कोरोना महामारी पूरी दुनिया में फैली हुई है। भारत भी इससे जूझ रहा है। पूरे देश में तालाबंदी है। बाज़ार बंद हैं, यातायात बंद है, दूसरे सामाजिक उपक्रम बंद हैं और विश्वविद्यालय जैसे दूसरे सामाजिक प्रतिष्ठान भी बंद हैं। पिछले एक महीने में मानव संसाधन विकास मंत्रालय एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने भारत के विश्वविद्यालयों को जो निर्देश दिए हैं उन्हें देख कर लगता है कि इस ‘कोरोना काल’ में उच्च शिक्षा को प्रतिबद्धता एवं कर्तव्यनिष्ठता के नाम पर त्रासद प्रहसन में बदल दिया गया है।
5 मार्च 2020 से ले कर 11 अप्रैल 2020 तक इन दोनों संस्थाओं द्वारा जारी पत्रों ने यह साफ़ किया है कि भारतीय विश्वविद्यालयों को शिक्षा का केंद्र नहीं, बल्कि सरकार की मात्र एजेंसी समझा जा रहा है। इस एक महीने की अवधि में जारी इन पत्रों और निर्देशों को देख कर यह समझ में आता है कि इनके माध्यम से भारत के विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण का शिकंजा क्रमश: बढ़ता जा रहा है। ये दोनों संस्थाएँ निर्देश जारी करती हैं और विश्वविद्यालय अपनी स्थिति और संदर्भ को बिना देखे इन निर्देशों का पालन करने को बाध्य हो जाते हैं।
5 मार्च 2020 को जारी पत्र में कोरोना से बचाव के लिए अपनाई जा सकने वाली सामान्य सावधानियों की चर्चा है। इसके बाद विश्वविद्यालयों को बंद कर दिया जाता है और छात्रावासों को खाली भी करा दिया जाता है। फिर 19 मार्च को एक पत्र जारी किया जाता है। इसमें यह कहा गया है कि सभी परीक्षाओं एवं मूल्यांकन कार्य का आयोजन 31 मार्च के बाद किया जाए। इसी पत्र में यह भी निर्देश है कि सभी शिक्षण संस्थान इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से विद्यार्थियों एवं शिक्षकों के संपर्क में रहें और उन्हें पूरी तरह जानकारी देते रहें ताकि वे चिंताग्रस्त न हों। ऐसे निर्देशों में यह सामान्य बात भुला दी जाती है कि अभी भी देश के सभी विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों के शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की पहुँच ‘इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों’ तक नहीं है।
21 मार्च को एक और पत्र जारी किया जाता है। इस पत्र में 31 मार्च तक सभी शिक्षकों एवं कर्मचारियों को घर से काम करने की इजाज़त दी जाती है और इस अवधि में वे ‘ऑन ड्यूटी’ माने जाएँगे। इसी पत्र में उल्ल्लिखित दूसरी बात यह थी कि शिक्षक इस समय का उपयोग कैसे करें? इसके लिए छह बिंदु बताए गए हैं जिनमें ऑनलाइन शिक्षण, ऑनलाइन परीक्षा एवं ऑनलाइन मूल्यांकन की सामग्री विकसित करने के साथ–साथ आलेख लिखने एवं शोध आदि जारी रखने का भी ज़िक्र है।
यह कितना हास्यास्पद और अपमानजनक है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यह बता रहा है कि शिक्षकों को अपने समय का उपयोग कैसे करना चाहिए?
आलेख लिखना और शोध करना शिक्षण के पेशे से अनिवार्यत: जुड़े हुए ही हैं। कोई भी समर्पित शिक्षक यह काम करता ही है। शिक्षण कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। ज्ञान, तर्क और संवाद के प्रति ललक इसे श्रेष्ठता तक पहुँचाते हैं। अगर यूजीसी को यह बताना पड़ रहा है तो इसे विडंबना के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है? इसी तरह 25 मार्च को जारी पत्र में यह कहा गया है कि ‘कोविड-19’ के कारण सीखने की प्रक्रिया को रुकने न दिया जाए। इसके लिए ‘स्वयं’, ‘ई –पीजी पाठशाला’, ‘स्वयंप्रभा’, ‘नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी’, ‘शोधगंगा’ आदि वेब संसाधनों का उपयोग किया जाए। इसी पत्र में यह भी दावा है कि ये सारे संसाधन शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के सीखने के क्षितिज को विस्तृत करेंगे। इसका नतीज़ा यह हुआ कि संबद्ध विश्वविद्यालय अपने शिक्षकों से यह कह रहे हैं कि शिक्षक सामान्य स्थिति में कक्षा में जा कर निर्धारित विषय पर जो भी बोलता वह विश्वविद्यालय प्रशासन को लिखित, ऑडियो या वीडियो रूप में उपलब्ध करा दे जिन्हें विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर ‘अपलोड’ किया जा सके।
विद्यार्थियों के साथ धोखाधड़ी!
ऐसे निर्देशों में इस बात का ध्यान ही नहीं रखा जाता है कि ये सामग्रियाँ कक्षा – शिक्षण के बदले इस्तेमाल नहीं की जा सकती हैं। ये सब कक्षा – शिक्षण के पूरक हो सकते हैं उस का स्थानापन्न नहीं। कक्षा शिक्षण के बदले इन सबका किया जाना अपने विद्यार्थियों के साथ धोखाधड़ी है। 21 मार्च और 25 मार्च के उपर्युक्त पत्रों का ही यह परिणाम हुआ कि शिक्षकों से ‘ऑनलाइन शिक्षण’ की साप्ताहिक रिपोर्ट माँगी जाने लगी। हालाँकि कभी भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय और यूजीसी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि ‘ऑनलाइन शिक्षण’ किसे माना जाएगा और आधिकारिक तौर पर ‘ऑनलाइन शिक्षण’ का तात्पर्य क्या है? फिर भी शिक्षक आनन–फानन में अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय देते हुए ‘जूम’ ऐप या दूसरे निजी संसाधनों से ऑनलाइन होकर विद्यार्थियों को ऑनलाइन कक्षा में शामिल होने को कहने लगे।
शिक्षकों ने न तो यह सोचा और न ही माँग की कि सांस्थानिक स्तर पर उन्हें और विद्यार्थियों को ‘ऑनलाइन शिक्षण’ के लिए कोई भी सुविधा नहीं दी गई है। अगर रोज़ चार या पाँच कक्षाएँ संचालित होंगी तो उसके लिए ज़रूरी इंटरनेट कहाँ से विद्यार्थियों और उनको उपलब्ध होगा?
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, यूजीसी या संबद्ध विश्वविद्यालय प्रशासन की अव्वल दर्ज़े की संवेदनहीनता का भी पता चलता है कि उन्होंने अपने निर्देशों में भी इस पर कोई विचार नहीं किया कि ‘ऑनलाइन शिक्षण’ के लिए संसाधन शिक्षक एवं विद्यार्थी कहाँ से जुटायेंगे?
इसका मतलब तो यही हुआ कि शिक्षण जो सामूहिक एवं संस्थागत तौर पर होना चाहिए था वह शिक्षक - विद्यार्थी के व्यक्तिगत ‘त्याग’ पर निर्भर कर दिया गया है। और ऊपर से यह भी कि निगरानी भी की जा रही है।
3 अप्रैल को जारी किया गया निर्देश और ज़्यादा विडंबनापूर्ण, हास्यास्पद एवं त्रासद है। इसमें यह कहा गया है कि प्रधानमंत्री द्वारा 3 अप्रैल को ही दिए गए ‘अभूतपूर्व राष्ट्रीय उद्बोधन’ के अनुसार 5 अप्रैल को विद्यार्थी रात नौ बजे नौ मिनट के लिए बत्ती बंद कर दें और दीया, मोमबत्ती या टॉर्च जला सकते हैं। 5 अप्रैल को रात नौ बजे पूरे भारत में एक ‘अद्भुत’ नज़ारा दिखा। लोगों ने बत्तियाँ बंद कीं, दीये जलाये और ख़ूब पटाखे भी फोड़े। कोरोना महामारी की हालत में यह सब करना अव्याख्येय है। बाद में इसे यह भी कह कर प्रचारित किया गया कि जब पूरी दुनिया में अँधेरा था तो भारत जगमगा रहा था। यूजीसी अगर आधिकारिक तौर पर पत्र लिख कर विद्यार्थियों को प्रधानमंत्री के ‘विचित्र’ उद्बोधन के अनुसार काम करने को कह रही है तो समझा जा सकता है कि इस संस्था ने अपना वास्तविक दायित्व निश्चय ही खो दिया है। पिछले पाँच वर्षों में यह साफ़ हो गया है कि यूजीसी अकादमिक संस्था के रूप में नहीं बल्कि सरकार की एजेंसी के रूप में काम कर रही है।
एक तरफ़ तो ऐसी स्थिति है और दूसरी ओर 5 अप्रैल को प्रसारित पत्र में यह कहा गया है कि विद्यार्थियों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो। उक्त पत्र में ही यह भी कहा गया है कि विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए जो भी क़दम विश्वविद्यालय स्तर पर उठाए जा रहे हैं उसकी रिपोर्ट ‘यूनिवर्सिटी एक्टीविटी मॉनिटरिंग पोर्टल’ पर अपलोड की जाए। इतना ही नहीं, ऊपर ‘ऑनलाइन शिक्षण’ से जुड़ी जिस साप्ताहिक रिपोर्ट को माँगे जाने की बात की गई है उसे भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय रोज़ाना प्रस्तुत करने को कह रहा है। निर्देश यह है कि आज हुए ‘ऑनलाइन शिक्षण’ की रिपोर्ट अगले दिन दोपहर दो बजे तक हर हाल में भेज दी जाए। आलम यह है कि रिपोर्ट भेजने के लिए प्रारूप तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय ही तय कर रहा है।
अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने ‘भारत पढ़े ऑनलाइन अभियान’ शुरू किया है। लोगों से इसके लिए सुझाव माँगे जा रहे हैं। यह सवाल कोई भी विश्वविद्यालय नहीं पूछ रहा कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय को क्या पड़ी है कि वह उसके शैक्षणिक मामलों में इस प्रकार का दखल दे? कक्षा हो रही या नहीं, उसकी रिपोर्ट मंत्रालय को चाहिए ही क्यों? यह विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता, गरिमा एवं आत्मसम्मान का खुला अपहरण कर उनका अपमान करना है। प्रकारांतर से मानव संसाधन विकास मंत्रालय शिक्षकों और विद्यार्थियों की भी स्वायत्तता, गरिमा एवं आत्मसम्मान का अपहरण कर रहा है क्योंकि कक्षा शिक्षक और विद्यार्थी की संयुक्त रूप से निजी जगह है। कौन विश्वविद्यालय क्या और कैसे पढ़ाएगा यह उसके संदर्भों एवं ज़रूरतों के आधार पर तय होता है न कि किसी एक या दो संस्था के निर्देशों से। विडंबना और त्रासदी यह है कि यह सब प्रतिबद्धता, कर्तव्यबोध एवं नवाचार के नाम पर किया जा रहा है। रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियाँ याद आती हैं:
ऊपर – ऊपर सब स्वाँग,
कहीं कुछ नहीं सार,
केवल भाषण की लड़ी।
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