खलक ख़ुदा का, मुलुक बाश्शा का
जेपी की समग्र क्रांति व गाँधी के विचारों को अपनाने की ज़रूरत
- विचार
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- संजय राय
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- 11 Oct, 2019


संजय राय
70 के दशक में सत्ताई तानाशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष का बिगुल फूंकने सड़क पर उतरे जय प्रकाश नारायण की आज जयंती है। लेकिन ऐसा लगता है कि जेपी का आंदोलन सिर्फ़ सत्ता परिवर्तन का हथियार ही साबित होकर रह गया। जिस सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक क्रांति का जेपी ने आह्वान किया था वैसा आज भारत में कहीं नज़र नहीं आता।
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर ख़ासो-आम को आगाह किया जाता है
कि ख़बरदार रहें और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज़ में सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
शहर का हर बशर वाक़िफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय!
‘मुनादी’ शीर्षक से लिखी गयी धर्मवीर भारती की यह कविता आज की नहीं है। यह देश में घोषित आपातकाल के दौर में लिखी गयी थी। और आज की परिस्थितियों के हिसाब देखा जाय तो बहुत कुछ वैसा ही है। 70 के दशक में सत्ताई तानाशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष का बिगुल फूंकने सड़क पर उतरे जय प्रकाश नारायण और उनके समर्थकों पर हुए लाठी चार्ज से आहत होकर यह कविता निकली।
संजय राय
संजय राय पेशे से पत्रकार हैं और विभिन्न मुद्दों पर लिखते रहते हैं।