18वीं लोकसभा के प्रथम सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने हमेशा की तरह वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों से मुँह छिपाते हुए अतीत की शरण ली। उन्होंने कहा कि 'नेहरू की दलित विरोधी मानसिकता’ के कारण डॉ.अंबेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी ने डॉ.अंबेडकर को चुनाव नहीं जीतने दिया।
आइये ज़रा पहले आरोप की चर्चा करते हैं। डॉ.अंबेडकर ने अपने निकटतम राजनीतिक सहयोगी भाऊराव कृष्णराव दादा साहेब गायकवाड़ (1902-1971) को 23 सितंबर 1951 को भेज गये पत्र में लिखा-
“मैंने 6 अक्टूबर या उसके आसपास इस्तीफ़ा देना तय कर लिया है। यह वह तिथि है जिस पर हिंदू कोड बिल पारित होने वाला है। किंतु ऐसा लगता है कि इसके न होने की संभावना अधिक है। इसलिए मैं पशोपेश में हूँ। सत्र संभवत: 15 अक्टूबर तक खिंचेगा। यह मुझे मुश्किल से ही उस समय तक चलने देगा। मैं 15 तक तो सरकार का सदस्य रहूँगा।” (पेज 165, डॉ.अंबेडकर के पत्र, सम्यक् प्रकाशन)
यह पत्र बताता है कि डॉ.अंबेडकर ने ‘हिंदू कोड बिल' के पारित न होने की आशंका से आहत होकर 6 अक्टूबर के आसपास नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देना तय कर लिया था। लेकिन उन्होंने पत्र लिखने के चार दिन बाद ही, यानी 27 सितंबर को मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। निश्चित रूप से ही वे तनाव में थे और भारी दबाव महसूस कर रहे थे। वजह यह थी कि इस बिल को लेकर कांग्रेस के अंदर परंपरावादियों का एक बड़ा धड़ा मुखर विरोध में था (जिनमें डॉ.राजेंद्र प्रसाद जैसे कई बड़े नेता थे), तो आरएसएस और रामराज्य परिषद जैसे संगठन सड़कों पर इस बिल को हिंदू विरोधी बताकर डॉ.अंबेडकर का पुतला फूँक रहे थे।
लेकिन पीएम मोदी ने डॉ. अंबेडकर के इस्तीफ़ा के संबंध में न हिंदू कोड बिल का ज़िक्र किया और न उसे लेकर संसद से सड़क तक हुए उस ज़ोरदार हंगामे पर कोई बात की, क्योंकि इससे उनके वैचारिक पुरखों के ‘अंबेडकर विरोध’ की तस्वीर सामने आ जाती जिस पर पर्दा डालने के लिए बीते कुछ दशकों से कोशिश हो रही है।
'हिंदू कोड बिल’ के ज़रिए नेहरू और अंबेडकर की जोड़ी ने हिंदू महिलाओं को अधिकार देने की ऐसी पहल की थी जो इतिहास में दुर्लभ थी। एकल विवाह, महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हक़, जाति से परे जीवन साथी के चयन का अधिकार, तलाक़ का अधिकार और विधवाओं के विवाह आदि का अधिकार देने वाले यह क़ानून परंपरावादियों और तमाम धर्मरक्षकों के लिए वज्र गिरने जैसा था। रामराज्य परिषद के करपात्री महाराज तमाम धर्मसंहिताओं का हवाला देते हुए इस क़ानून को हिंदू विरोधी साबित कर रहे थे तो भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि यह विधेयक “हिंदू संस्कृति की शानदार संरचना को चकनाचूर कर देगा।”
हिंदू कोड बिल को लेकर डॉ. अंबेडकर पर होने वाले निजी हमलों के बार में इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं- “हिंदू कोड बिल विरोधी समिति ने पूरे भारत में सैकड़ों बैठकें कीं, जहां विभिन्न स्वामियों ने प्रस्तावित कानून की निंदा की। इस आंदोलन में भाग लेने वालों ने खुद को धार्मिक युद्ध (धर्मयुद्ध) लड़ने वाले धार्मिक योद्धाओं (धर्मवीर) के रूप में प्रस्तुत किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस आंदोलन के पीछे अपना पूरा ज़ोर लगा दिया। 11 दिसंबर, 1949 को आरएसएस ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की, जहां एक के बाद एक वक्ताओं ने इस विधेयक की निंदा की। एक ने इसे ‘हिंदू समाज पर एटम बम से प्रहार’ कहा … अगले दिन आरएसएस कार्यकर्ताओं के एक समूह ने ‘हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए विधानसभा भवनों पर मार्च किया … प्रदर्शनकारियों ने प्रधान मंत्री और डॉ. अंबेडकर के पुतले जलाए और फिर शेख अब्दुल्ला की कार में तोड़फोड़ की।” (पेज 288, इंडिया आफ्टर गाँधी, लेखक- रामचंद्र गुहा)
यह सिर्फ़ दिल्ली का दृश्य नहीं था। पूरे देश में आरएसएस ने इसी तरह डॉ. अंबेडकर और प्रधानमंत्री नेहरू के पुतले फूंके। आलोचना और विरोध के इस स्तर को देखते हुए ही डॉ. अंबेडकर ने शायद 27 सितंबर को इस्तीफ़ा दे दिया जबकि उन्होंने सत्र समाप्ति यानी 15 अक्टूबर तक सरकार में रहने के बात दादा साहेब गायकवाड़ को भेजे पत्र में लिखी थी।
डॉ. अंबेडकर को तकलीफ़ थी कि हिंदू कोड बिल को लेकर नेहरू जी कांग्रेस के अन्य नेताओं पर दबाव नहीं बना पाये। चूँकि प्रथम लोकसभा चुनाव सामने थे, और कांग्रेस के कई नेताओं का यह भी मानना था कि बिना जनता की अदालत से सरकार होने पर मुहर लगवाये, इतना बड़ा फ़ैसला करना उचित नहीं है। वे कह रहे थे कि अन्तरिम संसद सदस्यों के पास ऐसे मुद्दों पर विचार करने का जनादेश नहीं है।इसलिए पं.नेहरू भी इस बिल पर तत्काल ज़ोर न देने के लिए राज़ी हो गये। डॉ. अंबेडकर ने इसे नेहरू जी की कमज़ोरी माना।
26 सितम्बर, 1951 को संसद में प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा-
"मेरे लिए सदन को यह आश्वासन देना आवश्यक नहीं है कि सरकार इस उपाय के साथ आगे बढ़ने की इच्छा रखती है, जहां तक हम संभावनाओं के भीतर आगे बढ़ सकते हैं, और जहां तक हमारा संबंध है, हम इस मामले को तब तक स्थगित मानते हैं जब तक कि अगला अवसर न मिल जाए - मुझे आशा है कि यह इसी संसद में होगा।”
यह हिंदू कोड बिल के स्थगित करने का ऐलान था जिसकी वजह से दूसरे दिन डॉ. अंबेडकर ने इस्तीफ़ा दे दिया।
डॉ. अंबेडकर ने अपने इस्तीफ़े को लेकर 10 अक्टूबर को जो बयान जारी किया उसमें विस्तार से हिंदू कोड बिल पर नेहरू सरकार की असफलता का ज़िक्र है। हालाँकि इस्तीफ़े का कारण गिनाते हुए उन्होंने पिछड़ी जातियों के लिए तत्काल संवैधानिक उपाय न करने और देश के कई हिस्सों में अनुसूचित जाति के लोगों पर होने वाले अत्याचार का भी ज़िक्र किया लेकिन इसका संबंध ‘नेहरू की मानसिकता’ से नहीं था जैसा कि पीएम मोदी ने आरोप लगाया है। इस इस्तीफ़े में डॉ. अंबेडकर ने सरकार पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग पड़ जाने का आरोप भी लगाया था और यह भी दोहराया था कि ‘जम्मू-कश्मीर को हिंदू और बौद्ध भाग भारत को और मुस्लिम भाग पाकिस्तान को दे देना चाहिए’ लेकिन यह साफ़ था कि उनकी मुख्य नाराज़गी हिंदू कोड बिल को लेकर थी।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस्तीफ़े का कारण बताते हुए ऐसा अर्धसत्य बोला है जो असत्य से भी ख़तरनाक है। आज़ादी के आस पास तमाम बड़े नेताओं में मतभेद होना और उस पर सार्वजनिक रूप से बहस होना सामान्य बात थी। आज की तरह एक नेता को ही बोलने की आज़ादी नहीं थी। नेहरू जी ने अपनी पार्टी के तमाम नेताओं की बात सुनी और 1951-52 का चुनाव जीत कर टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही हिंदू कोड बिल को पारित करा लिया। डॉ. अंबेडकर को निश्चित ही ख़ुशी हुई होगी जब अक्टूबर1954 में संसद ने स्पेशल मैरिज एक्ट पास किया जिसमें जाति और धर्म के दायरे से बाहर जाकर शादी करने को क़ानूनी मान्यता दी गयी। अंबेडकर ‘जाति उच्छेद’ को आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत के निर्माण के लिए ज़रूरी मानते थे और अंतर्जातीय विवाह को इसका उपाय समझते थे।
बहरहाल, संविधान को बदलने और बचाने के राजनीतिक विवाद के बीच यह भी जानना ज़रूरी है कि भारत के संविधान के पारित हो पाने का पूरा श्रेय डॉ. अंबेडकर ने कांग्रेस पार्टी को ही दिया था। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपना अंतिम भाषण देते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा था- “ यह कांग्रेस पार्टी के अनुशासन का ही परिणाम था कि प्रारूप समिति के प्रत्येक अनुच्छेद और संशोधन की नियति के प्रति आश्वस्त होकर उसे सभा में प्रस्तुत कर सकी। इसीलिए सभा में प्रारूप संविधान के सुगमता से पारित हो जाने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।”
पीएम मोदी का दूसरा आरोप तो काफ़ी हास्यास्पद है जिसमें कहा गया है कि कांग्रेस ने डॉ. अंबेडकर को चुनाव नहीं जीतने दिया। 1951 में डॉ. अंबेडकर कांग्रेस के टिकट पर नहीं, बल्कि उसके विरोध में सोशलिस्ट पार्टी के सहयोग से चुनाव लड़ रहे थे। यह कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं थी। डॉ.लोहिया जैसे प्रसिद्ध समाजवादी विचारक ने नेहरू जी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा और हारे। संसदीय लोकतंत्र में यह स्वाभाविक बात है।
वैसे बड़ा सत्य यह है कि जब संविधान सभा के लिए हुए चुनाव में डॉ. अंबेडकर का क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया था तो कांग्रेस पार्टी ने बंबई से अपने सदस्य एम.आर.जयकर को इस्तीफ़ा दिलवाया और इस सीट से डॉ. अंबेडकर को चुनवा कर संविधान सभा में भेजा। यह नेहरू ही थे जिनके प्रस्ताव पर महात्मा गाँधी ने डॉ. अंबेडकर को संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन बनाने पर सहमति दी और फिर इतिहास बन गया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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