साबरमती के संत?
हम जानते हैं कि आज़ादी के बाद भी गांधी जी पर ऐसे गीत भी रचे गए, जिनमें उनके देवत्व को रेखांकित किया गया। मसलन, 'दे दी हमें आजादी, बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल'। गांधीजी निश्चित तौर पर असाधारण हैं, लेकिन उनमें देवत्व या अलौकिकता के अंश का दावा कतई नहीं किया जा सकता। यह तार्किक भी नहीं है।एक बड़ा सवाल यह है कि गांधी पर आरोपित देवत्व या अलौकिकता का उन्होंने कभी खंडन क्यों नहीं किया। इस वजह से गांधी के विरोधी उन्हें ढोंगी तक क़रार देते हैं। विरोधी यह भी कहते हैं कि गांधी में अहमन्यता बहुत थी। वह मसीहा बनना चाहते थे।
देवता की छवि
यह सवाल बहुत ज़रूरी है कि गांधी जी ने सामान्य लोगों के मन में बनी उनकी देवता की छवि के भ्रम को दूर क्यों नहीं किया। निश्चित तौर पर उन्होंने अपने भीतर किसी देवता के अंश का दावा कभी नहीं किया। लेकिन लोगों के मन में उपजे इस भाव को उन्होंने कभी खारिज भी नहीं किया। दरअसल, गांधीजी भारतवासियों के भावना को बखूबी समझते थे।राजनीति में धर्म गुरु
दूसरा कारण ज़्यादा महत्वपूर्ण है। स्वाधीनता आंदोलन की राजनीति में धर्म गुरुओं की भूमिका बढ़ रही थी। दरअसल, आज़ादी के आंदोलन के पहले से और बाद में समानांतर नवजागरण और सामाजिक-धार्मिक सुधार के विभिन्न आंदोलन चल रहे थे। धीरे-धीरे ये आंदोलन प्रतिक्रियावादी होते जा रहे थे। इन आंदोलनों ने जन-सामान्य को बहुत प्रभावित किया। इनके साथ जन-सामान्य के जुड़ने का मतलब था, लोगों का धार्मिक रूप से कट्टर होना। हिन्दू और मुसलिम दोनों ही संप्रदायों में इस तरह के आंदोलन चल रहे थे।यह ख़तरा बराबर बना हुआ था कि कोई धार्मिक नेता लोगों की आस्थाओं पर काबिज होकर स्वाधीनता आंदोलन को सांप्रदायिक बनाकर आज़ादी के स्वप्न को प्राचीन दकियानूसी खयालों और व्यवस्था की तरफ न धकेल दे।
जिन्ना-सावरकर
हालांकि यह काम बाद में आधुनिक व्यवस्था में पले-बढ़े मुहम्मद अली जिन्ना और सावरकर-हेडगेवार ने कर दिया। लेकिन साधुओं और बाबाओं की राजनीतिक आकांक्षा को संत स्वभाव वाले गांधी ने सफल नहीं होने दिया। तब ये साधु हिन्दू महासभा के बैनर पर राजनीति करने की जुगत में लगे हुए थे।मठाधीशों की महत्वाकांक्षा
आज़ादी के आंदोलन में हिन्दू मुसलिम विभाजन की राजनीति में तमाम मठाधीश भी सक्रिय थे। गांधीजी और कांग्रेस के बरक्स इन मठाधीशों की महत्वाकांक्षाओं को भुनाकर हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने तईं इनका इस्तेमाल किया। मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, बी. एस. मुंजे और वी. डी. सावरकर के साथ-साथ जगतगुरू शंकराचार्य भारती तीर्थपुरी, स्वामी श्रद्धानंद और जगतगुरू शंकराचार्य कुर्तकोटी आदि पीठाधीश और धर्माचार्य हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे।गोरखनाथ पीठ के महन्त दिग्विजयनाथ भी हिन्दू महासभा से ही जुड़े थे। गांधीजी की हत्या के आरोप में दिग्विजयनाथ नौ महीने जेल में रहे। दरअसल, गांधी जी की हत्या में कथित तौर पर दिग्विजयनाथ की पिस्तौल का इस्तेमाल हुआ था।
हिन्दुत्व की राजनीति खारिज
जिस साल गांधीजी हत्या हुई, उसी वर्ष 1948 में एक अन्य हिन्दूवादी राजनीतिक दल रामराज्य परिषद का गठन काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत स्वामी करपात्री ने किया। करपात्री ने खुले तौर पर संविधान निर्माण का विरोध किया और मनुस्मृति को लागू करने की माँग की थी। रामराज्य परिषद, हिन्दू महासभा और जनसंघ सहित तीनों हिन्दूवादी दलों को पहले लोकसभा चुनाव (1952) में कुल मिलाकर केवल दस सीटें मिलीं।हिन्दुत्व की राजनीति और महंतों की महत्वाकाक्षांओं को भारतीय जनमानस ने नकार दिया और सच्चे संत गांधी के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस में अपना भरोसा जताया।
सांप्रदायिक ताक़तें मुख्यधारा से दूर
इसीलिए समाजशास्त्री आशीष नंदी गांधीजी की हत्या को 'इच्छामृत्यु' कहते हैं। देश के विभाजन से उपजी नफ़रत के विष को गांधीजी पी गए। यही कारण है कि लंबे समय तक हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिक शक्तियाँ मुख्यधारा की राजनीति से बेदखल रहीं। गांधीजी जैसे संन्यासी के व्यक्तित्व के आवरण में तमाम मठाधीशों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं फलीभूत नहीं हो सकीं।लेकिन गुजरते समय के साथ स्वाधीनता आंदोलन के मूल्य विस्मृत होते गए। आध्यात्मिकता की जगह धर्म की जड़ता और कट्टरता मजबूत होती गई। कथित संन्यासी अपने मठों से निकलकर संसद और विधानसभाओं की चकाचौंध भरी राजनीतिक सत्ता में दाखिल होने के लिए मचल उठे।
अपनी राय बतायें