आहत भावनाओं का अखाड़ा बन चुके भारत में किसी भगवाधारी संत को मांसाहारी बताना किसी को भी परेशानी में डाल सकता है। सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग से लेकर एफआईआर तक इसके सामान्य परिणाम हो सकते हैं, लेकिन इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) से जुड़े साधु अमोघलीला दास के लिए धर्म की यह ‘नयी समझ’ उल्टी पड़ गयी। सोशल मीडिया पर ख़ासा सक्रिय अमोघलीला दास ने स्वामी विवेकानंद के मांस-मछली सेवन की आलोचना करते हुए कहा था कि ‘एक सदाचारी व्यक्ति किसी भी प्राणी को हानि नहीं पहुँचा सकता।‘ इस पर पश्चिम बंगाल में ख़ासतौर पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। नतीजा यह हुआ कि इस्कॉन ने उन्हें एक महीने के लिए अलग कर दिया। अमोघलीला दास ने माफ़ी माँग ली और गोवर्धन पर्वत पर प्रायश्चित के लिए चले गये हैं।
स्वामी विवेकानंद को आधुनिक युग में हिंदू धर्म को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने वाला महान संत माना जाता है। स्वामी विवेकानंद के चेहरे को ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ अभियान के शुभंकर बतौर लाखों घरों और दुकानों की किवाड़ों पर बीते कुछ दशकों में चिपकाया गया है। लेकिन इसी अनुपात में उनके विचारों पर कोई चर्चा नहीं हुई। नतीजा ये है कि शाकाहार को ‘धर्म’ मानने वाले इस बात पर विश्वास नहीं कर पाते हैं कि स्वामी विवेकानंद खुलकर मांसाहार और धूम्रपान करते थे। यही नहीं, उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस भी मांसाहारी थे। मांसाहार को लेकर एक सवाल के जवाब में स्वामी विवेकानंद ने कहा- “मुझसे बारबार यह प्रश्न किया जाता है कि मैं मांस खाना छोड़ दूँ! मेरे गुरुदेव ने कहा था- कोई चीज़ छोड़ने का प्रयास तुम क्यों करते हो? वही तुम्हें छोड़ देगी। प्रकृति का कोई पदार्थ त्याज्य नहीं हैं“। (विवेकानंद साहित्य, भाग-4, पेज-165)
यही नहीं, स्वामी विवेकानंद वैदिक युग का हवाला देते हुए कहते हैं,” इसी भारत में कभी ऐसा भी समय था जब कोई ब्राह्मण बिना गौमांस खाये ब्राह्मण नहीं रह पाता था। वेद पढ़कर देखे कि किस तरह जब कोई संन्यासी या राजा या बड़ा आदमी मकान में आता था तो सबसे पुष्ट बैल मारा जाता था”। (विवेकानंद साहित्य, भाग 5, पेज-70)
मांसाहारी होने पर सवाल उठाने वालों का जवाब देते हुए एक बार झिड़कने के अंदाज़ में उन्होंने कहा, “अगर भारत वासी मुझे नियमपूर्वक हिन्दू भोजन के सेवन पर बल देते हैं तो उनसे एक रसोइया एवं उसको रखने के लिए पर्याप्त रुपये का प्रबंध करने के लिए कह देना। एक पैसे की सहायता करने का तो सामर्थ्य नहीं किन्तु आगे बढ़कर उपदेश झाड़ते हैं”। (विवेकानंद साहित्य , भाग -4, पृष्ठ -344)
हिंदू धर्म को शाकाहार से जोड़ने की विराट मुहिम के बावजूद सच्चाई यही है कि भारत में 70 फ़ीसदी से अधिक आबादी मांसाहार करती है और 16 राज्य तो ऐसे हैं जहाँ यह आँकड़ा 90 फ़ीसदी तक है। हिंदुओं की बहुसंख्या का मांसाहारी हुए बिना यह आँकड़ा संभव नहीं है।
बीते कुछ सालों में सावन में काँवड़ यात्रा को ध्यान में रखते हुए कई शहरों में मांस-मछली की बिक्री रोकने की माँग बढ़ने लगी है। तीर्थ क्षेत्रों में तो यह अनिवार्य सा हो गया है। लेकिन यह भी सच है कि 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक, झारखंड के देवघर में बाबा वैद्यनाथ धाम के पंडे हर रोज़ बलि का प्रसाद पकाते हैं। यानी मांसाहार करते हैं। लाखों काँवड़िये गंगा जल लेकर दूर-दूर से देवघर पहुँचते हैं जहाँ मांसाहार करने के बाद गर्भगृह पहुँचे पंडे उनसे अनुष्ठान कराते हैं। कुछ साल पहले झारखंड धार्मिक बोर्ड के अध्यक्ष रहे पूर्व आईपीएस आचार्य किशोर कुणाल ने इसे मुद्दा बनाते हुए पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। शायद वे समझ नहीं पाये कि वहाँ के पंडे शाक्त परंपरा से जुड़े रहे हैं जिनके लिए देवी को बलि चढ़ाना एक सामान्य बात रही है। यह उनके लिए उतना ही सहज है जितना मिथला के ब्राह्मणों में पूजा में मछली का भोग लगाना।
दरअसल, हिंदुत्व की राजनीति के तहत ‘हिंदू धर्म’ की तमाम विविधिताओं को ढँक देने का प्रयास हो रहा है। वरना वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर, गाणपत्य संप्रदायों के रीत-रिवाज-आहार आदि में पर्याप्त भिन्नता है। हिंदू धर्म इस लिहाज़ से विशिष्ट है कि इसमें मान्यताओं और रिवाजों को लेकर कोई जड़ता नहीं रही। यहाँ तक कि ईश्वर को न मानने वाले विद्वान को भी ऋषिपद हासिल हो सकता था। वेदांत का हिस्सा माने जाने वाला ‘सांख्य दर्शन’ सृष्टि के कर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानता। लेकिन आज यही विविधता निशाने पर है।
भारत में मांसाहार, खासतौर पर बलिप्रथा पर रोक लगाने की माँग बौद्ध धर्म की अहिंसा के प्रभाव की वजह से बढ़ी थी। कृषि के विकासक्रम में गोवंश का महत्व बढ़ना स्वाभाविक ही था। लेकिन बौद्ध धर्म में भी मांसाहार की मनाही नहीं है। गौतम बुद्ध ने स्वयं ‘त्रिकोटि परिशुद्ध’ मांस खाने की अनुमति दी थी। यानी ऐसे पशु का मांस खाया जा सकता है ‘जिसको न देखा हो कि हमारे हमारे लिए मारा गया, न सुना हो कि हमारे लिए मारा गया और न इस संदर्भ में किसी तरह का संदेह हो कि हमारे लिए मारा गया।’ बाद में इसमें दो और प्रकार के मांस जोड़े गये- स्वाभाविक मृत्य और पक्षी-हत (आखेट)।
हिंदू धर्म से जुड़े तमाम ग्रंथों में मांसाहार का न सिर्फ़ उल्लेख है बल्कि कथानायक भी मांसाहार करते हुए दिखते हैं। शिकार का मक़सद ही ‘खाल और मांस’ प्राप्त करना था। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड में सीता के आग्रह पर स्वर्णमृग के पीछे जाने से पहले राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं- ‘लक्ष्मण, राजा लोग बड़े-बड़े वनों में मृगया खेलते समय मांस के लिए और शिकार खेलने का शौक पूरा करने के लिए भी धनुष हाथ में लेकर मृगों को मारते हैं।” (श्लोक 31)
यह अलग बात है कि गीताप्रेस से छपी रामायण ने मांस के आगे ब्रैकेट में ‘मृगचर्म’ लिख दिया ताकि लगे कि ‘भोजन’ की बात नहीं हो रही है।
गीताप्रेस ने राम की रसोई का वर्णन करने वाले उत्तरकांड के श्लोक 19 (मांसानि च सुमृष्टानि फलानि विविधानि च।। रामास्याभ्यवहारार्थं किंकरास्तूर्तमाहरन्।।) में भी यही किया। अनुवाद में मांस को ‘राजोचित भोजपदार्थ’ लिख दिया। हिंदी कवि बोधिसत्व ने कुछ समय पहले इस बात का रहस्योद्घाटन करते हुए अपने एक लेख में नई दिल्ली के संस्कृत साहित्य संस्थान द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि रामायण का डॉ. गंगा सहाय शर्मा द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत किया था जो इस प्रकार है- ‘सेवक राम के खाने के लिए अच्छी तरह पकाए गये मांस एवं भांतिभांति के फल शीघ्र लेकर आये।‘
मनुस्मृति कहती है- ‘खाने योग्य जानवरों का मांस खाना पाप नहीं है क्योंकि ब्रह्मा ने खाने वाले और खाने योग्य दोनों को बनाया है।’ मनुस्मृति मछली, हिरण, मृग, मुर्गी, बकरी, भेड़ और खरगोश के मांस को भोजन के रूप में मंजूरी देती है। इसमें धर्म के दस लक्षणों के रूप में धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करने को स्वीकार किया गया है (धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्॥) इसमें भी आहार को धर्म से नहीं जोड़ा गया है।
यहाँ मक़सद मांसाहार के पक्ष में तर्क जुटाना नहीं है। निवेदन बस इतना है कि भोजन का संबंध रुचि से है। आधुनिक युग और लोकतंत्र की कसौटियों के लिहाज से ‘रुचि के हिसाब से भोजन करने का अधिकार’ सामान्य बात होनी चाहिए। कोई महज़ शाकाहारी होने से पूजनीय या मांसाहारी होने से निंदनीय नहीं हो जाता। इसका आधार मनुष्य का कर्म होना चाहिए। इस संदर्भ में ‘मांसाहारी’ स्वामी विवेकानंद की इस बात को ध्यान में रखना चाहिए- ‘अच्छा खाना खायें, अच्छी नींद लें और सोच सही रखें। दुनिया के प्रति संवेदना रखें। कट्टर लोग केवल घृणा फैलाते हैं। आप इन कट्टर लोगों की संगत से बाहर आयें तो आप सीख सकते हैं कि असल में किस तरह प्रेम किया जाता है। आप जितना ज्यादा प्रेम करेंगे, आपके मन में जितनी अधिक संवेदना उभरेगी, आप दूसरों की निंदा भी उतनी ही कम करेंगे, बल्कि दूसरों की गलतियों पर आप उनसे सहानुभूति जताएंगे। आप उस व्यक्ति से भी सहानुभूति जता पाएंगे, जो शराब के नशे में हो। पता चलेगा कि वह भी आपकी तरह इंसान है। तब आप उन स्थितियों को समझने का प्रयास करेंगे, जिनमें वह व्यक्ति फंसा हुआ है।’
‘घृणा’ को धर्म की जगह स्थापित करने वाले इस युग के धार्मिकजन क्या स्वामी विवेकानंद की इस बात को समझेंगे?
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