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क्या अल्पसंख्यकों की सुरक्षा केवल बांग्लादेश में ज़रूरी है, भारत में नहीं?

मुसलमानों के हक़ और उनकी सुरक्षा की बात करना उन्हें ‘भारत की पहचान’ मिटाने की साज़िश लगती है। पर विडंबना यह है कि उसी सेक्युलरिज़्म का हवाला देकर आज पीएम मोदी बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा का सवाल उठा रहे हैं।
पंकज श्रीवास्तव

“हमारे अल्पसंख्यक भाइयों की सुरक्षा करना बहुसंख्यकों का परम कर्तव्य है। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं और इसके बजाय मस्जिद में नमाज पढ़ने में व्यस्त रहते हैं, तो उन्हें जवाब देना होगा कि वे सुरक्षा प्रदान करने में विफल क्यों रहे? यह हमारे धर्म का हिस्सा है कि हम अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा करें। मैं अपने अल्पसंख्यक भाइयों से माफी माँगता हूँ। हम अशांति के दौर से गुज़र रहे हैं। पुलिस खुद अच्छी स्थिति में नहीं है। इसलिए मैं समाज से आग्रह कर रहा हूँ कि उनकी रक्षा करें। वे हमारे ही भाई हैं और हम सभी एक साथ बड़े हुए हैं।” 

यह बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में गृह मामलों के सलाहकार ब्रिगेडियर जनरल (सेवानिवृत्त) एम. सखावत हुसैन का बयान है। फ़िलहाल उनकी हैसियत देश के गृहमंत्री की तरह है। इस बयान के ज़रिए बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने में विफल रहने के लिए पूरी अंतरिम सरकार ने एक तरह से हिंदू समुदाय से माफ़ी माँगी है। सरकार की प्रतिबद्धता का पता इस बात से भी चलता है कि फ़िलहाल प्रधानमंत्री जैसी हैसियत रखने वाले अंतरिम सरकार के मुखिया मो. यूनुस ने भी कहा है कि अगर अल्पसंख्यकों पर हमले बंद नहीं हुए तो वह इस्तीफ़ा दे देंगे।

बांग्लादेश की ‘मॉनसून क्रांति’ का यह सबसे शुभ संदेश है। बांग्लादेश की उथल-पुथल के बीच बनी अंतरिम सरकार ने माना है कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा समाज के ‘सभ्य’ होने की शर्त है और इस कसौटी पर फ़िलहाल बांग्लादेश नाकाम साबित हुआ है। इस ‘जन-क्रांति’ का फ़ायदा उठाकर हिंदुओं को जिस तरह निशाना बनाया गया है, वह बांग्लादेश में सांप्रदायिक ताक़तों की बड़ी पैमाने पर उपस्थिति की गवाही है। मंदिरों और हिंदुओं के घरों की रक्षा करते मदरसों के नौजवानों की तस्वीरों से मिले सुकून के बावजूद यह ज़ख़्म जल्द नहीं भरेगा। यह बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम से जुड़े मूल संकल्पों पर प्रहार है।

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हिंसक दमन के बावजूद जनाक्रोश को दबाने में नाकाम रहीं शेख़ हसीना अपना देश, अपनी पार्टी, अपने विश्वस्त सहयोगियों को छोड़कर भाग गयीं। शेख़ हसीना के समर्थकों को हिंसक आक्रोश का सामना करना पड़ा जिसमें पुलिस से लेकर अवामी लीग के नेता और कार्यकर्ता शामिल हैं। किसी को जान से हाथ धोना पड़ा तो किसी का घर या व्यापारिक प्रतिष्ठान फूँक दिया गया। इनमें हिंदू भी हैं लेकिन मुस्लिमों की तादाद उनसे कई गुना है। फिर भी हसीना विरोधी आंदोलन से उपजी सरकार दुनिया के सामने हाथ जोड़े खड़ी है कि वह अल्पसंख्यकों की सुरक्षा नहीं कर पायी। वह अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को ‘धर्म’ बताकर जनता से इसका पालन करने की अपील कर रही है।  

लेकिन बांग्लादेश में जो सिद्धांत ‘धर्म’ है, वह भारत की सरहद के अंदर ‘अधर्म’ कैसे हो सकता है? भारत में अल्पसंख्यकों से नफ़रत को ही ‘धर्म’ का पर्याय बना देना क्या है? क्या अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को ‘सभ्यता की कसौटी’ मानकर, केवल बांग्लादेश ही कसा जायेगा? इस कसौटी पर भारत भी लगातार नाकाम साबित हुआ है लेकिन बांग्लादेश की तरह यहाँ की सरकार ने न कभी माफ़ी माँगी और न जनता से अपील की कि वह अल्पसंख्यकों के दमन का प्रतिकार करे।

बीते एक दशक में तरह-तरह की अफ़वाह फैलाकर मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ हुई, उन्हें कोरोना फैलाने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया, आरपीएफ़ की वर्दी पहने हत्यारे ने रेल के डिब्बे में कपड़ों से पहचानकर मोदी-योगी के जयकारे के साथ मुसलमानों को गोलियों से भून दिया, कठुआ में अल्पसंख्यक बच्ची के साथ बलात्कार करने वालों के पक्ष में तिरंगा यात्रा निकाली गयी और गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने वालों को रिहा कर दिया गया। यह सब अल्पसंख्यकों पर हो रहे ज़ुल्म की झलकी भर है जबकि भारत में बांग्लादेश की तरह सरकार का लोप नहीं हुआ है। व्यवस्था बनी हुई है और संस्थाएँ काम कर रही हैं। पुलिस और फ़ौज सरकार के साथ खड़ी हैं। 

इसके बावजूद हमें भारत में अल्पसंख्यकों के प्रार्थनास्थलों से लेकर घरों की सुरक्षा करते बहुसंख्यक हिंदू नौजवानों की तस्वीर क्यों नहीं दिखती? इसके उलट मस्जिदों को निशाना बनाते कांवड़ियों से मनुहार करते पुलिसवालों की तस्वीर वायरल हैं। क्या प्रधानमंत्री मोदी या सत्तापक्ष के किसी नेता ने इस बर्बरता के लिए माफ़ी माँगी?

इसके उलट ढाका से बमुश्किल साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर गुवाहाटी में बैठे असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने ‘मियाँ लोगों’ के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने को ही अपनी राजनीतिक पूँजी बना लिया है। ‘मियाँ लोगों का वोट नहीं चाहिए’ जैसा सार्वजनिक ऐलान करने वाले हिमंत सरमा सब्ज़ियों के दाम बढ़ने के लिए भी ‘मियाँ’ लोगों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। उधर, ढाका से क़रीब बारह सौ किलोमीटर दूर लखनऊ में मुख्यमंत्री की कुर्सी में जमे योगी आदित्यनाथ का भी यही अंदाज़ है। उन्होंने मांसाहार तक में ‘हलाल या झटका’ को मुद्दा बना दिया। यूपी में बलात्कारियों से लेकर माफ़िया तक पर कार्रवाई की तीव्रता इस बात से तय होती है कि आरोपी मुसलमान है या नहीं! योगी का ‘बुलडोज़र राज’ मूलतः ‘अब्दुल को टाइट रखने’ का एक उपाय है जिसके ज़रिए हिंदू वोटों की व्यापक गोलबंदी के सपने देखे जाते हैं।

ये दोनों मुख्यमंत्री संविधान की शपथ लेकर कुर्सी पर बैठे हुए हैं जो भारत को ‘सेक्युलर’ गणतंत्र बताता है। पर इस शब्द को निरर्थक बना देने में योगी और हिमंत सरमा ही नहीं जुटे हैं, दिल्ली में तीसरी बार शपथ लेकर प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की राजनीतिक यात्रा भी इसी झंडे के साथ यहाँ तक पहुँची है। उन्होंने शुरुआत से ‘सेक्युलर’ शब्द का मज़ाक़ बनाया। चुनाव प्रचार के दौरान उनकी भाषा मुस्लिमों को ‘अन्य’ और ‘दुश्मन’ क़रार देने में सारी हदें पार कर जाती हैं। वे इसके लिए ‘कपड़ों’ से लेकर ‘भाषा’ तक को ज़रिया बनाते हैं। राहुल गाँधी को ‘शाहज़ादा’ वे यूँ ही नहीं कहते। राहुल गाँधी की 'मुहब्बत की दुकान’ का जवाब वे ‘मछली-मटन-मुग़ल’ से देते हैं। बीती 7 मई को मध्यप्रदेश के धार में आयोजित विजय संकल्प रैली में उन्होंने खुलकर कहा- ‘जब तक मोदी जिन्दा है, नकली सेक्युलरिज्म के नाम पर भारत की पहचान मिटाने की कोई भी कोशिश मोदी सफल नहीं होने देगा!’

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मोदी और बीजेपी की राजनीति ‘सेक्युलरिज़्म’ को निशाना बनाकर ही आगे बढ़ी है। ‘सेक्युलरिज़्म’ का मतलब उन्होंने ‘मुसलमानों का तुष्टीकरण’ बताया और उन्हें निशाना बनाने को ‘राष्ट्रवाद’ कहा। मुसलमानों के हक़ और उनकी सुरक्षा की बात करना उन्हें ‘भारत की पहचान’ मिटाने की साज़िश लगती है। पर विडंबना यह है कि उसी सेक्युलरिज़्म का हवाला देकर आज पीएम मोदी बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा का सवाल उठा रहे हैं।
हद तो ये है कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की निंदा करते हुए आरएसएस भी ‘सेक्युलरिज़्म’ का हवाला दे रहा है जिसने भारत को सेक्युलर की जगह ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की मुहिम छेड़ रखी है।

भारत के संविधान की प्रस्तावना में दर्ज ‘सेक्युलर’ शब्द को उसके तमाम आनुषंगिक संगठनों से जुड़े लोग इमरजेंसी के दौरान की गयी इंदिरा गाँधी की ‘बदमाशी’ बताते नहीं थकते। आरएसएस के चर्चित नेता राम माधव का हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख छपा। इसमें कहा गया है कि “बांग्लादेश के हिंदू, मुक्ति संग्राम के दौरान अपने मुस्लिम भाइयों के साथ खड़े रहे और उन्हें पाकिस्तानी सेना द्वारा सबसे ज्यादा अत्याचार सहना पड़ा। 1971 में देश के निर्माण के बाद भी वे देश के गौरवशाली बंगाली नागरिक बने रहे। फिर भी, मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना का साथ देने वाली ताक़तों ने पिछले पांच दशकों में हिंदू, बौद्ध और ईसाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार जारी रखे हैं।” इस लेख का अंत करते हुए उन्होंने लिखा है, “शासन परिवर्तन बांग्लादेश का आंतरिक मामला है। लेकिन जैसा कि यूनुस ने कुछ दिन पहले खुद कहा था, ‘अगर भाई के घर में आग लग जाए, तो मैं कैसे कह सकता हूं कि यह आंतरिक मामला है?’ बांग्लादेश का शांतिपूर्ण उत्थान इस क्षेत्र के सभी लोगों, खासकर भारत के लिए महत्वपूर्ण है।”

राम माधव का यह लेख वह सब कुछ कहता है जिसके ख़िलाफ़ आरएसएस और बीजेपी भारतीय समाज में सक्रियता बनाये हुए हैं। राम माधव के तर्क को उलटकर कहा जा सकता है कि बांग्लादेश के हिंदुओं की तरह ‘हिंदुस्तान के मुस्लिमों ने भी आज़ादी की लड़ाई में अविस्मरणीय क़ुर्बानियाँ दी हैं और वे पाकिस्तान का सपना दिखाये जाने के बावजूद भारत के गौरवशाली नागरिक बने रहे। फिर भी उनके ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों का साथ देने वाली राजनीतिक धारा अत्याचार जारी रखे हुए है।’

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बांग्लादेश की घटनाओं से सबक़ लेकर अगर आरएसएस और बीजेपी अल्पसंख्यक विरोधी विषवमन की अपनी राजनीति बंद कर दे तो न सिर्फ़ भारत का बल्कि पूरे उपमहाद्वीप का भला होगा। भारत में सांप्रदायिकता के शिखर पर जाने का सीधा असर पड़ोसी मुल्कों पर पड़ता है। जबकि भारत में सेक्युलरिज़्म और लोकतंत्र की मज़बूती उन्हें सकारात्मक संदेश देती है। अल्पसंख्यकों के जीवन और आस्था का सम्मान सिर्फ़ बांग्लादेश के लिए ज़रूरी नहीं है। यह भारत के उस भारत होने की कसौटी भी है जिसके लिए हमारे पुरखों ने न जाने कितनी क़ुर्बानी दी थी।

पुनश्च: भारतीय न्यूज़ चैनल बांग्लादेश के पूरे घटनाक्रम को सिर्फ़ हिंदुओं पर अत्याचार की खिड़की से दिखाकर न सिर्फ़ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि मोदी सरकार की बांग्लादेश में ज़बरदस्त कूटनीतिक विफलता पर पर्दा डाल रहे हैं। सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करने वाले भारत की मोदी सरकार ने शेख़ हसीना के तानाशाही रवैये की कभी आलोचना नहीं की और न ही उसे शेख़ हसीना की अलोकप्रियता और सुलगते जनाक्रोश की भनक लगने पायी। वह तब भी नहीं चेती जब मार्च 2021 में प्रधानमंत्री मोदी की ढाका यात्रा के दौरान बांग्लादेश के कई शहरों में प्रदर्शन हुए। बीबीसी की एक रिपोर्ट में प्रदर्शनकारियों के हवाले से कहा गया था, “शेख़ मुजीबुर्रहमान ने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए संघर्ष किया जबकि मोदी सांप्रदायिक हैं।”

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