पिछले छह-सात सालों में वैसे तो देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं की साख और विश्वसनीयता पर बट्टा लगा है, लेकिन चुनाव आयोग की साख तो पूरी तरह ही चौपट हो गई है। हैरानी की बात यह है कि अपने कामकाज और फ़ैसलों पर लगातार उठते सवालों के बावजूद चुनाव आयोग ऐसा कुछ करता नहीं दिखता, जिससे लगे कि वह अपनी मटियामेट हो चुकी साख को लेकर जरा भी चिंतित है। उसकी निष्पक्षता पलड़ा हमेशा सरकार और सत्तारूढ़ दल के पक्ष में झुका देख अब तो कई लोग उसे चुनाव मंत्रालय तक कहने लगे हैं।

चुनाव आयोग ने पिछले महीने के तीसरे सप्ताह में केरल की तीन राज्यसभा सीटों के चुनाव की तारीख़ का ऐलान किया तो क़ानून मंत्रालय ने उसे चुनाव टालने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग ने इसे टाल भी दिया। फिर इसे अपना फ़ैसला बदलना पड़ा।
यह सही है कि केंद्रीय चुनाव आयोग भारत सरकार के क़ानून एवं न्याय मंत्रालय के अधीन आता है, लेकिन देश के संविधान ने उसे एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था का दर्जा दिया है। चुनाव की तारीख़ तय करने से लेकर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का ज़िम्मा चुनाव आयोग का होता है और इस काम में सरकार या कोई भी मंत्रालय उसे सलाह या निर्देश नहीं दे सकता है। लेकिन मोदी सरकार में यह संवैधानिक व्यवस्था और परंपरा लगभग टूट चुकी है। केरल की राज्यसभा सीटों के मामले में ऐसा ही हुआ है, जिसमें हाई कोर्ट के हस्तक्षेप से चुनाव आयोग को और प्रकारांतर से केंद्रीय क़ानून एवं न्याय मंत्रालय को भी मुँह की खानी पड़ी है। हाल ही में चार राज्यों में संपन्न हो चुके और पश्चिम बंगाल में जारी विधानसभा चुनाव में भी चुनाव आयोग ने जिस तरह सरकार के इशारे पर काम किया है और अभी भी कर रहा है, वह तो एक अलग ही कहानी है।