हंगामे का रास्ता हमेशा ही सबसे आसान होता है, लेकिन उसे लेकर अगर कोई ठोस नीति बनानी हो तो हंगामे के पीछे की सारी भावना ठंडी पड़ जाती है। मध्य प्रदेश में गौ-रक्षा के नाम पर जो हो रहा है उसे देख कर यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में हुई गौ-कैबिनेट की चर्चा जितनी उसकी बैठक से पहले हुई, बैठक के बाद उतनी नहीं हुई क्योंकि उसमें ऐसा कुछ हुआ ही नहीं कि कोई बड़ी चर्चा हो सके। सिवाय इसके कि राज्य सरकार अपनी ढेर सारी गौशालाएँ चलाने के लिए लोगों पर टैक्स लगाएगी।
गौ-रक्षा के नाम पर जो सांप्रदायिक तनाव और हिंसा होती है उसे लेकर तो खैर सरकार को कुछ बोलना भी नहीं था इसलिए ऐसा कुछ कहा नहीं गया। बाक़ी इस बैठक के बाद ’पहली रोटी गाय को, आखिरी रोटी कुत्ते को’ और गौ-संवर्धन जैसी कुछ बातें कही गईं जो पिछले कुछ समय से ऐसे मौक़ों पर अक्सर कही जाती हैं।
दिक्कत यह है कि देश की ग्रामीण और कस्बाई अर्थव्यवस्था महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ ही कुपोषण के समाधान की संभावनाओं वाले डेयरी उद्योग के लिए ऐसे मौक़ों पर कभी कोई ठोस फ़ैसला नहीं हो पाता। गौ-रक्षा के नारे लगाने वाले यह कभी नहीं तय कर पाते कि गाय को सिर्फ़ पूजनीय ही बनाए रखना है या उनका उद्धार करना है?
हम गौ-उत्पाद के ज़रिये देश को कुपोषण को ख़त्म करने की बात तो कर लेते हैं लेकिन इसके साथ ही यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि दुनिया की सबसे कुपोषित गायें भारत में ही हैं।
गलियों-सड़कों पर घूमती और कूड़े के ढेर में अपने लिए भोजन तलाशती इन गायों के बारे में अभी तक बहुत कुछ लिखा गया है। जब हम गौ-संवर्धन की बात करते हैं तो यह अक्सर कहा जाता है कि भारत में गायें औसतन आठ से दस किलो दूध देती हैं जबकि दुनिया में इससे दस गुना तक दूध एक गाय से मिल जाता है। अगर हम इसे अपना लक्ष्य मान लें तो यह काम गाय के पोषण के मानक तैयार करके ही हो सकता है, ’पहली रोटी गाय को’ का नारा लगाने वाली सोच पर अगर पूरी तरह अमल भी कर लिया जाए तो भी शायद हम वहाँ नहीं पहुँच पाएँगे।
इस पर कोई बहुत विस्तार से अध्ययन नहीं हुआ लेकिन ज़्यादतर रिपोर्ट यही बताती हैं कि गायों की सबसे बुरी स्थिति उन सरकारी या अर्धसरकारी गौशालाओं में ही है जिन्हें इन दिनों बहुत सी समस्याओं का समाधान बताकर पेश किया जा रहा है।
दूसरा पक्ष दुग्ध उद्योग है जिसमें वे लोग भी शामिल हैं जिनका इन दिनों गाय के साथ ही काफ़ी महिमामंडन किया जाता है। गाय के बाद सबसे ज़्यादा अनदेखी शायद इन्हीं लोगों की ही होती है। यह ज़रूर है कि खेती के मुक़ाबले इस काम का मुनाफ़ा मामूली सा ज़्यादा है या यूँ कहें कि यह खेती की तरह घाटे का सौदा नहीं है, लेकिन इसके आगे गौ पालकों की स्थिति सुधारने के लिए कोई नीति बनाई गई हो ऐसा नहीं दिखता। यहाँ तक कि जब लाॅकडाउन के शुरुआती दिनों में इन लोगों की आमदनी एकाएक शून्य पर पहुँचने लगी थी तो किसी भी राज्य में उनके लिए कुछ नहीं किया गया। गौपालकों को अपने उत्पाद के लिए न तो कोई न्यूनमत समर्थन मूल्य मिलता है और न कोई बड़ी सब्सिडी या कैश ट्रांस्फर योजना इस वर्ग के लिए है। ज़्यादतर गौपालक अपने काम के लिए या तो ख़ुद के सप्लाई चेन जुगाड़ पर निर्भर हैं या फिर संगठित डेयरी उद्योग और कोऑपरेटिव डेयरियों के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर।
तीसरा पक्ष दुग्ध उपभोक्ता है जिससे यह उम्मीद की जाती है कि वह गाय की पूजा करेगा और अपनी पहली रोटी गाय के लिए दान करेगा। उसे किस गुणवत्ता का दूध या दुग्ध उत्पाद मिल रहे हैं इसके लिए कभी ध्यान नहीं दिया जाता।
दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए गाय को हारमोनल इंजेक्शन लगाने का तरीक़ा बंद हो, यह सुनिश्चित करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं समाने आता। संगठित डेयरी उद्योग मिल्क पाॅउडर से दूध बनाकर न बेच सकें इसके लिए भी सख़्त नीति की ज़रूरत है, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता। ऐसा क़ानून बनाकर गोपालकों का भी भला किया जा सकता है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश भले ही बन गया हो लेकिन दूध की प्रति व्यक्ति उपलब्धता के मामले में यह अभी भी काफ़ी पीछे है और इसके लिए नीति बनाना तो दूर इसका कहीं कोई संकल्प भी नहीं दिखाई देता है।
लेकिन गाय को लेकर ऐसी कोई नीति बनाने से आसान गाय को लेकर राजनीति करना है और कई सरकारें भी यही कर रही हैं।
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