सुप्रीम कोर्ट और देश के कुछ उच्च न्यायालयों ने नागरिक अधिकारों और उनके संरक्षण की लड़ाई में जुटे कार्यकर्ताओं, सरकारों के द्वारा क़ानून की विभिन्न धाराओं के तहत उनकी गिरफ्तारियों आदि को लेकर पिछले कुछ महीनों के दौरान महत्वपूर्ण फ़ैसले सुनाये हैं। इन फ़ैसलों को लेकर काफ़ी प्रतिक्रियाएँ भी हुईं हैं। हाल ही के एक निर्णय में दिल्ली दंगों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए तीन युवा एक्टिविस्ट्स की जमानत अर्जियाँ मंजूर करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस आशय की टिपण्णी भी की कि : ‘असहमति को दबाने की जल्दबाज़ी में राज्य के दिमाग़ में विरोध प्रकट करने के प्राप्त अधिकार और आतंकी गतिविधियों के बीच की रेखा धुंधली होने लगती है। अगर ऐसी मानसिकता जोर पकड़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे दुखद होगा।’
यूँ ही दस्तक देती है अधिनायकवादी व्यवस्था!
- विचार
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- 23 Jun, 2021

हम शायद महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं की बैठकें अब उस तरह से नहीं हो रही हैं जैसे पहले कभी विपक्षी हो-हल्ले और शोर-शराबों के बीच हुआ करती थीं। विपक्ष और आम नागरिक अपेक्षित दायित्वों के प्रति विधायिका और कार्यपालिका की उदासीनता को स्वीकार करने लगते हैं, लोकतंत्र की जगह अधिनायकवादी व्यवस्था दस्तक देने लगती है।
एक उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी और जमानत के फ़ैसले पर प्रतिरोध करने की आज़ादी और उसकी राजनीति का समर्थन करने वाले लोगों का प्रसन्नता जाहिर करना स्वाभाविक था। गेंद अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में पहुँच गई है। यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज [प्रिवेंशन] एक्ट) के प्रावधानों की दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या के प्रति सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने अभी अपनी सहमति नहीं दिखाई है। सुप्रीम कोर्ट उस पर विचार करने के बाद अगर उसे ख़ारिज कर देती है तो क्या नागरिक अधिकारों की लड़ाई के प्रति अदालतों के नज़रिए को लेकर हमारी प्रतिक्रिया भी बदल जायेगी या पूर्ववत कायम रहेगी?