"मध्यरात्रि की इस बेला में जब पूरी दुनिया नींद के आगोश में सो रही है हिंदुस्तान एक नए और आजाद वातावरण में अपनी आंख खोल रहा है। यह एक ऐसा क्षण है जो इतिहास में बहुत ही कम प्रकट होता है। जब हम पुराने युग से नए युग में प्रवेश करते हैं। जब एक युद्ध खत्म होता है और जब एक देश की बहुत दिनों से दबाई गई आत्मा अचानक अपनी अभिव्यक्ति पा लेती है।"
14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि कॉउन्सिल हॉल में पंडित नेहरू के इस वक्तव्य के साथ ही वर्षों से औपनिवेशिक दासता झेल रहे भारत ने एक नए युग में प्रवेश कर लिया था। आधुनिक, तार्किक, वैज्ञानिक और समतापरक दृष्टिकोण वाले जवाहर लाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने थे।
आज़ादी की लड़ाई में जीवन के 9 साल ब्रिटिश जेलखाने के अंदर बिताने वाले नेहरू ने लगातार 17 साल प्रधानमंत्री रहते हुए देश में विज्ञान, शोध और तर्कवाद की ज़मीन सींची। भारत को स्थिर लोकतंत्र और तरक़्क़ी की दिशा दी। गुट निरपेक्षता की नीति और पंचशीलता के सिद्धांत के बूते शीतयुद्ध की महाशक्तियों के सामने भारत को तीसरे गुट का झंडाबरदार बनाकर खड़ा किया।
आज सत्ता समेटे लोग भले ही नेहरू का किरदार और योगदान धूमिल करने की साजिश रचें, मग़र जैसा कि नेहरू ने कहा था, "तथ्य तथ्य हैं और इन्हें आपकी पसंद-नापसंद के आधार पर बदला नहीं जा सकता।" यह कथन हर दौर में प्रासंगिक रहेगा।
भारत की विविधता को मजबूती बनाया
दुनियाभर के विश्लेषक, राजनीति विज्ञानी नवस्वाधीन भारत की विविधता को लोकतंत्र की स्थापना के लिए ख़तरा मान रहे थे। तत्कालीन पश्चिमी विचारकों के अनुसार सांस्कृतिक अनेकता और भयानक ग़रीबी के चलते भारत एक राष्ट्र के रूप में तब्दील नहीं हो पाएगा; कम से कम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र तो बिल्कुल नहीं।
मशहूर राजनीति विज्ञानी रॉबर्ट डल ने भी लिखा, “हिंदुस्तान की स्थिति को देखते हुए असंभव है कि ये देश लोकतांत्रिक संस्थाओं को आगे बढ़ा पाएगा। यह बहुत जल्द ही विखंडित हो जाएगा या अधिनायकवाद के चंगुल में फस जाएगा।"
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था, “अगर ब्रिटिश भारत से चले जाते हैं तो उनके द्वारा निर्मित न्यायपालिका, स्वास्थ्य सेवाएं, रेलवे और लोक निर्माण संस्थाओं का पूरा तंत्र ख़त्म हो जाएगा और हिंदुस्तान तेजी से शताब्दियों पहले की बर्बरता व मध्ययुगीन लूट-खसोट के दौर में चला जाएगा।"
इसी तरह भारत में ब्रिटिश गवर्नर जनरल की कॉउन्सिल के सदस्य रहे जॉन स्ट्रेची के अनुसार "हिंदुस्तान एक विशाल क्षेत्र का नाम है जिसमें कई सारे राष्ट्र साथ-साथ रह रहे थे। न अतीत में भारतीय राष्ट्र नाम की कोई चीज़ थी और न ही भविष्य में ऐसा होने की संभावना है।"
दुनियाभर की इन तमाम भविष्यवाणियों एवं अंदेशों को तब पंडित नेहरू ने अपने नेतृत्व से निराधार साबित किया और भारत की अनेकता को देश की मजबूती में तब्दील किया।
जब दुनिया बिखर रही थी, भारत को स्थिर नेतृत्व मिला:
भारत और पाकिस्तान का संप्रभु राष्ट्र के रूप में उद्भव एक ही समय पर हुआ। मग़र शुरुआती 11 वर्षों में ही पाकिस्तान में 7 प्रधानमंत्री बदल गए। वो मुल्क़ सैनिक शासन और तानाशाही के जाल में फस कर पस्त हो गया। उसी दौर में स्वतंत्र हुए एशिया, अफ़्रीका के अधिकतर देश जल्द ही लोकतंत्र खो बैठे। कहीं एकदलीय शासन व्यवस्था काबिज हो गई तो कहीं फौजी शासन का दमन चक्र फलने-फूलने लगा।
इन सबसे इतर भारत में लगातार 17 वर्षों तक जवाहर लाल नेहरू ने इस नवस्वाधीन राष्ट्र को स्थिर और मजबूत नेतृत्व दिया। साल दर साल निरंतर बढ़ती लोकप्रियता और विकल्पहीनता के उस एकछत्र दौर में नेहरू भी यदि चाहते तो तानाशाह बनकर भारत पर राज कर सकते थे।
मग़र ये नेहरू का लोकतंत्र के प्रति अटूट श्रद्धा और देश के लिए प्रेम था जिसपर उन्होंने कभी किसी अनचाहे स्वार्थ को हावी नहीं होने दिया। श्यामाप्रसाद मुखर्जी, षणमुगम शेट्टी, बाबा साहेब आंबेडकर समेत अपने विरोधियों को मंत्रिमंडल में जगह दी। अख़बारों को आलोचना की स्वतंत्रता दी, खबरों को दबाए जाने को ग़लत ठहराया।
विदेश नीति के सूत्रधार थे नेहरू
नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और फासीवाद के धुर विरोधी थे। नेहरू की जीवनी लिखने वाले माइकल ब्रेशर लिखते हैं, “नेहरू विश्व के सामने अपने देश की आवाज़ थे। वे शेष दुनिया के साथ अपने देश की नीति के दार्शनिक, निर्माता और यंत्री थे।"
गुटनिरपेक्षता और पंचशील के सिद्धांतों से नेहरू ने तीसरी दुनिया के सैकड़ों देशों को एकजुट किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि भारत किसी भी महाशक्ति के गुट में शामिल नहीं होगा और संसार के किसी भी भाग में उपनिवेशवाद व प्रजातीय विभेद का विरोध करेगा। यही कारण था कि एशिया और अफ्रीका में बहुत से लोग नेहरू और उनकी सरकार को शोषित मानवता का हितैषी मानते थे और अपनी राजनीतिक पराधीनता एवं उपनिवेशवाद के विरुद्ध जारी संघर्ष में भारत के नैतिक व भौतिक समर्थन की अपेक्षा करते थे।
भारत को महाशक्तियों के प्रभाव में न लाकर एक संप्रभु राष्ट्र बनाने की इच्छाशक्ति नेहरू ने अंतरिम सरकार के प्रधान रहते हुए ही व्यक्त कर दी थी।
सितंबर 1947 को अपने एक भाषण में उन्होंने कहा कि "अब भारत अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में निजी नीति के साथ हिस्सा लेगा, किसी अन्य देश के पिछलग्गू के तौर पर नहीं। भारत शक्ति संघर्ष में फसने की इच्छा नहीं रखता पर शक्ति संघर्ष के यथार्थ के प्रति अंधा भी नहीं है।"
साम्प्रदायिकता के धुर विरोधी रहे
पंडित नेहरू राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप के ज़रा भी समर्थक नहीं थे। उनका मानना था कि धर्म व्यक्ति की निजी मान्यता हो सकती है परंतु राजनैतिक या सार्वजनिक पद पर रहते हुए अपने आप को धर्मावलंबी दर्शाना कतई उचित नहीं। आज़ाद भारत में हिन्दू-मुसलमान के जाहिलाना संघर्षों को लेकर नेहरू व्यथित रहते थे।
एक स्वाधीनता सेनानी या प्रधानमंत्री के तौर पर वे जहां भी गए, मजबूती के साथ साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ मुखर रहे। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा, “अगर कोई भी आदमी किसी दूसरे आदमी पर धर्म की वजह से हाथ उठाता है तो मैं सरकार का मुखिया होने के नाते और सरकार से बाहर भी, आखिरी सांस तक उससे लड़ता रहूँगा।"
इसी तरह श्यामाप्रसाद मुखर्जी के गृहराज्य बंगाल में एक चुनावी जनसभा में नेहरू ने जनसंघ को आरएसएस और हिन्दू महासभा की नाजायज़ औलाद कह दिया था।
इसी तरह लुधियाना की एक जनसभा में 5 लाख लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ आर-पार की लड़ाई छेड़ने का आह्वान किया। नेहरू ने उन संगठनों की निंदा की जो हिन्दू-मुसलिम संस्कृति के नाम पर मुल्क़ में फिरकापरस्ती फैला रहे थे। उन्होंने कहा,"ये शैतानी साम्प्रदायिक तत्व अगर सत्ता में आ गए तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव ले आएंगे।"
शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह ने भी कहा था, “क्रांति का सही अर्थ समझने के लिए पंजाब के युवाओं को पंडित नेहरू के पास जाना चाहिए।"
नेहरू का देश की जनता से कहना था कि "मैं आपका प्रधानमंत्री हूँ इसका मतलब ये नहीं कि राजा हूँ, ना ही आपका शासक। वास्तव में मैं आपका नौकर हूँ और जब आप मुझे मेरे कर्तव्यों में नाकाम पाएं तो ये आपका दायित्व बनता है कि मेरे कान पकड़ें और कुर्सी से उतार दें।"
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