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क्या योगी आदित्यनाथ के ठाकुरवाद से बीजेपी को सतर्क रहने की ज़रूरत है?

आज की ‘पहचान’ पर आधारित राजनीति में प्रत्येक जाति-समुदाय अपने अतीत को रेखांकित करके वर्तमान राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों में अपनी भूमिका स्थापित कर रहा है। पहचान की राजनीति और विमर्श हालाँकि हाशिए के समुदायों द्वारा शुरू किए गए थे। अपने उत्पीड़न और शोषण के इतिहास का उल्लेख करते हुए हाशिए के समुदाय समता, स्वतंत्रता और न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 
रविकान्त

2022 के विधानसभा चुनाव के पहले यूपी की राजनीति में कुछ दिलचस्प घटनाक्रम हो तो आश्चर्य नहीं होगा। अपने व्यक्तित्व और इरादों में बहुत सख़्त दिखने वाले योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री रहते हुए भी अगर यूपी में अपराध थमने का नाम नहीं ले रहे तो इसके कुछ प्रशासनिक और अंदरूनी कारण भी हो सकते हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने ऐसी नीतियाँ बनाईं जिससे उनकी उग्र हिन्दुत्ववादी छवि बरकरार रहे। वह जिस मठ के महंत हैं उसकी भक्ति की धारा और इतिहास भले ही निचली जातियों के प्रति संवेदनाओं और सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए जाने जाते हों लेकिन आज़ादी के समय गोरखनाथ मठ की महंती हिन्दुत्ववादी ही नहीं बल्कि ठाकुरवादी भी हो गई थी।

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गोरखनाथ पीठ के महन्त दिग्विजयनाथ हिन्दू महासभा से जुड़े हुए थे। दिग्विजयनाथ कांग्रेस पार्टी और महात्मा गाँधी के अंध विरोधी थे। महात्मा गाँधी को हिन्दू विरोधी तथा मुसलिम और पाकिस्तानपरस्त घोषित करने वालों में उनका नाम भी आता है। गाँधीजी की हत्या में कथित तौर पर दिग्विजयनाथ की रिवॉल्वर का ही उपयोग हुआ था। इस आरोप में दिग्विजयनाथ नौ महीने जेल में भी रहे। एक तथ्य यह भी है कि बाबरी मसजिद के स्थान पर रामजन्मभूमि को राजनीतिक मुद्दा बनाने वाले पहले व्यक्ति दिग्विजयनाथ ही थे। अब हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने कारसेवकों द्वारा ध्वस्त की गई मसजिद के स्थान पर मंदिर बनाने के पक्ष में फ़ैसला सुना दिया है और 5 अगस्त को मंदिर का भूमि पूजन भी हो चुका है, लेकिन न्यायालय ने इस बात को भी रेखांकित किया है कि मसजिद के बाहर चबूतरे पर कुछ लोगों के द्वारा रात के अंधेरे में राम की मूर्ति रखी गई थी। इन लोगों में प्रमुख तौर पर दिग्विजयनाथ का नाम आता है। इसके बाद दिग्विजयनाथ की देख-रेख में वहाँ पर नौ दिन तक अखंड रामायण का पाठ किया गया था। आगे चलकर इसी एजेंडे के रथ पर सवार होकर बीजेपी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में सत्ता पर विराजमान हुई।

ठाकुर दिग्विजयनाथ ने ठाकुर अवैद्यनाथ को अपना चेला और मठ का उत्तराधिकारी बनाया। अवैद्यनाथ भी हिन्दू महासभा से गोरखपुर के सांसद रहे। उन्होंने उत्तराखंड के अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ को अपना शिष्य बनाया। अवैद्यनाथ की मृत्यु के बाद आदित्यनाथ गोरखनाथ मठ के मुख्य महंत बने। अपने गुरु से आदित्यनाथ ने मठ की महंतई ही नहीं, बल्कि राजनीतिक विरासत भी पाई। बीजेपी के उभार के बाद हिन्दू महासभा राजनीतिक रूप से मृतप्राय हो चुकी थी। योगी आदित्यनाथ ने हिन्दू युवा वाहिनी नाम का एक नया राजनीतिक संगठन बनाया। राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्वाकांक्षी योगी आदित्यनाथ को आज भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रतिस्पर्द्धी माना जाता हो लेकिन उन्होंने मोदी की आक्रामक और सांप्रदायिक-राजनीतिक शैली को ही अपनाया है। 

योगी जानते हैं कि अगर प्रधानमंत्री बनना है तो उन्हें ख़ुद को मोदी से बड़ा हिन्दुत्व का ब्रांड साबित करना होगा। यूपी के मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने लगातार अपनी उग्र हिन्दुत्व की छवि को बरकरार रखा है। उनके बयानों से लेकर कार्यों और नीतियों में इसकी स्पष्ट झलक मिलती है।

हिन्दू युवा वाहिनी का गठन होते ही इसका विस्तार बहुत तेज़ी से हुआ। यूपी के 72 ज़िलों में मज़बूत संगठन तैयार हुआ। यूपी के बाहर कुछ राज्यों में भी इसकी इकाइयाँ गठित की गईं। इसका नाम भले ही हिन्दू युवा वाहिनी था लेकिन हक़िक़त में, यह ठाकुर जाति के आक्रामक नौजवानों का संगठन था। गोरखपुर इसका केन्द्र बना और धीरे-धीरे पूरे पूर्वांचल में हिन्दू युवा वाहिनी की धाक और साख बनने लगी। हिन्दुत्व के नाम पर होने वाली पूर्वांचल की राजनीति में ठाकुर बनाम ब्राह्मण वर्चस्ववाद की लड़ाई जारी थी।

योगी मुख्यमंत्री कैसे बने?

2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के ब्रांड और बेहतरीन सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए भाजपा ने जीत का रिकॉर्ड बनाया। 403 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने 312 सीटें जीतीं। मुख्यमंत्री चेहरे के बिना चुनाव जीतने वाली भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया। माना जाता है कि आरएसएस के दबाव में नरेन्द्र मोदी ने आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार किया। बदले में योगी आदित्यनाथ संघ की दीक्षा लेकर स्वयं सेवक बने। योगी के मुख्यमंत्री बनते ही हिन्दू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं की कार्यशैली पर सवाल खड़े होने लगे। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि इसके बाद संघ के इशारे पर हिन्दू युवा वाहिनी को कमज़ोर किया गया। संघ योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को तो तवज्जो देता है लेकिन उनकी राजनीतिक शक्ति को कमज़ोर करके उन्हें अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। परिणामस्वरूप मार्च 2018 में हिंदू युवा वाहिनी की कई इकाइयों को भंग कर दिया गया। प्रतिक्रियास्वरूप इसके कुछ नेता और कार्यकर्ता समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए।

यह सर्वविदित है कि आरएसएस में ब्राह्मणों का वर्चस्व है जबकि योगी आदित्यनाथ की हिन्दू युवा वाहिनी में ठाकुरों का दबदबा है। हाल की घटनाओं से ऐसा लगता है जैसे संघ और योगी के दरम्यान शह और मात का खेल चल रहा है।

संघ अपने राजनीतिक दल भाजपा के समानांतर हिन्दू युवा वाहिनी की राजनीतिक ताक़त को पनपने नहीं दे सकता। भाजपा के ब्राह्मण नेताओं का आरोप है कि मुख्यमंत्री रहते हुए योगी आदित्यनाथ यूपी में ब्राह्मणों के प्रभाव और दबदबे को ख़त्म करना चाहते हैं। तब सवाल उठता है कि क्या योगी आदित्यनाथ ऐसा कर पाने में सक्षम हैं। राजनीतिक बिसात पर शह और मात के इस खेल में कौन विजेता होगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह ज़रूर है कि योगी अपने मोहरों को मज़बूत करते हुए बाज़ी को अपने हाथ में रखना चाहते हैं। इसके लिए वे भाजपा की बलि भी चढ़ा सकते हैं। ऐसा लगता है कि हिन्दू युवा वाहिनी को पुनर्जीवित करके वे भाजपा को चुनौती भी दे सकते हैं।

ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय वर्चस्ववाद

भारत के इतिहास में ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच प्रतिस्पर्द्धा और वर्चस्व की लड़ाई बराबर चलती रही है। हालाँकि ब्राह्मणों द्वारा सृजित वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन किया गया था। लेकिन वर्णानुक्रम में दूसरे स्थान पर स्थापित क्षत्रियों ने पहले पायदान पर पहुँचने की भी कोशिश की। स्वघोषित विद्वान और धर्माधिपति होने के नाते ब्राह्मण राज पुरोहित होता था। क्षत्रिय राजाओं का कर्तव्य था कि वे राजकार्य में ब्राह्मणों का मार्गदर्शन प्राप्त करें और उनका यथोचित सम्मान करें। राज्य का अधिपति होने के बावजूद ब्राह्मणों की आज्ञा के सम्मुख नतमस्तक होना क्षत्रिय का दायित्व था। इस व्यवस्था को बुद्ध और महावीर ने चुनौती दी। 

पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व के भारतीय इतिहास में बुद्ध और महावीर जैसे क्षत्रिय धर्मगुरुओं के कारण वर्णानुक्रम में ब्राह्मण फिसलकर दूसरे पायदान पर पहुँच गया। इसके बाद ब्राह्मण राज्य और सेना की ताक़त हासिल करने की जुगत में लग गया। बुद्ध के क़रीब तीन सौ साल बाद एक ब्राह्मण सेनानायक पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या (182 ईसा पूर्व) करके मगध की गद्दी प्राप्त की। ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने राजसत्ता हासिल करके पुनः ब्राह्मणों के वर्चस्व को स्थापित किया। 

बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के बीच चलने वाला संघर्ष प्रकारान्तर से क्षत्रियों और ब्राह्मणों के वर्चस्व का संघर्ष था। बुद्ध और महावीर जैसे क्षत्रिय धर्माचार्यों ने दलितों को अपने साथ जोड़ा। ब्राह्मण धर्म की विषमता और अन्याय की चक्की में पिस रहे दलितों ने विशेषकर बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तनकारी स्वभाव ने बौद्ध धर्म को क्रांतिकारी बनाया। लेकिन आगे चलकर स्वयं ब्राह्मण बौद्ध धर्म के साथ जुड़ गए। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे- धीरे बौद्ध धर्म भी कर्मकांडी हो गया और इसकी क्रांतिकारिता ग़ायब हो गई। ब्राह्मणों द्वारा बुद्ध को विष्णु का नौवाँ अवतार घोषित कर दिया गया। एक बार फिर ब्राह्मण अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हो गए। 

ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान

नौवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के केरल से निकलकर काशी पहुँचे शंकराचार्य द्वारा ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के उद्देश्य से भारत के कोनों में चार मठों की स्थापना की गई। आगे चलकर यही मठ ब्राह्मणों की सत्ता के सांस्थानिक रूप बन गए। दरअसल, हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद एक-दूसरे के पूरक हैं। जब-जब हिन्दू धर्म की रक्षा की बात हो, उसका मतलब होता है ब्राह्मणों की संस्थाओं और सत्ता की रक्षा। क्षत्रियों द्वारा इस व्यवस्था को निरंतर  चुनौती मिलती रही है। बारहवीं शताब्दी में भारत की राजसत्ता विदेशी मुसलमानों के हाथों में चली गई। इसलिए राजसत्ता से प्राप्त होने वाले सम्मान और राज्याश्रय से ब्राह्मण वंचित हो गए। 

जब सम्मान और राज्याश्रय से ब्राह्मण वंचित हो गए तब उन्होंने हिन्दू धर्म को और अधिक संकीर्ण बनाया। मंदिरों और मठों पर काबिज होकर ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता को बरकरार रखना चाहते थे।

क्षत्रिय और मुगल

इसके बरक्स क्षत्रियों ने मुसलिम सत्ता के साथ समझौता कर लिया। शासन और प्रशासन में उन्होंने अपनी भागीदारी सुनिश्चित की। क्षत्रियों के साथ मुसलिम शासन सत्ता की बढ़ती नज़दीकी का परिणाम मुग़ल काल में स्पष्ट तौर पर दिखने लगा। मुगल बादशाह अकबर और अन्य मुगलों ने राजपूत यानी क्षत्रिय राजाओं के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए। तमाम क्षत्रिय राजाओं ने बादशाह और शहजादों के साथ अपनी बेटियों की शादी करके घरेलू संबंध स्थापित किए। सच्चाई यह है कि अकबर के बाद की पीढ़ी के बादशाहों में कोई भी पक्का विदेशी नस्ल का मुसलमान नहीं था। जहाँगीर, शाहजहाँ आदि बादशाह क्षत्राणी माँ से पैदा हुए थे। यही कारण है कि मुगल प्रशासन में बड़े ओहदों पर क्षत्रिय विराजमान थे। धार्मिक रूप से कट्टर माने जाने वाले औरंगजेब के मनसबदारों में मुसलमानों से अधिक संख्या हिन्दुओं की थी। इन हिन्दुओं में अधिकांश क्षत्रिय थे।

क्षत्रिय कब हो गया ठाकुर?

आज की ‘पहचान’ पर आधारित राजनीति में प्रत्येक जाति-समुदाय अपने अतीत को रेखांकित करके वर्तमान राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों में अपनी भूमिका स्थापित कर रहा है। पहचान की राजनीति और विमर्श हालाँकि हाशिए के समुदायों द्वारा शुरू हुए थे। अपने उत्पीड़न और शोषण के इतिहास का उल्लेख करते हुए हाशिए के समुदाय समता, स्वतंत्रता और न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में हिन्दुत्व के उभार के फलस्वरूप इतिहास के वर्चस्वशाली समुदाय अतीत की उत्पीड़नकारी ताक़त पाने के लिए संविधान और लोकतंत्र की मर्यादाओं को तार-तार कर रहे हैं। अचानक ब्राह्मण को परशुराम के वंशज के रूप में स्थापित किया जाने लगा। लेकिन परशुराम को सिर्फ़ ब्राह्मण समुदाय के गौरव और रक्षक के तौर पर रेखांकित किया गया।

ग़ौरतलब है कि राम को सभी हिन्दुओं के आराध्य के रूप में स्थापित करके उनके नाम पर राजनीति की गई। सर्वविदित है कि एक क्षत्रिय दिग्विजयनाथ के द्वारा राजनीतिक राम को ब्राह्मण बहुल संघ ने अपना राजनीतिक हथियार बनाया। हाल ही में मथुरा स्थित दरगाह को कृष्ण का जन्म स्थान बताने वाली एक याचिका कोर्ट में दायर की गई है। हालाँकि मथुरा के न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया है। लेकिन राम और कृष्ण की राजनीति की सामाजिकता के कुछ मायने हैं। 

बहरहाल, सवाल यह है कि क्षत्रिय कहा जाने वाला समुदाय ठाकुर कब हो गया। क्या यह क्षत्रिय वर्ण का ठाकुर जाति में रूपांतरण है? अगर ऐसा है तो ब्राह्मण वर्ण जाति में क्यों तब्दील नहीं हुआ? विचारणीय मुद्दा यह है कि क्षत्रिय कब और कैसे ठाकुर बन गया? इसका जवाब तुलसीदास और उनकी 'रामचरित मानस' से मिल सकता है। मुगल बादशाह अकबर के समकालीन तुलसीदास ने रामकथा लिखकर एक नये राम को ही नहीं बल्कि पुरोहितवाद को भी जन्म दिया था। दरअसल, मुगल काल में ब्राह्मणों की हैसियत राजपूतों यानी क्षत्रियों से काफ़ी कमज़ोर हो गई थी। राजपूतों ने मुगलों से विवाह का संबंध बना करके निजी रिश्ता बना लिया था लेकिन ब्राह्मण समुदाय जातिगत श्रेष्ठता और पवित्रता के दंभ में शासन-सत्ता से दूर बना रहा। 

हालाँकि तुलसीदास की नज़दीकी अकबर से थी। 

तुलसीदास की रामकथा को व्यापक स्वीकृति और प्रसिद्धि मिली। इसके ज़रिए ब्राह्मणों ने क्षत्रिय राम को अपना ईश्वर और विष्णु का अवतार स्वीकार कर लिया। तब से राम ब्राह्मणों के लिए पूज्य ठाकुरजी हो गए।

जबकि इसके पहले ब्राह्मणों ने बुद्ध और महावीर के अलावा कभी क्षत्रियों की आधीनता स्वीकार नहीं की थी। लेकिन तुलसीकृत रामकथा के प्रभाव से ब्राह्मणों ने समस्त क्षत्रियों को प्रभुराम का वंशज मानकर अपना स्तुत्य बना लिया। हालाँकि यह केवल कथा में रहा। सामाजिक स्तर पर ब्राह्मण ठाकुरों के गुरु, पुरोहित और पूज्य बने रहे। लेकिन सच यह भी है कि दोनों वर्णों में वर्चस्व को लेकर टकराव लगातार होता रहा। आज़ादी के बाद लोकतांत्रिक राजनीति ने इस टकराव को एक नया रूप प्रदान किया है।

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कांग्रेस और ब्राह्मण

1915 में अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गाँधी कांग्रेस और आज़ादी के आंदोलन में शामिल हो गए। आगे चलकर गाँधीजी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला। कांग्रेस के आंदोलन पर गाँधीजी के विचार हावी होने लगे। हिन्दू महासभा और आरएसएस से जुड़े ब्राह्मणों ने दोहरी सदस्यता वाली कांग्रेस से दूरी बना ली। द्विराष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के मुद्दे पर कांग्रेस के समावेशी राष्ट्रवाद से उनकी पहले ही असहमति थी। लेकिन कांग्रेस से दूरी बनाने का एक अंदरूनी कारण भी हो सकता है जिस पर ग़ौर करना चाहिये। कहीं ऐसा तो नहीं राजनीतिक नेतृत्व का ब्राह्मणों से निकल 'एक वैश्य के पास आना स्वीकार्य नहीं हो पाया था?  इसलिए हेडगेवार और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने खुलकर कांग्रेस का विरोध किया। इस काम में हिन्दुत्ववादी ब्राह्मणों को क्षत्रिय राजाओं और सामंतों का साथ मिला। 

अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद से मुकाबिल कांग्रेस के आंदोलन के विरोधी इन राजाओं को अंग्रेज़ी हुकूमत में तमाम सुख सुविधाएँ हासिल थीं। संघ, हिन्दू महासभा और आज़ादी के बाद जनसंघ, रामराज्य परिषद तथा स्वतंत्र पार्टी ने राजाओं को राजनीतिक प्रश्रय दिया।

विशेषकर संघ ने अंग्रेज़ी हुकूमत में विशेषाधिकार संपन्न रहे राजाओं और सामंतों की कांग्रेस द्वारा पोषित संवैधानिक व्यवस्था के प्रति नाराज़गी का इस्तेमाल किया। संवैधानिक व्यवस्था को स्वीकार न करने की ज़िद और राजशाही- सामंती अहंकार ने ठाकुरों को कमज़ोर किया। इस अवसर का पूरा लाभ ब्राह्मणों को मिला। विश्वविद्यालयों में पढ़-लिखकर निकले ब्राह्मणों ने देश के तमाम संस्थानों और प्रशासन में ऊँचे-ऊँचे ओहदे प्राप्त किए। राजनीति में भी उनका वर्चस्व था। समाज में ब्राह्मणों की रक्षा करने वाला ठाकुर राजनीति और प्रशासन में उनसे पीछे हो गया। 

लेकिन आज योगी आदित्यनाथ हिन्दुत्व के एजेंडे के साथ ठाकुरवादी राजनीति को मज़बूत कर रहे हैं। वे यूपी के तमाम ठाकुर नेताओं को एकजुट कर रहे हैं। ब्यूरोक्रेसी से लेकर स्थानीय प्रशासन में भी ठाकुर जाति का बोलबाला है। ठाकुरवादी होने के आरोपों के बावजूद योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है। इसका मतलब है कि उनका एजेंडा और रास्ता बिल्कुल तय है। ऐसा लगता है कि भाजपा के भीतर अपने विरोध का मुक़ाबला करने के लिए योगी आदित्यनाथ तैयार हैं। यूपी में बढ़ते अपराध और अराजकता के कारण अगर योगी को हटाने की कोशिश की गई तो यह तय मानिए कि योगी आदित्यनाथ को भाजपा से बग़ावत करते देर नहीं लगेगी। वे ठाकुर जाति के मज़बूत आधार पर स्वतंत्र रूप से यूपी की राजनीति करने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहे हैं। आने वाले समय में अगर एक बग़ावत और एक नई पार्टी दिखाई दे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा।
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