ग़ैर-भाजपाई विचारधारा वाले दलों से चुनिंदा नेताओं को बीजेपी में शामिल कर विपक्षी सरकारों को गिराने या चुनाव जीतने की कोशिशों पर जताई जाने वाली नाराज़गी और नज़रिए में थोड़ा सा बदलाव कर लिया जाए तो जो चल रहा है उसे बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी में सरकार के स्थायित्व को लेकर इन दिनों जैसी राजनीतिक हलचल दिखाई पड़ रही है वैसी पहले कभी नहीं दिखाई दी। अटल जी भी अगर दल-बदल करवाकर पार्टी के सत्ता में बने रहने के मोदी-फ़ार्मूले पर काम कर लेते तो 2004 में उनकी सरकार न सिर्फ़ फिर से क़ायम हो जाती, दस साल और बनी रहती।
नैतिक दृष्टि से इसे उचित नहीं माना जा रहा है कि बीजेपी में दूसरे दलों से उन तमाम प्रतिभाओं की भर्ती की जा रही है जो पार्टी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि, उसकी साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति और रणनीति के सार्वजनिक तौर पर निर्मम आलोचक रहे हैं। पिछले कुछ सालों में (2014 के बाद से) मनुवाद-विरोधी बसपा, सम्प्रदायवाद-विरोधी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित तमाम दलों के बहुतेरे लोगों के लिए बीजेपी के दरवाजे खोल दिए गए और उनके गले में केसरिया दुपट्टे लटका दिए गए।
हाल ही में बीजेपी में शामिल होने वालों में कांग्रेस के जितिन प्रसाद को गिनाया जा सकता है। सचिन पायलट रास्ते में हो सकते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य (बसपा), ज्योतिरादित्य सिंधिया (कांग्रेस), शुभेंदु अधिकारी (तृणमूल कांग्रेस), आदि की कहानियाँ अब पुरानी पड़ गई हैं। बदलती हुई स्थितियों में राजनीतिक धर्म-परिवर्तन की इन तमाम घटनाओं को भगवा चश्मों से देखना स्थगित कर कोरी आँखों से देखने का अभ्यास शुरू कर दिया जाना चाहिए।
हो यह रहा है कि बहती हुई लाशों के चित्रों को देख-देखकर शोक मनाते रहने की व्यस्तता में हम दूसरी महत्वपूर्ण घटनाओं को अपनी आँखों की पुतलियों के सामने तैरते रहने के बावजूद नहीं देख पा रहे हैं। साथ ही यह भी कि कुछ ऐसे कामों, जिनमें अपनी जान बचाना भी शामिल हो गया है, में हम इस कदर जोत दिए गए हैं कि हमें होश ही नहीं रहेगा और किसी दिन राष्ट्र के नाम एक भावुक सम्बोधन मात्र से नागरिकों की ज़िंदगी की दिशा और देश की दशा बदल दी जाएगी। टीका केवल कोरोना महामारी से बचने का ही लगाया जा रहा है, राजनीतिक पोलियो से बचाव का नहीं।
अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर मानव संसाधनों और स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से पायदान-दर-पायदान नीचे गिरते जा रहे हैं उसकी शर्म से विदेशों में बसने वाले आप्रवासी भारतीय नागरिकों के सिर झुकते जा रहे हैं।
हो सकता है प्रधानमंत्री एक लम्बे समय तक ह्यूस्टन जैसी किसी रैली में यह नहीं कह पाएँ कि ‘ऑल इज वेल इन इंडिया।’
सत्ताधीशों की परेशानी का दूसरा बड़ा मोर्चा यह है कि हिंदुत्व के कट्टरवाद की बुनियाद पर नागरिकों के साम्प्रदायिक विभाजन को वोटों में बदलने का मानसून अब कमजोर पड़ता जा रहा है। इसे यूँ समझ जा सकता है कि हाल के विधान सभा चुनावों तक स्टार प्रचारक के तौर पर माथों पर तोके जा रहे योगी आदित्यनाथ को बंगाल और उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में पार्टी को धक्का लगते ही बदलने की चर्चाएँ चलने लगीं।
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महामारी ने जिस तरह से बिना कोई आधार कार्ड मांगे सभी धर्मों और सम्प्रदायों के प्राणियों को नदियों की लहरों पर उछलती-डूबती लाशों की गठरियों या राख के ढेरों में बदल दिया है उसकी सबसे बड़ी चोट हिंदुत्व के चुनावी एजेंडे पर पड़ी है। महामारी के साथ लोहा लेने की जर्जर व्यवस्था ने संकुचित राष्ट्रवाद के नारों से लोगों के जीवन, रोज़गार और घरों को बचा पाने की निरर्थकता को कमोबेश बेनक़ाब कर दिया है। मौतों के वास्तविक आँकड़ों में हुई हेराफेरी और पारस्परिक विश्वास में किए गए ग़बन ने सत्ता के शीर्ष पुरुषों के प्रति यक़ीन को खंडित कर उनकी लोकप्रियता के अहंकार को अड़तीस प्रतिशत तक सीमित कर दिया है। समझ में आने लगा है कि राष्ट्रवाद के कोरोनिली इलाज का रास्ता ‘ब्लू व्हेल चैलेंज’ का खेल है जिसमें व्यक्ति अपने संकट की घड़ी में अपने सत्ता-पुरुषों की तलाश करता हुआ अंत में आत्महंता बन जाता है।
विभिन्न दलों की सर्वगुण सम्पन्न प्रतिभाओं के बीजेपी में प्रवेश को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि पार्टी अपने अश्वमेघ यज्ञ का अधूरी विजय-यात्रा में ही समापन होते देख भयभीत हो रही है। बीजेपी अब अपनी आगे की यात्रा सिर्फ़ पुरानी बीजेपी के भरोसे नहीं कर सकती! उसे अपनी पुरानी चालों और पुराने चेहरों को बदलना पड़ेगा। चेहरे चाहे किसी योगी के हों या साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह, साध्वी प्राची, प्रज्ञा ठाकुर या उमा भारती के हों। इसका एक अर्थ यह भी है कि राजनीति में सत्ता का बचे रहना ज़रूरी है, व्यक्तियों का महत्व उनकी तात्कालिक ज़रूरत के हिसाब से निर्धारित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री को दुनिया की महाशक्तियों का नेतृत्व करना है और उसके लिए अब नए फ़्रंटलाइन चेहरों और चाहे ऊपरी तौर पर ही सही, बदले हुए पार्टी एजेंडे की ज़रूरत है।
जो कुछ चल रहा है उसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि बिना प्रजातांत्रिक हुए भी मोदी तो बीजेपी को बदल रहे हैं पर राहुल गांधी कांग्रेस को, मायावती और अखिलेश यादव बसपा-सपा को, ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस को और उद्धव ठाकरे शिव सेना को अपने परिवारों की पकड़ से मुक्त करने को कोई जोखिम नहीं ले रहे हैं।
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