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टीके को लेकर भी सरकार की कोई नीति नहीं है!

यह बहुत ही निराशाजनक है कि प्रशासनिक अव्यवस्था और दूरदर्शी नीतियाँ नहीं होने के कारण इस मुश्किल स्थिति में पहुँचने के बावजूद हम आगे के लिए किसी योजना पर काम नहीं कर रहे हैं। देश की इतनी बड़ी आबादी का टीकाकरण साधारण काम नहीं है और चूँकि यह ज़रूरी है इसलिए सोच-समझकर सबसे प्रभावी और फायदेमंद तरीक़ा ढूंढा जाना चाहिए। एक तरफ़ टीकों की कमी है, दूसरी तरफ हर कोई लगवा सकता है और टीके की क़ीमत तय नहीं है। सरकार मुफ्त में किन लोगों को लगवाएगी, यह भी तय नहीं हुआ है, काम शुरू होना तो छोड़िए। अगर ग़रीबों को टीका नहीं लगे (कारण चाहे जो हो) तो जो टीका लगवाएंगे वे शत प्रतिशत सुरक्षित नहीं होंगे। इसलिए सरकार अगर सभी को मुफ्त में टीका नहीं लगवाएगी तो जिन्हें लगवाएगी उनकी संख्या भी कम नहीं है और उसपर जल्दी फ़ैसला होना ज़रूरी है। यह नहीं हो सकता है कि सरकार किसी को नहीं लगवाए। तब काफ़ी लोग बचे रह जाएँगे और जो लगवा लेंगे उन्हें पूरा लाभ नहीं मिलेगा।

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जहाँ तक टीके की क़ीमत की बात है, किसी भी उत्पाद की क़ीमत मांग और पूर्ति के सिद्धांत के अनुसार तय होती है और यह बात तब लागू होती है जब उत्पाद बाज़ार में हो और उसका आवश्यक प्रचार हो चुका हो। टीका बाज़ार में तैयार अवस्था में नहीं है, टीके के लिए दिया जाने वाला औपचारिक विज्ञापन लगभग नहीं हुआ है। ऐसे में लागत और मुनाफा ही उत्पाद की क़ीमत होनी चाहिए। अगर केंद्र सरकार को डेढ़ सौ रुपए में बेचा जा रहा है तो राज्यों और अस्पतालों के लिए अलग क़ीमत होने का कोई मतलब नहीं है। 

‘एक देश, एक चुनाव’ और ‘एक देश और एक टैक्स’ जैसे नारे देने वाली पार्टी राज्यों को केंद्र से और पैसे दे सकने वालों को ग़रीबों से अलग क्यों करेगी? 

वैसे भी, टीके की बिक्री बहुत ज़्यादा होनी है और करोड़ों खुराक की क़ीमत में एक पैसे का भी फर्क हो तो निर्माता कंपनी को मिलने वाली कुल राशि काफ़ी बढ़ जाएगी। अगर मान लिया जाए कि केंद्र सरकार के लिए तय क़ीमत न्यूनतम है तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वह घाटा उठाकर बेची गई होगी। 

वैक्सीन अगर घाटा उठाकर नहीं बेची गई है तो क़ीमत अलग होने या बढ़ाने का कोई कारण नहीं है। एमआरपी क़ानून का मजाक नहीं बने इसलिए भी यह ज़रूरी है।

आप जानते हैं कि उपभोक्ताओं को लालची निर्माताओं से बचाने के लिए एमआरपी का नियम है। अमूमन तो यह अधिकतम क़ीमत है और कोई भी तैयार, डिब्बाबंद उत्पाद इससे ज़्यादा क़ीमत पर नहीं बेचा जा सकता है। लेकिन जिन उत्पादों की बिक्री कम होती है और वे छोटे शहरों के साधारण बाज़ार की साधारण दुकान से लेकर दिल्ली-मुंबई शहरों महानगरों के महंगे मॉल की एयरकंडीशन दुकानों से भी बिकते हैं तो दुकानदारों के मुनाफे की ज़रूरत अलग होगी। कुछ ब्रांड ऐसा कर सकते हैं, कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि ज़्यादा क़ीमत वाले उत्पाद पटरी पर बिकने लगे तो क़ीमत का विवाद असली नकली का विवाद बन सकता है और ब्रांड की छवि ख़राब करेगा। पटरी पर बिकने वाले पटरी का और पाँच सितारा होटलों में बिकने वाले अपने पाँच सितारा ग्राहकों का ख्याल रखते हैं और यही व्यवस्था चल रही है।

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उदाहरण के लिए 1000 रुपए की कोई कमीज अगर छोटे शहर का कोई दुकानदार 100 रुपए के मुनाफे पर बेच सकता है तो मॉल का दुकानदार उसे दुकान में रखने में 100 रुपए से ज़्यादा ख़र्च करेगा। इसमें मॉल के एयर कंडीशन से लेकर सुरक्षा, शौचालय और सफाई, पार्किंग, बिजली सब ख़र्च शामिल है। यानी संभव है उसी कमीज को बेचने पर उसका डेढ़ सौ रुपए ख़र्च हो जाता हो यानी बेचने वाले को ढाई सौ रुपए मिलेंगे तो वह आम दुकानदार की तरह 100 रुपए बचाएगा जबकि उसका निवेश और इस कारण ब्याज ख़र्च ज़्यादा है। इसलिए संभव है कि कुछ ब्रांड मॉल के लिए ज़्यादा एमआरपी रखते हों। और यह एमआरपी से ज़्यादा पर नहीं बेचने के नियम के कारण करना पड़ेगा। फिर भी बिकेगा तभी जब मांग होगी।

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ऐरा-गैरा ब्रांड हुआ तो लोग पटरीवालों से खरीद लेंगे। टीके के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। उसके खरीदार या ज़रूरतमंद हर तरह के हैं। पर सबके लिए क़ीमत अलग नहीं हो सकती है क्योंकि दवा है, ज़रूरी उत्पाद है। टीका सबको लगे यह उसकी सफलता के लिए ज़रूरी है। टीका शीतल पेय नहीं है। महंगे रेस्त्रां में लोग ग्लास में उसके ज़्यादा पैसे देते हैं। और एमआरपी के नियम के कारण बोतलों में यह नहीं बिकती है। यही हाल पानी के ब्रांड का है। महंगे होटलों के ब्रांड अलग हैं। ऐसे में साफ है कि टीका एक तैयार डिब्बाबंद उत्पाद होते हुए भी सबके लिए ज़रूरी है और चूँकि ग़रीब उसका सेवन करें यह जनहित में ज़रूरी है इसलिए इसकी क़ीमत आम लोगों से ज़्यादा नहीं ली जानी चाहिए।

किसी कंपाउंडर से इंजेक्शन लगवा लेना और पांच सितारा अस्पताल में लगवाना निश्चित रूप से अलग है और चूँकि वे अलग अपने काम या सेवा के पैसे लेते हैं इसलिए उनसे टीका लगाने की सेवा के पैसे तय किए जा सकते हैं और यह सेवा प्रदाता के स्तर के अनुसार हो सकता है।

पर राज्यों या खरीदारों के लिए अलग क़ीमत एमआरपी के नियम के ख़िलाफ़ है और इसका कोई मतलब नहीं है। ऐसी स्थिति में इंजेक्शन की क़ीमत एक हो और लगाने का ख़र्च एक से लेकर कई स्लैब में अलग हो सकता है जो मौजूदा व्यवस्था में संभव है। दूसरी ओर, निर्माता के सभी ख़र्चे (पहुँचाने का ख़र्च अलग होगा पर अंतर बहुत मामूली होगा) वही रहेंगे। टीका लगाने वाले की दर अलग होगी।

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कमीज के मामले में क़ीमत ज़्यादा मुनाफा देने के लिए बढ़ाई गई क्योंकि खरीदार दुकानदार को अलग से मुनाफा नहीं देगा। लेकिन निर्माता अमूमन वही पैसे लेते हैं। पर टीका लगवाने वाला अस्पताल को टीका रखने और लगाने के पैसे अलग से दे सकता है। इसलिए टीके की स्थिति कमीज से अलग है। टीका अस्पताल में या दवा की दुकान पर एमआरपी पर मिल सकता है और अस्पताल या नर्सिंग होम या कंपाउंडर (सरकार जिसे तय करे) अपने पैसे लेकर वह इंजेक्शन लगा सकता है। सरकार दोनों के लिए दो एमआरपी तय कर सकती है। टीके की कीमत एक होगी और लगाने की कीमत लगाने वाले के यहां उपलब्ध सुविधाओं के आधार पर। पर सरकार नियम कानून तोड़कर इतना मुनाफा क्यों दिलाना चाहती है और इसमें जनहित क्यों नहीं है। 

अभी भी सरकार ने टीके की कीमत के साथ लगाने का अधिकतम मूल्य 250 रुपए तक कर रखा है। देश भर के लिए अगर एक कीमत सही न हो तो टीके की एमआरपी 150 और लगाने के 50 रुपए से 500 रुपए तक सरकार जो चाहती है तय कर दे। इससे टीका बनाना वाले को ब्रिक्री के अनुसार लाभ होगा। लगाने वालों को उसका पैसा मिलेगा। अगर नीयत ठीक होती तो यही किया जाना चाहिए था। अभी लगाने की क़ीमत एक ही है तब आगे के लिए अलग क्यों?

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संजय कुमार सिंह
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