डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध दर्शन को भारतीय इतिहास की एक क्रांतिकारी घटना बताते हुए उस ‘प्रतिक्रांति' का हवाला दिया है जो पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में हुई। गौतम बुद्ध से मिले ‘अप्पदीपो भव’ के महामंत्र ने ‘भाग्य और भगवान’ के दुश्चक्र से आज़ादी दिलाते हुए भारत में समता का नया युग शुरू किया था। इसने ऊँच-नीच को दैवीय आधार देने वाली वर्णव्यवस्था पर ज़बरदस्त चोट की। ख़ासतौर पर ब्राह्मणों  का विशेषाधिकार समाप्त हो गया। बौद्ध धर्म के विकट प्रचारक अशोक के साम्राज्य में वैदिक यज्ञों में अनिवार्य बलि प्रथा पर पूरी तरह रोक लग गयी। इससे यज्ञों पर आश्रित पुरोहित वर्ग में काफ़ी आक्रोश था। आख़िरकार सामवेदी ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 185 ईसा. पूर्व अंतिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या करके ‘ब्राह्मणवाद’ को पुनर्स्थापित किया। पुष्यमित्र ने सम्राट बनकर बौद्धों को निर्दयता से कुचलते हुए बौद्ध भिक्षु के कटे हुए सिर की क़ीमत सौ स्वर्णमुद्राएँ निर्धारित कीं और विधि संहिता के रूप में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता और स्त्रियों तथा शूद्रों को दास समझने वाली मनुस्मृति को अपनाने की घोषणा की। (ब्राह्मणवाद की विजय, पेज 150, डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय)