इन दिनों विनोद दुआ के ख़िलाफ़ भारतीय जनता पार्टी के एक प्रवक्ता की ओर से दर्ज़ कराई गई प्राथमिकी की चर्चा है। आरोप है कि अपनी तल्ख़ और बेबाक टिप्पणियों से उन्होंने इस पार्टी के नियंताओं को जानबूझ कर परेशान किया है। किसी भी सभ्य लोकतंत्र में असहमति के सुरों को दंडित करने की इस साज़िश की अनुमति क्यों दी जानी चाहिए। इस मामले के बाद उनके बारे में मनगढ़ंत कथाओं की बाढ़ सी आ गई है। इस कारण मुझे यह टिप्पणी लिखने पर मजबूर होना पड़ा है। मैं मामले का पोस्ट मार्टम नहीं करना चाहता। अलबत्ता यह कह सकता हूँ कि इस तरह के षड्यंत्र केवल परेशान करने के लिए ही रचे जाते हैं। उनका कोई सिर-पैर नहीं होता। समय के साथ वे कपूर की तरह उड़ जाते हैं।