कोरोना काल का अधिकांश समय दिल्ली में बीता। चंद रोज़ पहले आवागमन कुछ आसान हुआ तो पत्रकार साथी और मित्र जे पी दीवान के साथ दिल्ली से सड़क मार्ग के ज़रिए भोपाल रवाना हो गया। ई पास ने रास्ते की अड़चनें आसान कर दी थीं। ग्वालियर आते आते हम लोग महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से आ-जा रहे श्रमिकों की दर्दनाक कथाएँ अपनी आँखों से देख चुके थे। मन उदास, बोझिल और अवसाद भरा था। बचपन में गाँव के मेलों में कई किलोमीटर पैदल चलते थे। उत्साह से भरे रहते थे। रास्ते में कहीं खाना खा लिया, कहीं पेड़ के नीचे सो लिए तो कहीं किसी चाय की गुमटी पर गरमागरम चुस्कियाँ लीं। जेब में एक दो रुपए भी होते तो अपने को राजा समझते थे। क्या विरोधाभास था कि एक तरफ़ बचपन की यादों की फ़िल्म चल रही थी तो दूसरी तरफ़ नंगे पाँव, भूखे-प्यासे सर पर गठरियाँ लादे, छोटे बच्चों को साथ लिए पलायन का भयावह मंज़र।