इन दिनों विनोद दुआ के ख़िलाफ़ भारतीय जनता पार्टी के एक प्रवक्ता की ओर से दर्ज़ कराई गई प्राथमिकी की चर्चा है। आरोप है कि अपनी तल्ख़ और बेबाक टिप्पणियों से उन्होंने इस पार्टी के नियंताओं को जानबूझ कर परेशान किया है। किसी भी सभ्य लोकतंत्र में असहमति के सुरों को दंडित करने की इस साज़िश की अनुमति क्यों दी जानी चाहिए। इस मामले के बाद उनके बारे में मनगढ़ंत कथाओं की बाढ़ सी आ गई है। इस कारण मुझे यह टिप्पणी लिखने पर मजबूर होना पड़ा है। मैं मामले का पोस्ट मार्टम नहीं करना चाहता। अलबत्ता यह कह सकता हूँ कि इस तरह के षड्यंत्र केवल परेशान करने के लिए ही रचे जाते हैं। उनका कोई सिर-पैर नहीं होता। समय के साथ वे कपूर की तरह उड़ जाते हैं।
विनोद दुआ पर एफ़आईआर: पहले इस महानायक को जान तो लीजिए
- विचार
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- 9 Jun, 2020

यह पीड़ादायक है कि अपने ही देश में पत्रकारिता के इस महानायक के साथ यह बरताव हो रहा है। विनोद दुआ यूरोप या पश्चिम के किसी देश में होते तो देवता की तरह पूजे जाते। जैसे कि कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण को संसार भर के कार्टूनिस्ट एक देवता जैसा मानते हैं और अपने देश में ही लक्ष्मण ग़ुमनामी में खोये रहे और इस संसार से विदा हो गए।
मानसिक उत्पीड़न का यह सिलसिला यक़ीनन परेशान करता है। छोटे परदे पर उपलब्धियों का कीर्तिमान रचने वाले विनोद दुआ को अपने ही मुल्क में सम्मान की जगह संत्रास दिया जा रहा है- इसके लिए आने वाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगी। वैसे भी हम भारतीय किसी बेजोड़ शख़्सियत के योगदान का उसके जीते जी मूल्यांकन नहीं करने के लिए कुख्यात हैं। जब वह नहीं रहता तब हमें उसके काम याद आते हैं।