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आर्थिक उदारीकरण की 30वीं सालगिरह पर पूर्व वित्त व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने कहा है कि आगे का रास्ता और मुश्किल भरा है तथा देश को अपनी प्राथमिकताएँ फिर से तय करनी होंगी ताकि हर किसी के लिए एक सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित हो सके। इसलिए यह समय खुश होने का नहीं है, बल्कि आत्मनिरीक्षण करने का है।
इस मौके पर एक बयान में मनमोहन सिंह ने कहा है कि 1991 में वित्त मंत्री के रूप में अपना बजट भाषण ख़त्म करते हुए उन्होंने विक्टर ह्यूगो का उल्लेख किया था और कहा था, "धरती पर कोई भी शक्ति उस आईडिया को नहीं रोक सकती है जिसका समय आ गया है।"
और 30 साल बाद उन्होंने कहा है, हमें रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता, "मुझे वादे पूरे करने हैं और सोने से पहले मीलों चलना है", को याद रखना चाहिए।
उन्होंने कहा है कि 1991 की आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया एक आर्थिक संकट से शुरू हुई थी जिसका सामना हमारा देश भी कर रहा था और उसका फ़ायदा हुआ।
वह संकट प्रबंध नहीं था। भारत के आर्थिक सुधार संपन्नता की चाहत पर तैयार किए गए थे और सरकार को यह भरोसा था कि वह अर्थव्यवस्था को बेहतर कर सकती है। उसका फ़ायदा हुआ और हम तीन ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हो गए।
बढ़ते हुए हम बिना कोशिश पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था भी हो जाते, लेकिन उसे पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का दावा करने वाला अब चुप है। इसे भूल गया है।
दूसरी ओर, कोविड-19 की महामारी के कारण लाखों नागरिकों की नौकरी गई, साथ ही देशवासी बेरोजगार हो गए। अब पीछे मुड़कर देखते हुए जो हुआ उस पर गर्व से खुशी होती है। पर मौजूदा सरकार में तथा कोविड-19 के कारण जो हालात बनें हैं, उससे हर कोई दुखी है।
ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है कि 1991 के नवउदारवादी सुधारों का वैसा असर नहीं हुआ जैसा दावा किया गया था। ऐसे लोग चीन का उदाहरण देते हैं और 1991 के उदारीकरण को श्रेय देने के लिए तैयार नहीं हैं।
ऐसे लोगों का मानना है कि उदारीकरण के लक्ष्यों में आर्थिक विकास की उच्च दर के साथ रोज़गार के मौके बढ़ने थे और उच्च मूल्यवर्धित गतिविधियों में वृद्धि होनी थी।
इनमें से आय में वृद्धि तो हुई, पर यह पर्यावरणीय नुक़सान की क़ीमत पर हुआ और आवश्यक ढाँचागत बदलाव नहीं हुए। औद्योगीकरण भी 1991 से पहले की स्थिति के मुक़ाबले बहुत बेहतर नहीं हुआ।
जो भी हो, आँकड़ों की बात अलग है, लेकिन आम आदमी सुधार महसूस कर रहा था और शायद उसी का असर था कि 2016 में नोटबंदी जैसी कार्रवाई की गई और हम उसे झेल भी गए। यही नहीं, उदारीकरण को बेसर करने वाली दूसरी बड़ी कार्रवाई जीएसटी को लागू करने के रूप में हुई।
इससे भी उद्योग धंधों को भारी नुक़सान हुआ और अर्थव्यवस्था अब लगभग रसातल में है। इसका कारण उदारीकरण के कथित लाभ न होने की बजाय कोविड-19 के दुष्प्रभावों को देना आसान है और वही हो रहा है।
इन तीस वर्षों में ही पाँच लाख का फ्लैट लोगों ने 15 लाख में बेचा और अब सवा करोड़ का फ्लैट एक करोड़ का भी नहीं रह गया।
मुझे नहीं लगता कि अर्थव्यवस्था की ख़राब हालत से निपटने के लिए जैसी बड़ी कार्रवाई आवश्यक है, उसकी कोई ज़रूरत भी सरकार के दिमाग में है। योजना बनाकर उसे लागू कर देना तो बहुत बड़ी बात है। उसका फ़ायदा होगा कि नहीं या उसका भी नुक़सान होगा यह समय बताएगा।
मोटे तौर पर इस सरकार ने आयकर में कमी (सर्वोच्च वर्ग के लिए) का एक बड़ा निर्णय लिया है। उससे आयकर मद में वसूली काफी घट गई है और मंदी के कारण आय में कमी होने से जो नुक़सान हुआ होगा, वह अपनी जगह है ही।ऐसे में सरकार को अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए पेट्रोल पर भारी टैक्स लेना पड़ रहा है, जो मँहगाई बढ़ाने का बड़ा कारण है और उसका असर भी हो रहा है।
महँगाई बेलगाम है, उत्पादन और रोज़गार है नहीं तथा स्थिति सुधारने के लिए कोई जादुई कार्रवाई हो नहीं सकती है। इसलिए जब कुछ किया जाएगा तो उसका असर सामने आने में समय लगेगा।
मोटे तौर पर इस समय हम भारत की अर्थव्यवस्था और लाल फ़ीताशाही को याद कर सकते हैं और इसमें कोई दो राय नहीं है कि उसे ख़त्म करने की ज़रूरत थी पर जो हुआ और हो रहा है, उससे हम वापस उन्हीं मुश्किलों में जा रहे हैं।
सरकारी बाबुओं की नालायकी और भ्रष्टाचार से दुष्प्रभावों से बचने के लिये उनके अधिकार कम करने की ज़रूरत है, लेकिन नए नियम ख़ासकर 2014 के बाद जो भी बने हैं, वे नागरिक की आज़ादी ख़त्म करते हैं और उन्हें क़ायदे क़नूनों की आड़ में फंसाकर रिटर्न फ़ाइल करने के लिए मजबूर करते हैं।
शून्य रिटर्न फ़ाइल करना और उसे संभालने के लिए संसाधन लगाने से क्या मिलने वाला है जबकि पूरी छूट देने से कमाई होगी, उससे टैक्स भी मिलेगा और चोरी होगी तो जुर्माना भी मिलेगा।अभी नियम ऐसे भयावह कर दिए गए हैं कि कोई भी इसमें फंसने की बजाय बेरोज़गार रहना पसंद करेगा।
भारतीय माहौल में उदारीकरण अगर आगे बढ़ने की कोशिश थी तो मौजूदा व्यवस्था में हम निश्चित रूप से लाल फीता में नहीं, लोहे की जंजीर में जकड़ दिए गए हैं।
बैंक खाता खोलने के लिए पैन कार्ड लगभग ज़रूरी है, जबकि प्रचार जनधन खातों का था। खातों के साथ बीमा का प्रचार था, पर लाखों लोगों के मरने के बाद बीमा के मुआवजे की चर्चा नहीं है।
इसी तरह नया कारोबार शुरू करने के लिये जीएसटी पंजीकरण ज़रूरी है और पंजीकरण इतना झंझट भरा और नया कारोबार शुरू करना इतना खर्चीला है कि पकौड़े बेचने जैसे छोटे-मोटे कारोबार शुरू करना असंभव है।
अब आप कर्ज लेकर स्टार्टअप शुरू तो कर सकते हैं पर कमाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। क़र्ज़ नहीं लौटा पाने की स्थिति में जो होगा वह इतना डरावना है कि पकौड़े बेचना भी अब आसान नहीं रह गया है।
इस स्थिति में अमीर अमीर हुआ है, उसे आयकर कम देना पड़ रहा है और एक आदमी के आयकर की बचत की भरपाई करने के लिए लाखों गरीब मजबूर बना दिए गए हैं।
उदारीकरण से पहले के दिन याद कीजिए, जब स्कूटर भी सरकारी कंपनी बनाती थी और निजी कंपनी का स्कूटर ब्लैक में बिकता था क्योंकि उत्पादन क्षमता बढ़ाने की अनुमति नहीं थी। माँग थी, पैसे थे, नीयत थी, सिर्फ सरकारी अनुमति नहीं थी।
एअर इंडिया को संरक्षण याद कीजिए, घाटे में भी चलाते रहने को समझिए, निजी विमान सेवा कंपनियों की आमद देखिए और इस आरोप को याद कीजिए कि ढाँचागत सुविधाएँ नहीं बढ़ीं।
एक-एक कर विमान सेवाएँ बैठती गईं, एयर इंडिया नहीं बिका और क्या करना है क्या नहीं, यही साफ नहीं है। रेल यात्रा हवाई यात्रा से महँगी होती जा रही है। ना रेलगाड़ी जनसेवा के लिए चल रही है और ना विमान सेवा आम आदमी के लिए सुविधाजनक बनाई जा रही है।
सरकारी नीति को समझना मुश्किल हुआ है। अजीबोगरीब फ़ैसले हुए, फ़ायदा नहीं हुआ, पर ग़लती नहीं मानेंगे। डीजल का दाम एक सोच के तहत कम रखा जाता था।
उसे पेट्रोल के बराबर करने से डीज़ल कारों की ज़्यादा कीमत रखने का कोई मतलब नहीं रह जाता है और खेती के काम आने वाले इंजन डीजल के ही हों, इसका कोई मायने नहीं है।
पर आज यही स्थिति है। बिना किसी स्पष्टीकरण के है। आप किसी से पूछ नहीं सकते कोई बता नहीं सकता। उदारीकरण के मुक़ाबले तो यह बहुत ही अलग समय है।
तीस साल पहले नहीं पता था हम यहाँ पहुँच जाएँगे। अब हम रवांडा की बराबरी में आ गए हैं और पता है कि ऐसे ही चलता रहा, नीचे जाती जीडीपी और नीचे जाती रह सकती है।
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