नोबेल से सम्मानित अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर मोहम्मद यूनुस ने जब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार का नेतृत्व सँभालने के लिए पेरिस से ढाका के लिए उड़ान भरी तो उनके ज़ेहन में ‘मई 1968’ की गूँज ज़रूर रही होगी। 56 साल पहले पेरिस के छात्र आंदोलन ने न सिर्फ़ फ़्रांस बल्कि पूरी दुनिया हिला दी थी। चार्ल्स द गाल जैसे राष्ट्र-नायक को फ़्रांस छोड़कर भागना पड़ा था जैसे कि शेख़ हसीना को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा है। वैसे तो यह सब अंदाज़ा लगाने जैसा है लेकिन मो. यूनुस की प्रतिक्रिया देखते हुए इसे कल्पना से बाहर भी नहीं कहा जा सकता। मो. यूनुस ने 8 अगस्त को ढाका पहुँचकर कहा- 'हमारे छात्र हमें जो भी रास्ता दिखाएंगे, हम उसी के साथ आगे बढ़ेंगे!’
बांग्लादेश के छात्र आंदोलन में झाँक रहा है फ्रांस का मई अड़सठ!
- विचार
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- 9 Aug, 2024

जो देश एक से ज़्यादा बार सैनिक शासन का शिकार हो चला हो, वहाँ यह ऐसी शर्त रखना और सेना का उसे मंज़ूर कर लेना बताता है कि छात्रों का यह आंदोलन देश की भावना का प्रतीक बन गया है।
मो. यूनुस 84 साल के हैं। मई 1968 में वे 28 साल के जोशीले युवा थे जो तीन साल पहले फुलब्राइट छात्रवृत्ति पाकर अमेरिका अर्थशास्त्र में शोध के लिए गये थे। पेरिस के मज़दूरों के साथ खड़े हुए छात्र-छात्राओं ने जिस तरह विश्वविद्यालय को चार्ल्स द गाल की तानाशाही के ख़िलाफ़ मोर्चे में बदला था उसकी लहर ने पूरी दुनिया के छात्रों को भिगो दिया था। राजनीति में तानाशाही और समाज में पितृसत्ता से आज़ाद होने की छटपटाहट में डूबे युवक-युवतियों ने विद्रोह का नया व्याकरण रचा था। यह एक स्वतःस्फूर्त ज्वार था जो मध्ययुगीन स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त करने पर आमादा था। मो. यूनुस ने 1971 में जब मिडिल टेनिसी स्टेट यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफ़ेसर बतौर बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समर्थन में ‘नागरिक समिति’ बनायी होगी तो पेरिस से उठा यह ज्वार उन्हें निश्चित ही ताक़त दे रहा होगा। फ़्रांस में कहावत है कि ‘हर आदमी के दो देश होते हैं- उसका अपना और फ़्रांस!’