केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने अपने प्रचार तंत्र तथा मीडिया के एक बड़े हिस्से के ज़रिए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को 'पप्पू’ के तौर पर प्रचारित कर रखा है। कहा जाता है कि इस प्रचार की निरंतरता बनाए रखने के लिए बीजेपी काफ़ी बड़ी धनराशि ख़र्च करती है। बीजेपी के तमाम नेता और केंद्रीय मंत्रियों का अक्सर कहना रहता है कि वे राहुल गांधी की किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन होता यह है कि राहुल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार के ख़िलाफ़ जब भी कुछ बोलते हैं, आरोप लगाते हैं या सरकार को कुछ सुझाव देते हैं तो सरकार के कई मंत्री और बीजेपी के तमाम प्रवक्ता उसका जवाब देने के लिए मोर्चा संभाल लेते हैं।

बीजेपी के तमाम नेता और केंद्रीय मंत्रियों का अक्सर कहते रहे हैं कि वे राहुल गांधी की किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन होता यह है कि राहुल के सुझाव को ही आख़िरकार सरकार मानती है।
यही नहीं, तमाम टीवी चैनलों पर उनके एंकर और एक खास क़िस्म के राजनीतिक विश्लेषक भी राहुल की खिल्ली उड़ाने में जुट जाते हैं। लेकिन कई मामलों को देखने में आता है कि राहुल गांधी जो कहते हैं, उसे देरी से ही सही मगर सरकार को मानना पड़ता है। चाहे दुनिया के दूसरे देशों में बनी तमाम कोरोना वैक्सीन को भारत में इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी देने का मामला हो या 45 साल से ज़्यादा उम्र के सभी नागरिकों को कोरोना की वैक्सीन लगाने का मामला हो या केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएससी) की परीक्षाएँ टालने की बात हो, सबकी मांग सबसे पहले राहुल गांधी ने ही की थी। शुरू में सरकार की ओर से इन मांगों को लेकर नाक-भौं सिकोड़ी गई, लेकिन थोड़े दिनों के बाद आख़िरकार सरकार को उनकी सभी मांगें मानना पड़ीं।