मैं उन दिनों कॉलेज में बीएससी का छात्र था। 25 जून 1975 को आपातकाल लगा। सेंसरशिप भी थोपी गई। अख़बार सब कुछ प्रकाशित करने के लिए अब आज़ाद नहीं थे। उससे पहले लोकनायक के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में भी कूदे थे। विचारों की फ़सल जवानी के उस दौर में पकने लगी। चंद रोज़ बाद पत्रकारिता में प्रवेश का अवसर मिला। क्या संयोग था कि उन दिनों के ज़िला कलेक्टर भी सेंसरशिप के ख़िलाफ़ थे। उनकी नौकरी बचाते हुए हम पत्रकारिता करते रहे। वह दिलचस्प दास्तान कभी अलग से लिखूँगा।
आपातकाल डरावना था लेकिन आज के दौर से लाख दर्जा बेहतर था!
- विचार
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- 29 Mar, 2025

अनुमान लगाने की ज़रूरत ही क्या है? इन दिनों आपातकाल नहीं लगा है। प्रेस सेंसरशिप भी नहीं है। हिंसा, आगज़नी, तोड़फोड़, हत्याएँ, चक्का जाम नहीं हैं। सैनिकों और पुलिस को बग़ावत के लिए नहीं उकसाया जा रहा है। सारे देश में बहुमत से चुनी हुई सरकार है जिसे अगले तीन साल तक कोई ख़तरा नहीं है। पर क्या हम आज़ाद हैं?
स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि जवान ख़ून क्रांति की बातों में बड़ा रस लेता था। इसलिए जेपी आंदोलन में हड़तालों और चक्का जाम का समर्थन लाज़िमी था। लेकिन पत्रकारिता ने विचारों में विवेक का इंजेक्शन भी लगाया था।