राजनीति अब सेवा नहीं रही। इसने पेशे का रूप ले लिया है। ऐसे में संसार की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं खोज पाना हैरत में डालता है। इन दिनों मौजूदा सियासत चेहरों पर चलती है। जिस दल के पास जितने अधिक और चमकदार चेहरे होंगे, वह अन्य दलों पर भारी पड़ जाएगा।
यह दृश्य अस्सी के दशक की भारतीय हिंदी फ़िल्मों का स्मरण कराता है। कहानी और गीत कमज़ोर होते, तो निर्माता-निर्देशक बहु सितारा फ़िल्म बनाते थे। यानी सारे बिकने वाले अभिनेता-अभिनेत्री फ़िल्म में नज़र आते थे। फ़िल्म अपना ख़र्चा निकाल लेती और कुछ मुनाफ़ा भी कमा लेती थी। इस तरह वैतरणी पार हो जाती थी। आज सियासत भी ऐसी ही है। चेहरों के भाव लगाइए और स्थिति मज़बूत बनाइए।
विडंबना है कि कांग्रेस चेहरे के अकाल का सामना कर रही है। एक चेहरा नहीं होने से सारे देश की ज़मीन भी चेहरों की फसल नहीं उगल पा रही है।
शिखर चेहरे का ही वर्चस्व?
लेकिन क्या अकेले इसी राष्ट्रीय दल की ऐसी दुर्दशा है? शायद नहीं। कमोबेश हर प्रादेशिक राजनीतिक दल में यही मंज़र है। उनमें भी एक ही चेहरा खूँटा गाड़े बैठा है। जिस दिन यह चेहरा विलुप्त हो जाएगा, उस दिन इन पार्टियों का महल भरभरा कर नहीं गिरेगा, इसकी क्या गारंटी है। तो क्या पार्टियों का शिखर चेहरा ही अपने दल में अन्य चेहरों को पनपने नहीं दे रहा है? इसका यह अर्थ क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए कि बाड़ अब खेत को ही खाने पर उतारू हो गई है। इसे आप उस पेड़ की तरह भी मान सकते हैं, जो अपनी छाँव तले अन्य पौधों को बढ़ने नहीं देता।
हक़ीक़त तो यही है कि भारतीय लोकतंत्र में एक बार प्रादेशिक और क्षेत्रीय सियासी पार्टियाँ तो अपने चेहरे के खो जाने का जोख़िम उठा सकती हैं, मगर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस जैसी पार्टी के चेहरा विहीन हो जाने का मतलब प्रतिपक्ष के पाँव उखड़ जाने जैसा है।
ऐसे में लोकतंत्र के क़िले पर तानाशाही के घुड़सवारों को चढ़ाई करने से आप कैसे रोक सकते हैं। ख़ासतौर पर उस हाल में, जबकि भारतीय जनता पार्टी के शिखर नेतृत्व ने कांग्रेस का अस्तित्व शून्य पर लाने के लिए आक्रामक अभियान छेड़ रखा हो।
अगर, अँग्रेज़ भारत पर लंबे समय तक राज कर सके तो यह उनकी क़ाबिलियत तो थी ही, पर भारत का अंदरूनी तंत्र भी लुंज-पुंज था। इसलिए कांग्रेस को अपना गढ़ गिराने के लिए बीजेपी पर दोषारोपण करते रहने से ही कुछ हासिल नहीं होगा। उसे अपनी सेहत भी सुधारनी होगी।
कई बार आई मुसीबत
वैसे, आज़ादी के बाद यह कोई पहली बार नहीं है, जब कांग्रेस इस तरह के दुर्दिनों का सामना कर रही है। नेहरू युग के बाद पाँच साल में पार्टी के दिग्गजों ने 1969 आते-आते इस दल का भुर्ता बना दिया था। इंदिरा गांधी ने कायाकल्प नहीं किया होता तो आज कांग्रेस को खोजने के लिए बड़ी मशक़्क़त करनी होती। इसके बाद 1979 में भी कांग्रेस के बचे-खुचे नेताओं ने फिर पार्टी की नैया डुबोई। विभाजन हुआ और इंदिरा की बदौलत एक बार फिर संगठन देश का राज सँभालने के लिए आगे आया।
इन उदाहरणों से आप यह सन्देश निकाल सकते हैं कि कांग्रेस जब-जब भी इतिहास के अपने सबसे निर्बल और महीन आकार में दिखाई दी है, उसके ठीक बाद वह वापसी करती है। पर इस आशावाद के भरोसे लोकतंत्र को आसरा नहीं मिल सकता।
गांधी-नेहरू परिवार का नेतृत्व
कांग्रेस को यह समझना होगा कि भारतीय जनता पार्टी गांधी-नेहरू परिवार पर जितना तीखा हमला बोलती है तो उसका मतलब परिवारवाद या वंशवाद पर हमला बोलना नहीं होता। यह बीमारी तो उसके अपने भीतर भी है। सच्चाई तो यह है कि बीजेपी जानती है कि कांग्रेस को मृत्युशैया से वापस देश की मुख्यधारा की दौड़ में शामिल कराने की क्षमता इसी परिवार ने दिखाई है।
स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के अनेक राष्ट्रीय अध्यक्ष इस परिवार से बाहर के रहे हैं लेकिन संगठन में प्राण फूँकने का उनका कोई करिश्मा नहीं दिखाई दिया। यदि परिवार की नौजवान पीढ़ी ने एक बार मज़बूती से कमान सँभाल ली तो बीजेपी की चुनौतियाँ बढ़ जाएँगी।
भारतीय जनता पार्टी का प्रोपेगेंडा प्रकोष्ठ राहुल गांधी को जब-तब पप्पू साबित करने की मुहिम छेड़ता है तो उसके पीछे यह भी एक कारण है।
आंतरिक द्वंद्व से उबरे पार्टी
कांग्रेस को जल्द से जल्द अपने आंतरिक द्वंद्व से उबरना होगा। यदि यह पार्टी स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका का श्रेय लेती रही है तो आत्मघाती क़दमों से अपने विलुप्त होने की पटकथा लिखकर भारतीय लोकतंत्र पर करारा प्रहार करने की वजह भी उसे देश को बतानी होगी।
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