकाज पर रिपोर्ट बना कर फ़ैसला देती है और उनके रिपोर्ट कार्ड से ही सरकारें आती-जाती रहती हैं।
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