पिछले सप्ताह केंद्र में एनडीए सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा हुआ था। इस अवसर पर अनेक सार्वजनिक मंचों से इस अवधि के दौरान हासिल उपलब्धियों और साहसिक निर्णयों के लिए अपनी पीठ थपथपाई गई। कहा गया कि इतिहास की ग़लतियों को ठीक करने का काम बीते एक साल में किया गया।
शानदार बहुमत प्राप्त करके सत्ता में आए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मुल्क की अवाम से चुनाव प्रचार अभियान में ये वादे किए थे। गठबंधन को कामयाबी मिलने पर इन वादों को पूरा करना सियासी साख बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक था। कश्मीर के संबंध में अनुच्छेद 370 की विदाई भी इसी श्रेणी का ऐतिहासिक फ़ैसला था। इससे तो शायद ही कोई असहमत होगा। लेकिन सत्ता के गलियारों का यह तर्क भी वाज़िब है कि कोरोना संकट काल में ख़ुद को शाबाशी देने का रवैया कितना उचित है। चुनावी वादा था। जीतने के बाद पूरा किया गया। अगर यह राष्ट्र सेवा की जा रही है तो इसके गीत गाने की ज़रूरत क्या थी? मान लीजिए लोगों तक इस उपलब्धि गीत को पहुँचाना ही है तो यह समय क्या उचित है? जब एक महामारी से लोगों की मौत का आँकड़ा दिनों दिन विकराल हो रहा हो, करोड़ों श्रमिकों की जान पर बनी हो, काम-धंधे ठप्प हों और भारत की देह एक राष्ट्रीय शोक गीत से झनझना रही हो तो ऐसे में पीड़ित मानवता से ताली बजाने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
मुख्य सवाल तो यह है कि किसी भी ज़िम्मेदार लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार का कार्यकाल उसके महीने और साल गिन-गिन कर क्यों बताया जाना चाहिए। क्या हुक़ूमत कर रहे राजनीतिक दलों अथवा गठबंधनों को कोई अंदेशा होता है कि वह अपना समय पूरा नहीं कर पाएँगे। वैसे तो 2019 जैसी चक्रवर्ती चुनावी जीत के बाद किसी आशंका के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। कम से कम भारत जैसे देश में तो बिलकुल ही नहीं। लेकिन हम देखते हैं कि कुछ दशकों से प्रदेशों और केंद्र में काम कर रही सरकारों ने अपनी तथाकथित कामयाबियों का ढिंढोरा पीटना शुरू कर दिया है। चाहे वे कांग्रेस की हों, बीजेपी की या फिर अन्य क्षेत्रीय दलों की। सभी इस सामयिक अलार्म को लगाए रहते हैं। जैसे ही तीन महीने, छह महीने या एक बरस पूरा होता है, नगाड़ा बजने लगता है। इतना ही नहीं, अब तो सौ दिन पूरे होने पर भी अपना रिपोर्ट कार्ड जनता की अदालत में रखने की होड़ सी रहने लगी है।
चुने हुए जन प्रतिनिधि भूल रहे हैं कि अब थोथे प्रचार के ज़रिए भारत के मतदाता को भरमाने के दिनों की विदाई हो रही है।अब देशवासी सिर्फ़ मैदान पर नज़र आने वाला काम और परिणाम चाहते हैं।
वैसे भी जब कोई पार्टी विराट बहुमत से शासन की बागडोर सँभालती है तो उसके पास पूरे पाँच साल होते हैं। भारतीय मतदाता इतना धैर्यवान है कि वह ख़ामोशी से इंतज़ार कर सकता है।
मतदाता को किसी सरकार से अपेक्षा नहीं रहती कि वह दिनों की गिनती करे और ग़रीब जनता के पैसे से हर साल - छह महीने में ढोल बजा कर उसे जबरन सुनाए जाएँ। फिर ऐसा क्यों होता है? सरकारों के इतने अधीर होने का कारण क्या है?
वास्तव में यह कुप्रथा बेवजह नहीं शुरू हुई थी। इसकी जड़ में एक और राजनीतिक ख़राबी थी जो इस देश में क़रीब चालीस बरस पहले प्रारंभ हुई थी। यह दल बदल और आए दिन आयाराम - गयाराम की बीमारी से शुरू हुई थी। छोटे प्रदेशों में यह मर्ज़ पनपा और धीरे-धीरे बड़े राज्यों में फैल गया। चार - छह विधायक पाला बदलते थे और सरकार गिर जाती थी। कुछ सांसद इधर -उधर होते थे और देश में सियासी भूकंप आ जाता था। जब सरकारों ने कार्यकाल पूरा करना बंद कर दिया और दलबदल का प्रेत हुक़ूमतों पर मँडराने लगा तो मध्यावधि चुनाव की आशंका भी गहराने लगी। अस्थिरता के माहौल में मुख्यमंत्रियों को डर सताने लगा कि अपना जौहर दिखाए बिना ही उन्हें जनता की अदालत का दोबारा सामना करना पड़ सकता है तो असुरक्षा बोध से निपटने के लिए इस ख़्याल ने जन्म लिया कि जितने दिन भी काम का अवसर मिले, उसको ही भुनाया जाए। इस तरह सौ दिन से लेकर तीन सौ पैंसठ दिन के मुहूर्त निकालकर अपने गाल बजाने की कुपरंपरा शुरू हो गई।
इसका सबसे बड़ा खामियाज़ा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। केंद्र और राज्य सरकारें पहले ही वित्तीय संकट का सामना कर रही हैं। उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के लिए अनेक माध्यम चुने जाते हैं। इनमें अनाप शनाप पैसा बहाया जाता है। इसके अलावा नौकरशाही को इस काम में लगा दिया जाता है। अफ़सर अपनी प्राथमिकताएँ और विकास के काम छोड़कर नेताओं की आरती उतारने का काम शुरू कर देते हैं। कोरोना की महामारी से जूझते हुए इस देश को प्रजातंत्र की देह में चुपचाप दाख़िल हो रही दीग़र बीमारियों से बचाने के प्रयास होने चाहिए।
अपनी राय बतायें