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‘संविधान हत्या दिवस’ या नफ़रत की आग में बासी कढ़ी उबालने की कोशिश!

इमरजेंसी का फ़ैसला वाक़ई ग़लत था, लेकिन इंदिरा देवी नहीं मानवी ही थीं। उन्होंने ग़लती की और उसे क़ुबूल किया। देश की जनता ने इसे समझा और उन्हें जिताकर इमरजेंसी की कथा का 1980 में उद्यापन कर दिया था। 
पंकज श्रीवास्तव

मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल का पहला संसदीय सत्र बीत जाने के बाद ऐलान किया है कि हर साल 25 जून को इमरजेंसी लगाये जाने की याद में ‘संविधान हत्या दिवस' मनाया जाएगा। इस संबंध में जारी हुए गजट नोटिफ़िकेशन की तस्वीर के साथ पूर्व प्रधानमंत्री (शहीद) इंदिरा गाँधी को कोसते हुए गृहमंत्री अमति शाह ने 12 जुलाई की शाम सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट लिखी जिसे रीपोस्ट करने में प्रधानमंत्री मोदी ने ज़रा भी देर नहीं की।

50 साल बाद इमरजेंसी की याद को ‘सरकारी’ बनाने की इस कोशिश की एकमात्र वजह लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी के तेवरों से पैदा हुआ भय है जिनकी कोशिशों ने मोदी के ‘महाबली’ होने का भ्रम तोड़ते हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बहुमत पाने से रोक दिया। पीएम मोदी को लगता है कि इमरजेंसी के लिए इंदिरा गाँधी को कोसने से उनके पोते राहुल गाँधी कमज़ोर पड़ेंगे जिनकी उम्र 1975 में महज़ पाँच साल थी। 

पीएम मोदी 'कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देते हुए सत्ता में आये थे लेकिन दस साल बाद देश एक दूसरे ही माहौल से गुज़र रहा है। न सिर्फ़ कांग्रेस पुनर्जीवित हो उठी है बल्कि राहुल गाँधी अपनी संवेदनशीलता और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हुए एक ऐसी बड़ी लकीर खींच रहे हैं जिसके सामने मोदी ‘बौने’ नज़र आने लगे हैं। ऐसे में ‘संविधान हत्या दिवस’ की यह सरकारी पहल  नफ़रत की आग में पचास साल पुरानी बासी कढ़ी में उबाल लाने की कोशिश भर लगती है जो माहौल में बदबू ही भरेगी।

इमरजेंसी का मामला बासी कढ़ी इसलिए है क्योंकि जनता की अदालत में इस पर फ़ैसला हो चुका है। इंदिरा गाँधी ने ख़ुद इस फ़ैसले की ज़िम्मेदारी लेते हुए सार्वजनिक रूप से खेद प्रकट किया था। जनता ने इसे ‘फ़ैसला लेने में हुई चूक’ मानते हुए उन्हें माफ़ भी कर दिया था। नतीजा ये हुआ था कि 1980 के चुनाव में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने लोकसभा की 353 सीटें जीत ली थीं जो 1971 में ‘ग़रीबी हटाओ’ के प्रचंड वेग में मिली सीटों से भी एक ज़्यादा थी। ग़ौरतलब है कि महाबली मोदी के नेतृत्व में बीजेपी आज तक इतनी सीटें जीतने में क़ामयाब नहीं हुई है।
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देश ने यह भी देखा है कि जब आपातकाल जैसी किसी स्थिति को भविष्य में आने से रोकने के लिए 7 दिसंबर 1978 को लोकसभा में जनता पार्टी की सरकार ने 44वाँ संविधान संशोधन पेश किया तो इंदिरा गाँधी ने भी उसके पक्ष में वोट दिया था। यही नहीं, जब अपने अंतिम भाषण में किये गये वादे के मुताबिक़ इंदिरा गाँधी ने अपने शरीर की एक-एक बूँद भारत की एकता और अखंडता पर न्योछावर कर दी, तो देश ने जिस तरह आँसू बहाया था उसमें इमरजेंसी जैसी ग़लती को याद करने की कोई जगह नहीं थी।

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने ‘संविधान हत्या दिवस’ की तर्ज़ पर 30 जनवरी को ‘शहीद दिवस’ की जगह ‘बापू हत्या दिवस’ मनाने की तंज़िया सलाह देकर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की मानसिकता पर गहरा कटाक्ष किया है जो 'हत्या दिवस’ जैसा शब्द पद गढ़ती है। जिसे स्वतंत्रता दिवस से ज़्यादा 'विभाजन विभीषिका दिवस' प्रिय है।

वैसे लोकतंत्र को स्थगित करने के लिए चाहे जितनी आलोचना की जाये, इमरजेंसी को संविधान की ‘हत्या’ कहना तकनीकी रूप से भी पूरी तरह ग़लत है। इमरजेंसी संविधान के प्रावधानों के हिसाब से ही लगी थी।

संविधान सभा में काफ़ी बहस के बाद सरकार को बाहरी या गंभीर आंतरिक ख़तरे को देखते हुए आपातकाल लगाने का अधिकार दिया गया था। उस समय जैसे हालात थे, उसमें तमाम लोगों का मानना है कि इमरजेंसी लगाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। शिवसेना सांसद संजय राउत ने कहा भी है कि उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होते तो वे भी इमरजेंसी ही लगाते। 

मोदी सरकार के इस क़दम ने मौक़ा दिया है कि उस समय के हालात पर नज़र डाली जाए जब इंदिरा गाँधी को 'बाहरी और आंतरिक सुरक्षा का ख़तरा’ इस क़दर लगा कि उन्होंने इमरजेंसी लगा दी।

1971 में इंदिरा गाँधी ने अमेरिका की आँख में आँख डालकर पाकिस्तान के दो टुकड़े किये थे। बांग्लादेश का निर्माण इतिहास की अभूतपूर्व घटना थी। लेकिन इंदिरा गाँधी सीआईए के ज़रिए अमेरिका के पलटवार को लेकर सशंकित थीं। सीआईए ने सितंबर 1973 में चिली में सल्वाडोर आलेंदे की सरकार को अपदस्थ करा दिया था। 11 नवंबर को आलेंदे की हत्या कर देने की ख़बर जब इंदिरा गाँधी को मिली तो वे दिल्ली में क्यूबा के राष्ट्रपति फ़िदेल कास्त्रो की मेज़बानी कर रही थीं। कास्त्रो ने बाद में लिखा कि ‘इंदिरा ने उस वक़्त उनसे कहा था-उन्होंने जो आलेंदे के साथ किया है, वही मेरे साथ भी करना चाहते हैं। चिली में जिन ताक़तों ने यह काम किया है, उनसे जुड़े लोग यहाँ भी हैं।’

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देश के आंतरिक हालात भी बेहद ख़राब थे। गुजरात की मेस में दाम बढ़ने से शुरू हुआ आंदोलन 1974 की रेल हड़ताल तक पहुँच गया था जिसका मक़सद बिजली घरों को कोयले से वंचित करके उद्योग धंधों को ठप करना और खाद्य पदार्थों की भारी क़िल्लत पैदा करना था। इसके लिए बम-बारूद का इस्तेमाल भी किया जा रहा था। महंगाई, भ्रष्टाचार और नवनिर्माण के नारों के बीच सेना और पुलिस से सरकार के आदेश की अवहेलना की अपील की जाने लगी थी। इस आंदोलन के नेता जयप्रकाश नारायण एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें कभी नेहरू जी सरकार में शामिल करना चाहते थे। इंदिरा भी उनके लिए बेटी की तरह थीं लेकिन माहौल को देखते हुए जेपी उन्हें ‘अराजकता के सिद्धांतकार’ लग रहे थे।

यह सिर्फ़ इंदिरा गाँधी का मानना नहीं था। मशहूर पत्रकार और टाइम्स आफ इंडिया के तत्कालीन संपादक शाम लाल ने लिखा कि “जो राजनीतिक माहौल जेपी पैदा कर रहे हैं वह क्रांति के लिए नहीं बल्कि अराजकता के लिए अनुकूल है।” द हिंदू ने लिखा, “राजनीति की मुख्यधारा से बाहर रहने और उसको मज़बूत आधार पर नया आकार देने से कतराने के बाद अब श्री नारायण इसी घर में ग़लत रास्ते से घुसने की कोशिश कर रहे हैं और इस घर को ही हर एक व्यक्ति के सर पर गिरा देना चाहते हैं।”

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इमरजेंसी का एक दिलचस्प सिरा आरएसएस से भी जुड़ता है जिसकी शाखाओं में पीएम मोदी प्रशिक्षित हुए हैं। आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने संघ से प्रतिबंध हटवाने के लिए इंदिरा गाँधी को दो और इमरजेंसी को ‘अनुशासन पर्व’ कहने वाले संत विनोबा भावे को एक पत्र लिखा। उन्होंने इमरजेंसी के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के लिए इंदिरा गाँधी को बधाई दी और वादा किया कि अगर प्रतिबंध हट जाये तो स्वयंसेवक सरकारी की योजनाओं में सहायता देंगे। बड़ी तादाद में संघ के स्वयंसेवक माफ़ी माँगकर जेल से बाहर आ गये। उन्होंने देवरस की तरह दावा किया कि आपातकाल विरोधी आंदोलन से उनका कोई नताा नहीं है।

लंबे समय तक आरएसएस के स्वयंसेवक रहे देसराज गोयल ने इस संगठन पर लिखी अपनी चर्चित किताब में बाला साहब देवरस के साथ महाराष्ट्र की यरवदा जेल में बंद महाराष्ट्र के समाजवादी नेता बाबा आधव के हवाले से जेल के अंदर संघियों के बर्ताव का चित्रण कुछ यूँ किया है-

“वस्तुतः उनमें से अनेक तो इमरजेंसी के शासन को उचित ठहराते थे। ‘जेपी ने सशस्त्र फ़ौज को भड़काया है’-वे ऐसा अपने जेल बौद्धिक यानी भाषण में कहते थे। इंदिरा-संजय की नीतियों का कोई विरोध कम से कम उनकी ओर से तो नहीं था। वस्तुतः संजय गाँधी के कम्युनिस्ट विरोध, व्यक्तिवाद और अधिनायकवादी विचारों का वे स्वागत करते थे।” (पेज नंबर 107,  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, लेखक-देसराज गोयल)

ऐसे में सवाल उठता है कि आरएसएस से जुड़े लोगों के पास इमरजेंसी पर सवाल उठाने का क्या कोई नैतिक हक़ है? इसमें पीएम मोदी और अमित शाह भी आते हैं। यह भी याद रखना चाहिए कि उस समय गुजरात में बाबू भाई पटेल की विपक्षी सरकार थी जिसने आंदोलनकारियों से सख़्ती करने से मना कर दिया था। गुजरात आंदोलकारियों के लिए सुरक्षित शरणस्थली था। पीएम मोदी की तो आंदोलन में कोई भूमिका ही नहीं थी जैसा कि बीजेपी सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी बार-बार कहते हैं। हालाँकि उनकी उम्र के तमाम लोग इमरजेंसी विरोधी आंदोलन में जेल गये थे।

इमरजेंसी के पीछे का एक कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला भी माना जाता है जिसमें रायबरेली से इंदिरा गाँधी के चुनाव को रद्द कर दिया गया था।

12 जून 1975 को जस्टिस जगमोहन साल सिन्हा ने इंदिरा गाँधी को 14 में से 12 आरोपों से बरी कर दिया था। उन्हें दो आरोपों के लिए दोषी पाया गया। एक तो यह कि यूपी सरकार ने उनके भाषण के लिए एक ऊँचा मंच बनवाया था ताकि जनता को प्रभावित कर सकें और दूसरा यह कि उनके चुनाव प्रभारी यशपाल कपूर चुनाव प्रचार अभियान शुरू होने के वक़्त भी सरकारी सेवा में थे ( तब तक इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं हुआ था)। कई टिप्पणीकारों ने लिखा है कि यह ट्रैफ़िक रूल उल्लंघन के मामले में पीएम को पद से हटाने जैसा था। इस फ़ैसले ने इंदिरा गाँधी के मन में साज़िश रचे जाने की आशंका को बल दिया था। (मोदी राज में सरकारी ही नहीं चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएँ भी जिस तरह चुनाव में बीजेपी के लिए काम करती नज़र आती हैं, उसके सामने तो मंच बनवाना बच्चों का खेल लगता है।)

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इमरजेंसी को हटाना भी इंदिरा गाँधी का ही फ़ैसला था। वे इमरजेंसी के फ़ैसले को लेकर कभी सहज नहीं थीं। वे समझती थीं कि देश को एक बीमारी लग गयी है जिसके लिए कड़वी दवा पिलानी पड़ रही है और बेटे के इलाज के लिए कड़वी दवा पिलाने की तकलीफ़ माँ को भी होती है। इमरजेंसी के दौरान 19 महीने जेल में काटने वाले मधु लिमये ने लिखा है—

“इंदिरा ने 1977  में चुनाव कराने के जो कारण बताये वह सचमुच व्यक्तित्व की अंतरात्मा को प्रतिबिंबित करता है।…..इंदिरा गाँधी यह कभी नहीं भूल सकती थीं कि वह जवाहरलाल नेहरू की बेटी हैं और हम सब की तरह महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलने वाले स्वतंत्रता संग्राम की संतान हैं।”  ( पेज 120, इंदिरा गाँधी, लेखक इंदर मल्होत्रा)

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इंदिरा गाँधी वाक़ई स्वतंत्रता संग्राम की संतान थीं जिन्होंने अपना 25वाँ जन्मदिन अपने पति के साथ जेल की बैरक में मनाया था। वे नेहरू और महात्मा गाँधी की गोद में खेली थीं। उनसे यह उम्मीद करना ग़लत नहीं है कि वे इमरजेंसी का फ़ैसला करने के बजाय राजनीतिक मोर्चे पर मुक़ाबला करतीं। इमरजेंसी का फ़ैसला वाक़ई ग़लत था, लेकिन इंदिरा देवी नहीं मानवी ही थीं। उन्होंने ग़लती की और उसे क़ुबूल किया। देश की जनता ने इसे समझा और उन्हें जिताकर इमरजेंसी की कथा का 1980 में उद्यापन कर दिया था। इसके बाद तमाम चुनाव आये गये,  इमरजेंसी कभी मुद्दा नहीं बना।

दरअसल, जिस सरकार के पास भविष्य गढ़ने के लिए कोई कथानक नहीं होता वही इतिहास के पन्नों का बार-बार मंचन करके जनता को बरगलाने की कोशिश करती है। अफ़सोस, पीएम मोदी ऐसी ही सरकार के नेता हैं। आज जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं पर बिना इमरजेंसी लगाये क़ब्ज़ा किया जा रहा है, आलोचकों को देशद्रोही बताया जा रहा है, चुने हुए मुख्यमंत्री तक को जेल में रखने के लिए एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है, तमाम लेखक और बुद्धिजीवियों को जेल में डाला जा रहा है, अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर मुस्लिमों की जगह-जगह लिंचिंग हो रही है और सबसे बड़ी बात कि बीते चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी ने ख़ुद जिस तरह अपने सांप्रदायिक भाषणों से देश के माहौल को विषाक्त किया, उसे देखते हुए पचास साल पहले लगी इमरजेंसी पर बहस कराना एक शातिर मगर हास्यास्पद प्रयास ही है। इंदिरा गाँधी ने जो भी किया हो, देश की जनता को धर्म के नाम पर बाँटने का पाप नहीं किया था।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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