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20 मार्च, 1927। आज से क़रीब सौ साल पहले। वह दिन जब बाबा साहब अंबेडकर ने चवदार तालाब का पानी पीकर एक बड़ी प्रतीकात्मक लड़ाई में जीत हासिल की थी। इस लड़ाई का अगला क़दम वहां स्थित वीरेश्वर मन्दिर में दलितों का प्रवेश था या नहीं, यह इतिहास में साफ़ नहीं है लेकिन कोरेगांव में हुए जलसे, महाड नगरपरिषद के फ़ैसले के बाद चवदार तालाब से पानी पीने की घटना के बाद दलित नौजवानों में जैसा उत्साह था, उसमें यह लक्ष्य पाना मुश्किल भी नहीं था।
इतिहास में दर्ज है कि चवदार की इस ऐतिहासिक घटना के बाद सनातनी वृत्ति के स्पृश्यों (छूने योग्य मनुष्य) का दिमाग ज़रूर ख़राब हुआ था। उन्होंने तालाब के बाद मंदिर भी ‘हाथ से जाने’ की अफ़वाह के सहारे न सिर्फ आसपास के काफी स्पृश्यों को जुटा लिया था और फिर वहां मौजूद दलित स्त्री-पुरुषों पर, जो खा-पी और घूम फिर रहे थे, हमला किया, उनका सिर फोड़ दिया। दंगे जैसे हालात हो गए। उत्साह से भरे दलित नौजवान भी जवाब देने को तैयार थे। जब अधिकारी बाबा साहब के पास गए तो उन्होंने कहा कि आप दूसरों को संभालो, हम अपने लोगों को संभाल लेंगे। बाबा साहब ने गुस्से से उबल रहे अपने लोगों को सचमुच संभाला और उस दिन कोई बड़ा कांड होते-होते बचा।
ऐसी हिंसा कहां ले जाती, इसका अनुमान आज लगाना मुश्किल नहीं है लेकिन चवदार तालाब से पानी पीने के प्रतीकात्मक विरोध ने (उल्लेखनीय है कि इससे पहले हुई बैठक में दलितों को ख़रीदकर बीस रुपये का पानी पीना पड़ा था) दलितों के जीवन और उनके आगे बढ़ने के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई और अगले दस साल में देश के अधिकांश मंदिरों के दरवाजे दलितों के लिए खुल गए। ऐसा गांधी जी की वजह से संभव हुआ था जिन्होंने 1933 और 1934 में लगभग बीस हजार किलोमीटर की यात्रा करके दलितों के मंदिरों में प्रवेश का आंदोलन चलाया था और इसी स्पृश्य हिन्दू समाज ने ऐसा आचरण किया जैसे गांधी उसके सीने पर सदियों से पड़े किसी बोझ को उतार रहे हों।
तब गांधी जी का भी विरोध हुआ था। बनारस और देवघर में उनके ऊपर पथराव हुआ, पुणे में गोली चली और ओडिशा में पंडों ने उत्पात किया। अहिंसा गांधी का उसूल था। उन्होंने पंडितों/सनातनियों को शास्त्रार्थ में भी पराजित किया। गांधी की मुहिम तब के मध्य प्रांत में खूब सफल रही थी। पर सभी मंदिरों के दरवाजे सभी के लिए खुलें, यह दिन गांधी जी भी अपने जीवन में पूरी तरह से नहीं देख पाये। काशी विश्वनाथ मंदिर के द्वार राजनारायण जैसे लोगों ने खुलवाए तो सबरीमला का मामला अब तक खिंच रहा है।
लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आंदोलनों और सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आ जाने के बावजूद सबरीमला मंदिर में प्रजनन के उम्र वाली महिलाओं के भगवान के दर्शन करने का सवाल अटका ही हुआ है। जाहिर है कि यह अकेला मामला भी नहीं है। जिस तर्क पर इस मंदिर या कुछ समय पहले शनि शिंगणापुर में महिलाओं या अनेक जगह दलितों का प्रवेश रोका हुआ है, या था, वह काफी सारे मंदिरों पर लागू है।
अगर आप एक ईश्वर में आस्था रखते हैं तो खास जाति, लिंग, वस्त्र, उम्र वगैरह के आधार पर भेदभाव जारी रखना किसी भी तर्क से सही नहीं ठहराया जा सकता। ऐसे में बाबा साहब या गांधी जी के योगदान को तो नहीं ही भूलना होगा। सती या दहेज जैसी कुप्रथाओं को रोकने में अदालतों की भूमिका को भी नहीं भुलाया जा सकता।
अब अदालती लड़ाई में केंद्र के वकील सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता बिल्कुल नई दलील लेकर हाजिर हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट में सबरीमला मामले में वह तर्क देते हैं कि मंदिर में प्रवेश का किसी व्यक्ति का अधिकार (अनुच्छेद 26) एक़दम ‘निर्बाध’ (बिना बाधा वाला) नहीं है। उनका दूसरा तर्क है कि हिन्दू धर्म बहुलतावादी है। बहुत सारी परंपराओं को नौ जजों की यह बेंच दरकिनार करती हुई कोई आदेश पारित नहीं कर सकती। यह अच्छा तर्क है लेकिन हिन्दू धर्म के इस स्वरूप को बीजेपी कब से मानने लगी है? राम मंदिर समेत हर मामले में तो वह इस्लाम या ईसाईयत की तरह एक़दम ‘रेजिमेंटेड’ व्यवस्था का तर्क देती रही है।
शास्त्र और लोक का अंतर तो हर चीज में है। हिन्दू नामक जिस धर्म को हम मानते हैं, वह तो शास्त्र आधारित ही है। लोक परंपराएं हर जगह की अलग-अलग हैं। हमने इसी के आधार पर सती, दहेज और देवदासी जैसी न जाने कितनी कुरीतियों को दूर किया है।
बात सिर्फ एक मंदिर या एक जगह की किसी कुप्रथा की नहीं है। बात सरकार और हमारी राजनैतिक बिरादरी के पक्ष बदल लेने की है। अनुच्छेद 26 की व्याख्या को बदलना या नया रूप देना तुषार मेहता भर की कलाकारी नहीं है। यह पूरी शासक बिरादरी का खेल है। यह वह शासक बिरादरी है जिसके लोग सबरीमला जाने की हिम्मत करने वाली महिलाओं पर हमला करके इसे पहले से जाहिर करते रहे हैं। इसके जरिए वे हिन्दुत्व की रक्षा कर रहे हैं या फिर केरल में अपनी राजनीति चमका रहे हैं। यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है। मुश्किल है कांग्रेस और सीपीएम जैसी पार्टियों का बैकफुट पर आना, बाबा साहब का नाम लेने वालों का इस सवाल पर चुप्पी साध लेना और सारा कुछ अदालत के कंधों पर डाल देना। और अगर सामाजिक-राजनैतिक समर्थन न हो तो अदालती आदेश का भी क्या हो जाता है, ऐसा हमने अनेक मसलों में देखा है।
और अगर सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन हो तो बाबा साहब और गांधी ने बिना अदालती सहायता के भी क्या कुछ हासिल किया, यह भी हमने देखा ही है। इसलिए किसी दल का व्यवहार प्रतिक्रियावादी हो सकता है, उस दल की सरकार के सॉलीसिटर जनरल कुतर्क दे सकते हैं लेकिन सारे सामाजिक आंदोलन तमाशबीन बन जाएं, यह ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है।
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