डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध दर्शन को भारतीय इतिहास की एक क्रांतिकारी घटना बताते हुए उस ‘प्रतिक्रांति' का हवाला दिया है जो पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में हुई। गौतम बुद्ध से मिले ‘अप्पदीपो भव’ के महामंत्र ने ‘भाग्य और भगवान’ के दुश्चक्र से आज़ादी दिलाते हुए भारत में समता का नया युग शुरू किया था। इसने ऊँच-नीच को दैवीय आधार देने वाली वर्णव्यवस्था पर ज़बरदस्त चोट की। ख़ासतौर पर ब्राह्मणों का विशेषाधिकार समाप्त हो गया। बौद्ध धर्म के विकट प्रचारक अशोक के साम्राज्य में वैदिक यज्ञों में अनिवार्य बलि प्रथा पर पूरी तरह रोक लग गयी। इससे यज्ञों पर आश्रित पुरोहित वर्ग में काफ़ी आक्रोश था। आख़िरकार सामवेदी ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 185 ईसा. पूर्व अंतिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या करके ‘ब्राह्मणवाद’ को पुनर्स्थापित किया। पुष्यमित्र ने सम्राट बनकर बौद्धों को निर्दयता से कुचलते हुए बौद्ध भिक्षु के कटे हुए सिर की क़ीमत सौ स्वर्णमुद्राएँ निर्धारित कीं और विधि संहिता के रूप में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता और स्त्रियों तथा शूद्रों को दास समझने वाली मनुस्मृति को अपनाने की घोषणा की। (ब्राह्मणवाद की विजय, पेज 150, डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय)
लगभग दो हज़ार साल बाद भारत फिर एक ‘प्रतिक्रांति’ के दौर से गुज़र रहा है। 15 अगस्त 1947 को भारत ने सिर्फ़ औपनिवेशिक शासन से आज़ादी ही प्राप्त नहीं की थी, एक क्रांतिकारी दौर में भी प्रवेश किया था। यह समता, समानता और बंधुत्व पर आधारित संविधान को सर्वोच्च मानने वाले नये युग की शुरुआत थी जिसने शोषण के तमाम स्वरूपों के ख़िलाफ़ क़ानून बनाये और वैज्ञानिक चेतना वाले समाज के निर्माण का संकल्प लिया। सुभाषचंद्र बोस जैसे महानायक मानते थे कि भारतीय समाज शायद इसके लिए तैयार नहीं है, इसलिए लोकतंत्र की जगह तानाशाही शासन व्यवस्था ज़रूरी होगी। लेकिन गाँधी-नेहरू की स्वप्नदर्शी जोड़ी उस जनता पर कैसे यक़ीन न करती जिसने निहत्थे अहिंसक आंदोलन के ज़रिए दुनिया की सबसे ताक़तवर समझे जाने वाले अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंका था।
बहरहाल, आज़ादी का अमृत महोत्सव मना चुका देश, उन तमाम ख़तरों से रूबरू है जो 1947 की तमाम उपलब्धियों को उसी तरह उलट सकते हैं जैसा कि कभी पुष्यमित्र शुंग ने सम्राट बनकर बौद्ध मत के साथ किया था। आज सत्ता के संरक्षण में पुष्यमित्र के सपनों में नया रंग भरा जा रहा है। ‘सेक्युलर संविधान’ की शपथ लेने वाले शासक धर्माधिकारियों के सामने दंडवत् हैं जो खुलेआम ‘हिंदू-राष्ट्र और मनुस्मृति’ के पक्ष में नारा बुलंद कर रहे हैं। कॉरपोरेट गुरु हफ़्ते में नब्बे घंटे काम की माँग कर रहे हैं और कॉरपोरेट मीडिया ने अपना मंच अनपढ़ और उन्मादी बाबाओं के हवाले कर दिया है जो अपने बयानों से भारतीय संविधान की पर्ची काट रहे हैं। त्योहार अब उल्लास नहीं किसी आशंका की तरह आते हैं। इस होली पर कई जगह पर मस्जिदों को नहीं भारतीय संविधान को तिरपाल से ढँका गया था।
कुल मिलाकर भारत एक विराट कोलाहल में बदल गया है जिसमें उसके विकास की कहानी कहीं खो गयी है। इस प्रतिक्रांति ने भारत को अभूतपूर्व नुक़सान पहुँचाया है जिसका लेखा-जोखा भविष्य ज़रूर करेगा। वर्तमान में तो चीन जैसे पड़ोसियों से पिछड़ने की परवाह भी नज़र नहीं आती।
जब दुनिया एआई से चौंका रही थी तो ठीक उसी समय भारत में महाकुंभ की धूम थी और केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर प्रयागराज संगम में पानी को गंदा बताने वाले निशाने पर थे। कुछ दिन बाद यूपी की विधानसभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसे लोगों को ‘सुअर और गिद्ध’ बता डाला था।
यह सिर्फ़ एक आईआईटी डायरेक्टर का मसला नहीं है। 2021 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने अपने लिखित फ़ैसले में कहा था कि गाय अकेला ऐसा जानवर है जो ऑक्सीजन ही लेती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है। वे यही नहीं रुके। सूर्य पूरी दुनिया को ऊर्जा देता है, लेकिन उन्होंने लिखा कि ‘गाय के घी से यज्ञ होने पर सूर्य को ऊर्जा मिलती है जिससे बारिश होती है और पंचगव्य (गाय के गोबर, मूत्र, दूध, दही और घी का मिश्रण) से असाध्य बीमारियाँ ठीक होती हैं।’ इसके कुछ साल पहले राजस्थान के एक जज महोदय बता चुके थे कि मोरनी गर्भवती होने के लिए मोर से सहवास नहीं करती बल्कि मोर के आँसू पीती है।
कोई और समय होता तो महत्वपूर्ण पदों पर बैठे विज्ञानियों और न्यायाधीशों की इस बकवास की लानत-मलामत होती, लेकिन इन्हें ‘देशभक्त और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित’ मानते हुए इनकी प्रशंसा की गयी। भारतीय इतिहास कर्मकांडों और अंधविश्वास पर सवाल उठाने वाले रैदास, नानक, कबीर जैसे संत-महात्माओं की प्रशंसा से भरा है। समाज ने सदियों तक उनके उपदेशों को गाया है लेकिन वर्तमान में उनकी तरह सवाल उठाने का साहस कहीं नज़र नहीं आता। ऐसा साहस अगर कोई दिखाये भी तो उसे ‘देशद्रोही से लेकर हिंदू-द्रोही' तक का तमग़ा पहना दिया जाता है। तमाम पत्रकार और विश्वविद्यालयों के शिक्षक इसी रणनीति का शिकार होकर नेपथ्य में पहुँच गये हैं।
सवाल है कि क्या सवाल उठाने पर रोक लगाने से किसी समाज का विकास संभव है? भारत को विश्वगुरु का ख़िताब तभी मिला था जब यहाँ प्रश्न करने की आज़ादी थी। ‘सत्य' के लिए वेदों को भी निशाने पर लेने की आज़ादी थी। जैन, बौद्ध और लोकायत दर्शन इसी प्रश्न करने की आज़ादी से उपजे थे। उपनिषद तो पूरी तरह गुरु और शिष्यों के बीच सवाल-जवाब ही हैं। आज भारत को विश्वगुरु बनाने का डंका खूब पीटा जा रहा है लेकिन इसके लिए अनिवार्य ज्ञान-विज्ञान के मुक्त परिसरों की कल्पना पर भी ताला लगा दिया गया है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही इस प्रतिक्रांति के प्रतीक चेहरे हैं जिनके लिए अन्य सभी ज्ञान की तरह ‘एआई’ भी भारत में ‘पहले से’ था क्योंकि बच्चा पैदा होते ही ए आई (ए माँ) पुकारता है!
अफ़सोस की बात यह भी है कि भारत में प्रतिक्रांति का यह दौर उस समय तेज़ हुआ है जब मनुष्य के ज्ञान ने ‘ईश्वर की अवधारणा’ पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत ने जो शुरुआत की थी वह स्टीफ़न हाकिंग्स जैसे महान विज्ञानी के देयर इज़ नो गॉड (ईश्वर नहीं है) की घोषणा तक पहुँच गया है। ठीक इसी वक़्त भारत में राजनेता स्वयं ईश्वर के अवतार होने की खुली घोषणा कर रहे जबकि विज्ञान के छात्रों को गंगा जल को प्रदूषित बताने की इजाज़त नहीं है। प्रतिक्रांति का यह दौर कितना लंबा चलेगा, कहना मुश्किल है। लेकिन इस दौर के रहते ‘भारत का दौर’ नहीं आयेगा, यह तय है।
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