ख़बर है कि केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की 'नई शिक्षा नीति' पर बनी कस्तूरीरंगन समिति ने देश भर में कक्षा आठ तक हिंदी भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाने की सिफ़ारिश की है। इस पहल को जानने के लिए इस विषय का लंबा इतिहास भी जानना ठीक होगा। भारत का प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन जब 1857 में घटित हुआ तब ब्रिटिश हुकूमत ने उस समय दक्कन के राजाओं से सेना मंगवाकर क्रांतिकारियों को हराया था। सोचने वाली बात है कि अपने ही देश के एक क्षेत्र के सिपाही ने देश के दूसरे क्षेत्र के सिपाहियों से युद्ध क्यों किया होगा?
क्या डंडे के ज़ोर से हिंदी की गौरवगाथा गाई जाएगी?
- विचार
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- 11 Jan, 2019

ख़बर है कि केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की 'नई शिक्षा नीति' ने देश भर में कक्षा आठ तक हिंदी भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाने की सिफ़ारिश की है। तो क्या हिंदी अब डंडे के बल पर चलेगी?
- स्वतंत्रता पूर्व अखंड भारत में हज़ार से अधिक बोलियाँ थीं। 1857 में यह स्वाभाविक ही था कि दक्षिण की 'भारतीय' सेना ने उत्तर की 'भारतीय' सेना को उस अपनत्व के नज़रिये से नहीं देखा और अंग्रेज़ों ने इसका लाभ उठा कर 90 साल से अधिक समय तक राज किया।
इस सांस्कृतिक विरोधाभास को सबसे पहले गाँधी ने आँका जब उन्होंने 1915 में अफ़्रीका से लौटकर भारत का सम्पूर्ण भ्रमण किया। उन्होंने पाया कि दक्षिण भारत में विदेशी हुकूमत से स्वतन्त्र होने की वह व्यापक सामाजिक आंदोलनात्मक उत्कंठा नहीं है, जितनी उत्तर भारत में है। हालाँकि अपने-अपने राज्य को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिए कई रजवाड़ों ने विदेशी हुकूमतों के ख़िलाफ़ विद्रोह भी किया, जैसे गोवा के दीपाजी राणे, कर्नाटक की कित्तूर चेन्नम्मा, मैसूर के टीपू सुलतान आदि। गाँधी ने इस विसंगति को दूर करने की दृष्टि से 1918 में ही न सिर्फ़ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना मद्रास शहर में की और अपने बेटे देवदास गाँधी को जीवनभर दक्षिण भारत में रहने का निर्देश भी दे दिया, बल्कि कांग्रेस तक की सदस्यता त्यागने वाले गाँधी अपनी अंतिम साँस तक इस संस्था के अध्यक्ष बने रहे।
- यह गाँधी की न सिर्फ़ भाषाई एकरसता का प्रयास था, बल्कि सांस्कृतिक एकात्मता भी लाने की दिशा में एक पहल थी। प्रचार सभा के कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए हज़ारों प्रचारक बनाये और यह नियम भी बनाया कि प्रचारक तमिल, कन्नड़, मलयालम तथा तेलुगु भाषा के माध्यम से ही हिंदी का प्रचार करेंगे।
साथ ही सभा की विभिन्न हिंदी परीक्षाओं में स्थानीय भाषा का पर्चा भी अनिवार्य किया। इन्हीं प्रचारकों की फ़ौज से आगे चलकर गाँधी को पट्टाभि सीतारामय्या जैसे हज़ारों स्वतंत्रता सैनिक भी मिले जिसके चलते 1942 भारत छोड़ो आंदोलन में दक्षिण भारत की भूमिका महत्वपूर्ण रही। गाँधी ने 24 साल के अंदर वह कारनामा कर दिखाया जिसकी कमी 1857 में महसूस हुई थी।