देश में सत्ता-प्रेरित सांप्रदायिक नफ़रत से बनते गृहयुद्ध के हालात, शक्तिशाली पड़ोसी देश द्वारा देश की सीमाओं का अतिक्रमण और उस पर हमारी चुप्पी, अर्थव्यवस्था का आधार माने जाने वाली खेती-किसानी पर मंडराता संकट, ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था और कोरोना वायरस की तीसरे दौर की महामारी से मची अफरातफरी के माहौल के बीच अपने गणतंत्र के 73वें वर्ष में प्रवेश करते वक़्त हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात क्या हो सकती है या क्या होनी चाहिए?

देश आज 73वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तो क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आज़ादी के समय देखे गए सपनों पर कितना खरा उतरे हम और क्या उन सपनों का भारत बना पाए?
क्या हमारे वे तमाम मूल्य और प्रेरणाएँ सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर आज़ादी की लंबी लड़ाई लड़ी गई थी और जो आज़ादी के बाद हमारे संविधान का मूल आधार बनी? क्या आज़ादी हासिल होने और संविधान लागू होने के बाद हमारे व्यवस्था तंत्र और देश के आम आदमी के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया है, जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है? आख़िर आज़ादी हासिल करने और फिर संविधान की रचना के पीछे मूल भावना तो यही थी।