सांप्रदायिक संगठनों का यह चरित्र ही होता है कि वे एक ख़ास उपासना पद्धति अपनाने का आग्रह रखते हैं, तथा उस आग्रह को लागू करने के लिए, सत्ता प्राप्ति के लिए भी प्रयत्नशील रहते हैं। आरएसएस भी ऐसा ही एक सांप्रदायिक संगठन है जो पिछले 90 वर्षों से अपनी उपासना पद्धति को भारत भर में लागू करने के लिए अलग-अलग समय पर सत्ता प्राप्त करने के अलग-अलग हथकंडे अपनाता आ रहा है।
अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु संघ, जनसंघ से लेकर बीजेपी जैसे राजनीतिक दल भी खड़ा करता है, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक संस्थान भी चलाता है, 1977, 1999 की तरह दूसरे दलों के साथ गठबंधन भी करता है, वाजपेयी से लेकर योगी जैसे चेहरों को आगे भी करता है। उसकी हर कृति देश, काल, परिस्थिति के सापेक्ष ही होती है, नैतिकता निरपेक्ष भी।
कुछ ही हिस्सों में हुआ ध्रुवीकरण
संघ का कर्नाटक का इतिहास बताता है कि वह इस राज्य के केवल कुछ हिस्सों में ही सशक्त धार्मिक ध्रुवीकरण कर पाया है, हालाँकि संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने 1938 से ही उत्तर कर्नाटक के चिक्कोड़ी आदि स्थानों की विफल यात्राएँ की। संघ की ध्रुवीकरण की विचारधारा को सबसे उर्वरा भूमि मिली, कर्नाटक के दक्षिणी करावली अर्थात समुद्र तटीय क्षेत्र जो मंगलौर के आसपास पड़ते हैं।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि करावली क्षेत्र के लोग परम्परागत रूप से ही उद्यमी भी होते हैं तथा प्रवासी भी, तथा 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद मंगलौर क्षेत्र से बड़ी संख्या में खासकर अल्पसंख्यकों ने धनोपार्जन हेतु मध्य-पूर्व के देशों में प्रवास किया। स्वाभाविक ही था कि अगले कुछ वर्षों में अधिक मात्रा में विदेशी मुद्रा मंगलौर के अल्पसंख्यकों के पास आई, उनका जीवन स्तर बढ़ा जिससे समाज के बहुसंख्यकों के मन में हीनभावना जागृत हुई और इसका पुरजोर लाभ संघ ने बजरंग दल, श्रीराम सेना आदि के जरिये उठाया।
धार्मिक ध्रुवीकरण को बनाया हथियार
इसका ठोस चुनावी लाभ पहली बार दक्षिणपंथ को 1994 के विधानसभा चुनावों में हुआ जब उसे 16% वोट मिले तथा 40 विधायक निर्वाचित हुए। इसके बाद से लगातार कर्नाटक में, खासकर करावली क्षेत्र में बीजेपी धार्मिक ध्रुवीकरण का हथियार अपनाती आ रही है। 1997 से उसने अयोध्या जैसे ही एक लंबित कानूनी विवाद को चिकमगलूर के बाबा बुड़ानगिरी में भावनात्मक हवा दी जिससे कि धार्मिक ध्रुवीकरण लम्बे समय तक सियासी चूल्हे पर उबलता रहे। संघ की एक और ख़ास बात यह है कि उसके गंभीर कार्यकर्ताओं की जीवनशैली में सामान्य लोगों की सादगी एवं बातचीत में विनम्रता झलकती है। इसी वजह से संघ की विचारधारा गाँवों के मुकाबले शहरी अभिजात्य वर्गों में जल्दी लोकप्रिय होती आई है। तो, 1994 के बाद से कर्नाटक के शहरी क्षेत्रों में भी बीजेपी की पैठ धीरे-धीरे ही सही, बढ़ती ही रही।सांस्कृतिक विविधता बनी रोड़ा
मगर कर्नाटक बहुत बड़ा राज्य है, तथा सांस्कृतिक रूप से विविध भी। कर्नाटक में आज भी कम से कम 5 भिन्न संस्कृतियाँ प्रचलित हैं, जिनके खानपान, वेशभूषा, रीति-रिवाज, बोलियाँ, आदि एक-दूसरे से पूरी तरह अलग हैं। तो ऐसी विविधता में एकरूपता लाने की दक्षिणपंथ की जबरन कोशिश को उतनी उर्वरा भूमि सब जगह नहीं मिली जितनी करावली में विशेष परिस्थितियों के कारण मिली।चुनावी रूप से प्रासंगिक बने रहने के लिए कर्नाटक में बीजेपी की यह मजबूरी रही है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ-साथ उसे चुनाव जीतने के लिए परिवारवाद, भ्रष्टाचार आदि से भी समझौता करना पड़ा।
चुनावी राजनीति में बने रहने के लिए बीजेपी को अन्य स्थापित राजनैतिक नेताओं को अपने दल में शामिल करना पड़ा। 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के कई दिग्गजों के परिवार वालों को टिकट मिले तो कई भ्रष्ट नेताओं को भी।
इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस के 7 विधायकों को बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़वाया। साथ ही कांग्रेस के दिग्गज, भारत के पूर्व विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा तक को बीजेपी में शामिल किया। इन सब हथकंडों से बीजेपी को चुनावी लाभ भले मिला हो, पर यह कर्नाटक में उसकी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सीमाओं को भी स्पष्ट करता है।
2019 में सीटें घटने की आशंका
इसी परिप्रेक्ष्य में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा चलाए गए ‘ऑपरेशन लोटस’ को देखना होगा। बीजेपी नेतृत्व को यह पता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत में उसे 2014 में ही अधिकतम सीटें मिल चुकीं हैं और अब यह 2019 में बढ़ेंगी नहीं बल्कि घटेंगी। उत्तर-पूर्व में नए नागरिकता क़ानून के प्रति जनाक्रोश के चलते शायद अपेक्षाकृत सीटों की वृद्धि न हो पाए। इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना से अनबन तथा कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के चलते उसकी सीटें कम हो सकती हैं। तमिलनाडु, आँध्र, तेलंगाना, केरल आदि में उसका अभी ज़्यादा जनाधार नहीं है।
2014 में बीजेपी को कर्नाटक में 17 सीटें मिली थी, उतनी ही सीटें फिर से जीतने के लिए यह ज़रूरी है कि लोकसभा चुनाव तक राज्य का प्रशासन विरोधी दल के पास नहीं बल्कि बीजेपी के पास रहे, इस दृष्टि से ‘ऑपरेशन लोटस’ बीजेपी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था।
मुरझा चुका है ‘ऑपरेशन लोटस’
मगर पिछले कुछ घंटों के घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि बीजेपी का ‘ऑपरेशन लोटस’ अब मुरझा चुका है। बीजेपी को ऐसे 16 विधायक नहीं मिले जो कांग्रेस या जेडीएस से त्यागपत्र दे दें और विधानसभा में विधायकों की संख्या 224 से घटकर 208 के आसपास हो जाए। जिससे कि बीजेपी अपने 104 विधायकों के साथ सरकार बनाने के लिए बहुमत का दावा कर सके। उलटे, कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी की मानें तो 5 से अधिक बीजेपी विधायक अपनी पार्टी छोड़कर कांग्रेस-जेडीएस सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार हैं।
- कर्नाटक की जनता में बीजेपी की ध्रुवीकरण की नीति उतनी पैठ नहीं बना पाई है जितनी उत्तर प्रदेश में, क्योंकि दक्षिण भारत की द्रविड़ संस्कृति अपने आप में पूर्ण है, अतः उसे हिंदू खतरे में नहीं दिखता।
- परम्परागत रूप से ही, दक्षिण भारतीय राज्यों की सरकारें, चाहे वे किसी भी दल की हों, नागरिकों की सुरक्षा एवं न्याय पर अधिक जोर देती आईं हैं जिससे कि प्रशासन अपेक्षाकृत कुशल बना रहता है और अपराध कम होते हैं। अतः शिक्षा, रोजगार, महिला सुरक्षा, अर्थव्यवस्था आदि अधिक सुदृढ़ होने के चलते समाज में परेशानियों के मुक़ाबले अधिक खुशहाली रहती है। इस कारण सांप्रदायिकता जैसे भावनात्मक मुद्दों को हवा भी कम मिलती है।
- बीजेपी के इस ऑपरेशन की योजना, बागडोर तथा क्रियान्वयन कर्नाटक से दूर दिल्ली में बैठे मोदी-शाह द्वारा संचालित थी। बीजेपी के 100 से कम विधायक जब गुरुग्राम की ठंड में जम रहे थे, तो इस ऑपरेशन को विफल करने वाले डी. के. शिवकुमार, मुख्यमंत्री कुमारस्वामी आदि कर्नाटक में 118 से अधिक विधायकों को आराम से समेटे बैठे रहे, उन्हें स्थानीय होने का लाभ मिला।
- बीजेपी के दर्जनों विधायकों के जीवन में संघी विचारधारा का प्रभाव नगण्य है क्योंकि ये सभी ऐन चुनाव के वक़्त कांग्रेस आदि से आयातित थे, अत; उनकी परखनली कांग्रेस से अधिक जुड़ी रही बनिस्पत बीजेपी के। तो, उनपर स्थानीय समाज, वोटर के गुस्से का आकलन, परिवार की प्रतिष्ठा, आदि की चिंता अधिक होना स्वाभाविक है बनिस्पत इसके कि दिल्ली के बीजेपी आलाकमान की बात मानी जाए।
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