केंद्रीय मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य नितिन गडकरी की छवि एक क़ाबिल मंत्री की है। हाल ही में उन्होंने एक ऐसा बयान दिया है जिसकी काफ़ी चर्चा हुई। उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा, ‘जो करेगा जात की बात, उसको मारूँगा लात!’ पहली नज़र में यह एक ‘निर्दोष' बयान लगता है जो जाति से नहीं गुणों से किसी मनुष्य की पहचान की इच्छा से दिया गया है, लेकिन ज़रा सा विश्लेषण इस नज़र में छिपे ख़तरनाक ‘नज़रिये’ को बेपर्दा कर देता है। साथ में उस ‘लात की जात’ भी बेपर्दा हो जाती है जिससे गडकरी जाति का सवाल उठाने वालों को मारना चाहते हैं।
नितिन गड़करी की आपत्ति समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि इस दौर में जाति की बात कर कौन रहा है? पिछले दिनों एक ख़बर आयी कि यूपी के फ़र्रुख़ाबाद ज़िले में होलिका की आग में जौ की बाली डालने जा रहे दलित परिवार पर हुई गोलीबारी में एक महिला समेत छह लोग घायल हो गये। वहीं मथुरा में दलितों के मुहल्ले में घुसकर महिलाओं को ज़बरदस्ती रंग लगाने को लेकर हुए विवाद में दस लोग घायल हुए हैं। मीडिया आमतौर पर दलितों पर अत्याचार करने वालों की जाति छिपाकर उन्हें ‘दबंग’ लिखता है। जैसे होली में जबरन रंग लगाने का विरोध करने से लेकर घोड़ी चढ़ने की हिमाक़त करने वाले दूल्हे का ‘दलित’ होना कोई मायने नहीं रखता। आश्चर्यजनक रूप से मीडिया संपादक और नितिन गडकरी बिल्कुल एक ही तरह सोचते हैं।
दूसरी तरफ़ जाति की बात वे नौजवान कर रहे हैं जो यूपी सहित कई अन्य प्रदेशों में सरकारी नौकरियों में आरक्षण के प्रावधानों का पालन न किये जाने से आंदोलित हैं? यह शिकायत स्वायत्त कहे जाने वाले तमाम विश्वविद्यालयों या अन्य शैक्षिक संस्थानों को लेकर भी है जहाँ आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को नौकरी देने के बजाय NFS (नन फ़ाउंड सुटेबल) लिख दिया जाता है। आलोचकों का कहना है कि यह 'ब्राह्मणवादी वर्चस्व’ और दलित-पिछड़ा विरोधी मानसिकता का नतीजा है जबकि प्रशासन की नज़र में ये शिकायतें दरअसल ‘जातिवाद’ है। जाति का सवाल उठाने से यह प्रशासन बिलकुल उसी तरह प्रतिक्रिया जताता है जैसा कि नितिन गडकरी चाहते हैं।
कबीर, रैदास और नानक जैसे मध्यकालीन संतों ने सभी को ‘मानुष जात’ और ‘एक ही ईश्वर की संतान’ मानने का उपदेश उसी समाज में दिया था जो गले-गले तक जाति-भेद में धँसा हुआ था। उन महान विभूतियों ने समाज की धारणा बदलने के लिए 'साधु की जाति’ न पूछने का आग्रह किया था। ‘राज’ बदलने का ख़्वाब उन्होंने नहीं देखा था। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक ऐसे ‘राज’ बनाने की कल्पना की गयी जो सामाजिक ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करना अपना दायित्व मानेगा।
इसके लिए जाति-व्यवस्था और समाज पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभाव पर बात करना अनिवार्य था। इसीलिए डॉ.आंबेडकर ने आज़ादी के पहले लाहौर के ’जात-पाँत तोड़क’ मंडल के लिए तैयार किये गये अपने भाषण ‘जाति-प्रथा का उच्छेद’ के साथ जो अलख जगायी थी उसने भारतीय संविधान को समता का आधार दिया। राजनीतिक क्षेत्र में पहले डॉ.लोहिया ने 'जाति तोड़ो’ और ‘सौ में पायें पिछड़े साठ’ का नारा दिया और आगे चलकर मान्यवर कांशीराम ने दलित-पिछड़ों की एकता के आधार पर ‘बहुजन राजनीति’ की कल्पना की।
गडकरी जी सपने में भी नहीं कह सकते कि उनके बयान का कोई लेना-देना 'जाति की बात’ करने वाले आंबेडकर, लोहिया या कांशीराम से है। तो क्या उनके निशाने पर राहुल गाँधी हैं जो पुरज़ोर तरीक़े से ‘जाति जनगणना’ की माँग उठा रहे हैं? 2024 में मोदी सरकार को लोकसभा में बहुमत न मिलने के पीछे राहुल गाँधी की सामाजिक न्याय की राजनीति की बड़ी भूमिका मानी जाती है। राहुल के अभियान ने बीजेपी से लेकर आरएसएस तक को असहज कर रखा है जिससे उबरने के लिए तीन सदी पहले मिट्टी हो गये औरंगज़ेब की कब्र खोदी जा रही है।
इस विश्लेषण में काफ़ी दम है कि जाति के नाम पर हुए अन्याय को ‘विस्मृत’ करने के लिए ही इतिहास की चुनिंदा घटनाओं के ज़रिए हिदू-मुस्लिम संघर्ष की स्मृति जगाई जा रही है। लेकिन क्या इससे डॉ.आंबेडकर के ‘जाति-उच्छेद’ का सपना पूरा हो जाएगा? वैसे यह बात कैसे भुलाई जा सकती है कि नितिन गड़करी जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं उसके विचार डॉ.आंबेडकर के इस सपने से पूरी तरह उलट हैं। इस खेमे के सबसे बड़े विचारक सावरकर मनुस्मृति को ‘हिंदू लॉ’ बता चुके हैं तो दीनदयाल उपाध्याय जैसे चिंतकों के मुताबिक जाति व्यवस्था ‘ऐसी जैविक एकता का आधार है जो राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को जारी रख सकती है।’
वहीं आरएसएस के सरसंघचालक रहे गुरु गोलवलकर मानते थे कि 'बौद्ध धर्म ने जाति व्यवस्था को कमज़ोर किया था इसलिए भारत मुस्लिम आक्रमण का शिकार हुआ। फिर भी जहाँ जाति बंधन मज़बूत थे वहाँ मुस्लिम सत्ता के बावजूद जनता हिंदू बनी रही।’
गोलवलकर तो ‘नीची जाति के हिंदुओं की नस्ल सुधारने’ तक की बात करते थे। हिटलर के नात्सी प्रयोगों के समर्थक गोलवलकर ने 17 नवंबर 1960 को गुजरात युनिवर्सिटी में एक व्याख्यान के दौरान ‘संकर के हिंदू प्रयोगों’ की बात करते हुए उत्तर भारत के ब्राह्मणों को वरीयता देने की बात की। उन्होंने कहा था कि 'भारत में हिंदुओं की एक बेहतर नस्ल मौजूद है और हिंदुओं की एक कमज़ोर नस्ल मौजूद है, जिसे वर्णसंकर के माध्यम से बेहतर करना होगा।’
याद नहीं पड़ता कि नितिन गडकरी ने ‘जाति-श्रेष्ठता' की बात करने वाले सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय या गोलवलकर की कभी निंदा की हो। विकीपीडिया बताता है कि नितिन गडकरी का जन्म नागपुर के एक ‘ब्राह्मण’ परिवार में हुआ। अपनी जाति का सार्वजनिक ऐलान करने वाले विकीपीडिया पर गडकरी ने कभी लात चलाने का ऐलान किया हो, इसका भी प्रमाण नहीं है।
इंटरनेट खँगालने पर जाति प्रथा के ख़िलाफ़ चलाये गये किसी ऐसे अभियान की जानकारी भी नहीं मिलती है जिसमें नितिन गडकरी ने हिस्सा लिया हो। न अपने पथ-प्रदर्शक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘जाति-सम्मत' धारणाओं की ही उन्होंने कभी आलोचना की। तो फिर क्यों न माना जाये कि गडकरी यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं। वे जाति-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ और भागीदारी के पक्ष में उठ रही आवाज़ों से क्षुब्ध हैं। गड़करी की ‘लात’ दरअसल, उस ब्राह्मणवाद की लात है जिसने सदियों से मेहनतकश जातियों को लतिया-लतियाकर अपमानित किया है। गडकरी उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्हें ‘लात मारना’ चाहते हैं जो जाति से जुड़े दुःख, उत्पीड़न और लूट का सार्वजनिक इज़हार करते हैं।
पुनश्च: यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ क्षत्रिय जाति में पैदा होने के गर्व का सार्वजनिक ऐलान कर चुके हैं। गृहमंत्री अमित शाह ख़ुद को बनिया का बेटा बता चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी चुनावी सभाओं में ख़ुद को पिछड़ी जाति का बताने का रिकॉर्ड बना चुके हैं। शायद इन बयानों को गडकरी जी ने सुना नहीं वरना …
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