20 मार्च, 1927। आज से क़रीब सौ साल पहले। वह दिन जब बाबा साहब अंबेडकर ने चवदार तालाब का पानी पीकर एक बड़ी प्रतीकात्मक लड़ाई में जीत हासिल की थी। इस लड़ाई का अगला क़दम वहां स्थित वीरेश्वर मन्दिर में दलितों का प्रवेश था या नहीं, यह इतिहास में साफ़ नहीं है लेकिन कोरेगांव में हुए जलसे, महाड नगरपरिषद के फ़ैसले के बाद चवदार तालाब से पानी पीने की घटना के बाद दलित नौजवानों में जैसा उत्साह था, उसमें यह लक्ष्य पाना मुश्किल भी नहीं था।
सबरीमला: क्या महिलाओं पर लगे प्रतिबंधों को जारी रखना चाहती है मोदी सरकार?
- विचार
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- अरविंद मोहन
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- 18 Feb, 2020


अरविंद मोहन
सबरीमला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने वाली मोदी सरकार की ओर से अदालत में यह तर्क रखा गया है कि हिन्दू धर्म बहुलतावादी है और बहुत सारी परंपराओं को दरकिनार करते हुए नौ जजों की बेंच कोई आदेश पारित नहीं कर सकती। ऐसे में सवाल यह है कि अगर सब कुछ परंपराओं के हिसाब से ही तय होना है तो फिर तो स्थितियां वही रहेंगी और मंदिरों में महिलाओं और दलितों के प्रवेश को लेकर जो बाधाएं वर्षों से चली आ रही हैं, वे ऐसी ही बनी रहेंगी। आख़िर क्यों सरकार इन प्रतिबंधों या बाधाओं को बनाये रखने के पक्ष में दिखती है।
इतिहास में दर्ज है कि चवदार की इस ऐतिहासिक घटना के बाद सनातनी वृत्ति के स्पृश्यों (छूने योग्य मनुष्य) का दिमाग ज़रूर ख़राब हुआ था। उन्होंने तालाब के बाद मंदिर भी ‘हाथ से जाने’ की अफ़वाह के सहारे न सिर्फ आसपास के काफी स्पृश्यों को जुटा लिया था और फिर वहां मौजूद दलित स्त्री-पुरुषों पर, जो खा-पी और घूम फिर रहे थे, हमला किया, उनका सिर फोड़ दिया। दंगे जैसे हालात हो गए। उत्साह से भरे दलित नौजवान भी जवाब देने को तैयार थे। जब अधिकारी बाबा साहब के पास गए तो उन्होंने कहा कि आप दूसरों को संभालो, हम अपने लोगों को संभाल लेंगे। बाबा साहब ने गुस्से से उबल रहे अपने लोगों को सचमुच संभाला और उस दिन कोई बड़ा कांड होते-होते बचा।
अरविंद मोहन
अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार हैं और समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं।