इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय लोकतंत्र और उसकी शक्ति का गुणगान करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते लेकिन उनके पहले कार्यकाल से लेकर अब तक भारत का लोकतंत्र सूचकांक रसातल में जा रहा है। इसका सबूत है ब्रिटिश संस्थान ‘द इकोनॉमिस्ट ग्रुप’ की इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट की ओर से जारी लोकतंत्र सूचकांक 2019 की वह वैश्विक सूची, जिसमें भारत पिछले वर्ष के मुक़ाबले 10 पायदान लुढ़क कर 51वें स्थान पर जा गिरा है। वर्ष 2016 में भारत को इस सूचकांक में 32वाँ, 2017 में 42वाँ और 2018 में 41वाँ स्थान मिला था। साफ़ है कि कुल मिलाकर मोदी जी के सत्ता पर काबिज होने के बाद से भारतीय लोकतंत्र के कमज़ोर होने का सिलसिला जारी है।लाल बहादुर शास्त्री और नरेंद्र मोदी जैसे सामान्य पृष्ठभूमि के भारतीय नागरिकों का प्रधानमंत्री पद तक की मंजिलें तय करना अपने आपमें भारतीय लोकतंत्र की महानता का प्रमाण है। सत्ता में आने पर मोदी जी संसद और संविधान के सामने घुटनों के बल बैठकर सम्मान ज़ाहिर करते रहे हैं। लेकिन उनके कार्यकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की कोशिशें तेज़ हुई हैं तथा धर्म, जाति, वर्ग और लैंगिक आधार पर सामाजिक तनाव भी बढ़ा है। इस दौरान धर्म और गोरक्षा की आड़ लेकर दलितों और अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने की जो घटनाएँ सामने आई हैं, केंद्र सरकार ने जिस तरह इन्हें सामान्य घटना कहकर खारिज किया है और अरोपियों से निबटने के लिए क़ानून का जिस लचर ढंग से इस्तेमाल हुआ है, उससे यह बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर होती है कि इस सरकार की नज़र में लोकतंत्र का मतलब कुछ और ही है! इसी मतलब को पुष्ट करने के लिए अल्पसंख्यक समूहों के ख़िलाफ़ घृणा से भरे भाषण मोदी सरकार के समर्थक और सरकार में शामिल लोग ही देते देखे गए हैं। अब यह घृणा संसद, मीडिया, न्यायपालिका, बुद्धिजीवियों और न्यायप्रिय नागरिकों को भी अपना निशाना बनाने लगी है।