कुंभ करोड़ों हिंदुस्तानियों की आस्था का पर्व है। इस परम्परा के केन्द्र में आस्था ही है। और आस्था व्यक्ति की होती है। समाज की होती है। जब व्यक्ति और समाज ही नहीं बचेंगे तो आस्था का क्या करेंगे? कौन मनाएगा कुंभ? कौन लगाएगा पवित्र डुबकी? जन आस्थाएँ ही कुंभ और दूसरे उत्सव मनाती हैं। कुंभ में जो करोड़ों लोग आते हैं उन्हें कोई न्योता नहीं दिया जाता। न विज्ञापन। न रहने खाने का प्रबन्ध। न ढोकर लाई जाने वाली बसें। न कोई साजो सामान। उन्हें हमारी आस्था ही खींचकर ले आती है।
कुंभ: व्यक्ति, समाज ही नहीं बचेंगे तो आस्था का क्या करेंगे?
- विचार
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- 18 Apr, 2021

साल 1897 अर्ध कुंभ के दौरान प्लेग फैलने से कनखल का सारा कस्बा खाली करा दिया गया था। सन् 1897 के कुंभ के दौरान अप्रैल माह में प्लेग से कई यात्री मरे। मेला स्थगित हुआ। यही आपदा का धर्म है। अतीत के उदाहरणों से लेकर हमारे धर्मग्रंथ तक इस आपद धर्म के पालन के सीख देते हैं। धर्म ग्रंथों में इस आपद धर्म पर विस्तार से चर्चा भी की गई है।
सो इस आधार को समझिए। जब व्यक्ति बचेगा, समाज सुरक्षित रहेगा तभी कुंभ होगा। धर्म भी तभी तक है जब तक उसके मानने वाले हैं। महाभारत कहता है ‘धारयते इति धर्म:’ अर्थात जब तक धारण करने वाले हैं तभी तक धर्म है। कोई भी धर्म, कर्मकांड, या सम्प्रदाय मनुष्य से ऊपर नहीं है। मनुष्य है, तब ही धर्म है, कर्मकांड है और विचार हैं। अखाड़ा है, महामण्डलेश्वर हैं। जब जान बचेगी तभी धर्म का पालन होगा। सभी धर्मों से ऊपर होता है आपद्धर्म। यानी वह धर्म जिसका विधान केवल आपातकाल के लिए हो। तो हमारी सनातन परम्परा के वाहक धर्माचार्यो। मनुष्यता को बचाइए। कुंभ को टालिए। वरना जब आपको धर्माचार्य मानने वाले लोग ही नहीं रहेंगे तो ऐसी परम्परा से क्या लाभ?