होली प्रकृति का मंगल उत्सव है। भारतीय परम्परा में आनंद का उत्सव। होली समाज की जड़ता और ठहराव को तोड़ने का त्योहार है। उदास मनुष्य को गतिमान करने के लिए राग और रंग ज़रूरी है। होली में दोनों हैं। यह सामूहिक उल्लास का त्योहार है।
परंपरागत और समृद्ध समाज ही होली खेल सकता है। रूखे और बनावटी आभिजात्य को ओढ़नेवाले समाज का यह उत्सव नहीं है। सांस्कृतिक लिहाज से दरिद्र व्यक्ति होली नहीं खेल सकता। वह इस आनंद का भागी नहीं बन सकता। साल भर के बंधनों, कुंठा और भीतर जमी भावनाओं को खोलने का ‘सेफ्टी वॉल्व’ होली है।
टूटती वर्जनाओं का त्योहार
होली प्रेम की वह रसधारा है, जिसमें समाज भींगता है। ऐसा उत्सव है, जो हमारे भीतर के कलुष को धोता है। होली में राग, रंग, हँसी, ठिठोली, लय, चुहल, आनंद और मस्ती है।
इस त्योहार से सामाजिक विषमताएँ टूटती हैं, वर्जनाओं से मुक्ति का अहसास होता है, जहाँ न कोई बड़ा है, न छोटा; न स्त्री न पुरुष; न बैरी, न शत्रु। इस पर्व में व्यक्ति और समाज राग और द्वेष भुलाकर एकाकार होते हैं।
किसी एक देवता पर केंद्रित न होकर इस पर्व में सामूहिक रूप से समाज के भीतर देवत्व के गुणों की पहचान होती है। इसीलिए हमारे पुरखों ने होली जैसा त्योहार विकसित किया।
बनारस की होली
मैं बनारसी हूँ। बनारस प्रतिपल उत्सव में जीता है। बेफ्रिकी उसका स्थायी स्वभाव है। इसलिए उत्सव प्रियता मेरी रगों में दौड़ती है। नीत्शे कह गए हैं, 'बीमार परम्पराएँ उदास समाज बनाती हैं'। सो होलियाना मस्ती को बनारसियों ने अपना जीवन दर्शन मान लिया। इसलिए बनारसी पूरे साल होली की मस्ती में रहता है। यही उमंग उसका जीवन सूत्र है।
दुनिया भर में होली को मनाते हैं पर बनारस में होली को पहनते है, ओढ़ते हैं, बिछाते हैं। उसे जीते हैं। फागुन भी आनंद के रामानन्द की तलाश में कबीर बनकर बनारस के घाट की सीढ़ियों पर लेट जाता है।
आप सोच सकते हैं कि आखिर काशी में इतनी उत्सवप्रियता क्यों? क्योंकि यहाँ मृत्यु भी उत्सव है। यहाँ श्मशान में भी होली खेली जाती है। यह दुनिया की सबसे अनूठी होली है। मनुष्य की चिता भस्म से खेली जाने वाली होली, ताकि जीवन की आपाधापी को ठेंगे पर रखते हुए हमें जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास बना रहे।
श्मशान में होली!
रंगभरी एकादशी से बाबा विश्वनाथ होली खेलना शुरु करते हैं। और दूसरे रोज़ वह महाश्मशान पर भूत-पिशाच, दृश्य-अदृश्य लोगों के साथ होली खेलते हैं। अमरत्व के उद्घोष के साथ। तभी तो ‘होली खेलत नंदलाल बिरज में’ कृष्ण रंगीले वृन्दावन में गोपिकाओं के साथ होली खेलते हैं। रघुवीरा अवध में साथियों के साथ होली के उमंग में हैं ‘होली खेले रघुवीरा अवध में।’
शिव मसाने (श्मशान) में होली खेलते हैं। भूत-पिशाच के साथ चिता भस्म वाली तभी तो यहां गाते हैं, ‘खेले मसाने में होली दिगम्बर खेले मसाने में होली, भूत पिशाच बटोरी दिगम्बर, खेले मसाने में होली’ काशी राग की नहीं विराग की नगरी है।
यहाँ लोग शरीर छोड़ कर मोक्ष पाने आते हैं, मरने नहीं। इसलिए काशी से मृत्यु का सम्बन्ध आने-जाने का है। आरोह और अवरोह का विराम और विलाप का नहीं। जो दिगम्बर है वह मसाने में ही होली खेलता है। भारतीय संस्कृति के तीन महानायक हैं राम, कृष्ण और शिव। तीनों की होली से हमें तीनों के जीवन दर्शन का साक्षात्कार होता है। यही बनारसी दर्शन है।
मदनोत्सव
इस देश में पर्वों के महत्त्व को समझने का मतलब ऋतु परिवर्तन के महत्त्व को समझना है। बसंत के स्वभाव और प्रकृति के हिसाब से उसका असली त्योहार होली ही है। हमारे ऋतुचक्र में शरद और बसंत यही दो उत्सवप्रिय ऋतुएं हैं। बसंत में चुहल है, राग है, रंग है, मस्ती है। शरद में गांभीर्य है। परिपक्वता है। बसंत अल्हड़ है। काम बसंत में ही भस्म हुआ था। तब से वह अनंग तो हुआ, लेकिन बसंत के दौरान ही सबसे ज्यादा सक्रिय रहता है। पहले बसंत पंचमी को बसंत के आने की आहट होती थी। अब ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ से वह थोड़ा आगे खिसक गया है। बसंत की चैत्र प्रतिपदा को ही हमारे पुरखे ‘मदनोत्सव’ मनाते थे।
आजकल मौसम का अलग मिजाज देखने को मिल रहा है। देश के किसी हिस्से में तेज धूप की चुभन, तो कहीं ओले, तो कहीं रात में सर्दी का असर भी बरकरार है। समाज की तरह मौसम का मिजाज भी बदल रहा है।
होली यानी ‘वसंतोत्सव’ में काम की पूजा होती है, जबकि शरद में राम की पूजा होती है। बसंत बेपरदा है। सबके लिए खुला है। लूट सके तो लूट। कवि पद्माकर कहते हैं-
'कूलन में, केलिन में, कछारन में, कुंजन में, क्यारिन में, कलिन में, कलीन किलकंत है। बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में, बनन में, बागन में, बगरयो बसंत है।'
काम का पुत्र बसंत
बसंत में ऊष्मा है, तरंग है, उद्दीपन है, संकोच नहीं है। तभी तो फागुन में बाबा भी देवर लगते हैं। बसंत काम का पुत्र है, सखा भी। इसे ऋतुओं का राजा मानते हैं। इसलिए गीता में कृष्ण कहते हैं-‘ऋतूनां कुसुमाकर’ अर्थात् ऋतुओं में मैं बसंत हूं। बसंत की ऋतु संधि मन की सभी वर्जनाएं तोड़ने को आतुर रहती है। इस शुष्क मौसम में काम का ज्वर बढ़ता है। विरह की वेदना बलवती होती है। तरुणाई का उन्माद प्रखर होता है। वयःसंधि का दर्द कवियों के यहाँ इसी मौसम में फूटता है। नक्षत्र विज्ञान के मुताबिक भी ‘उत्तरायण’ में चंद्रमा बलवान होता है।
यौवन हमारे जीवन का बसंत है और बसंत सृष्टि का यौवन। तेजी से आधुनिक होता हमारा समाज बसंत से अपने गर्भनाल रिश्ते को भूल इसके ‘वेलेंटाइनीकरण’ पर लगा है। अब बसंत उनके लिए फिल्मी गीतों ‘रितु बसंत अपनो कंत गोरी गरवा लगाएं’ के जरिए ही आता है। मौसम के अलावा जीवन में बसंत का कोई अहसास अब बचा नहीं है।
प्रकृति की होली
बसंत प्रकृति की होली है और होली समाज की। होली समाज की उदासी दूर करती है। होली पुराने साल की विदाई और नए साल के आने का भी उत्सव है। यह मलिनताओं के दहन का दिन है। अपनी झूठी शान, अहंकार और श्रेष्ठता बोध को समाज के सामने प्रवाहित करने का मौका है। तमस को जलाने का अनुष्ठान है। वैमनस्य को खाक करने का अवसर है।होली में हमें बनारस का अपना मुहल्ला याद आता है। महानगरों से बाहर निकले तो आज भी गाँव, कस्बों और मुहल्ले में ही फाग का राग गहरा होता है। मेरे बचपन में मोहल्ले के साथी घर-घर जा गोइंठी (उपले) माँगते थे। जहां माँगने पर न मिलती तो उसके घर के बाहर गाली गाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता। मोहल्ले में इक्का-दुक्का घर ऐसे ज़रूर होते थे, जिन्हें खूब गालियाँ पड़तीं।
जिस मोहल्ले की होलिका की लपट जितनी ऊँची उठती, उतनी ही उसकी प्रतिष्ठा होती। फिर दूसरे रोज गहरी छनती। होलिका की राख उड़ाई जाती। टोलियों में बंटे हम, सबके घर जाते, सिर्फ उन्हें ही छोड़ा जाता जिनके घर कोई गमी होती।
मेरे पड़ोसी ज्यादातर यादव और मुसलमान थे, पर होली के होलियारे में संप्रदाय कभी आड़े नहीं आता था। सब साथ-साथ इस हुड़दंग में शामिल होते। अनवर भाई भी वैसे ही फाग खेलते जैसे पंडित अमरनाथ।
राग और रंग
हमारे साहित्य और संगीत होली वर्णन से पटे पड़े हैं। उत्सवों-त्योहारों में होली ही एकमात्र ऐसा पर्व है, जिस पर साहित्य में सर्वाधिक लिखा गया है। पौराणिक आख्यान हो या आदिकाल से लेकर आधुनिक साहित्य, हर तरफ कृष्ण की ‘ब्रज होरी’ रघुवीरा की ‘अवध होरी’ और शिव की ‘मसान होली’ का जिक्र है। राग और रंग होली के दो प्रमुख अंग हैं।सात रंगों के अलावा, सात सुरों की झनकार इसके हुलास को बढ़ाती है। गीत, फाग, होरी, धमार, रसिया, कबीर, जोगिरा, ध्रुपद, छोटे-बड़े खयालवाली ठुमरी, होली को रसमय बनाती है। उधर नज़ीर से लेकर नए दौर के शायरों तक की शायरी में होली के रंग मिल जाते हैं। नज़ीर अकबराबादी होली से अभिभूत हैं—‘जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की, जब डफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।’
तो ब्रज भाषा के ताक़तवर कवि पद्माकर कहते है-
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी॥
नवाबों की होली
वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि कहा गया, जिसमें अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बाँटने का विधान है। मनु का जन्म भी इसी रोज़ हुआ था। अकबर और जोधाबाई तथा शाहजहाँ और नूरजहाँ के बीच भी होली खेलने का वृत्तांत मिलता है। यह सिलसिला अवध के नबावों तक चला। वाजिद अली शाह टेसू के रंगों से भरी पिचकारी से होली खेला करते थे।
लोक में होली सामान्यतः देवर-भाभी का पर्व है, पर मथुरा के जाव इलाके में राधा-बलराम, यानी जेठ-बहू का हुरंगा भी होता है। पारंपरिक लिहाज से होली दो दिन की होती है। पहले रोज होलिका दहन और दूसरे दिन को धुरड्डी, धुरखेल, धूलिवंदन कहा जाता है। दूसरे रोज रंगने, गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। देश के कई हिस्सों में पूरे हफ्ते होली मनाई जाती है।
ब्रज के अलग-अलग इलाकों— बरसाने, नंदगांव, गोकुल, गोवर्धन, वृदांवन में भी होली का रंग अलग-अलग होता है। लेकिन हर कहीं आनंद, सांस्कृतिक संपन्नता और फसलों का स्वागत इसके मूल में है।
टेसू की जगह गोबर की होली
बौद्ध साहित्य के मुताबिक एक दफा श्रावस्ती में होली का ऐसा हुड़दंग था कि गौतम बुद्ध सात रोज़ तक शहर में न जा बाहर ही बैठे रहे। परंपरागत होली टेसू के उबले पानी से होती थी। सुगंध से भरे लाल और पीले रंग बनते थे। अब इसकी जगह गोबर और कीचड़ ने ले ली है।
हम कहाँ से चले थे, कहाँ पहुँच गए? सिर चकरानेवाले कैमिकल से बने गुलाल, चमड़ी जलानेवाले रंग, आंख फोड़नेवाले पेंट, इनसे बनी है आज की होली।
साहित्य में होली हर काल में रही है। सूरदास, रहीम, रसखान, मीरा, कबीर, बिहारी हर कहीं होली है। होली का एक और साहित्य है—हास्य व्यंग्य का। बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ की साहित्य परंपरा इससे अछूती नहीं है। समाज की विसंगतियों और राजनीति में अर्न्तविरोध पर चोट करती होली की ये कविताएँ भाषा की मर्यादा तो तोड़ती थीं। पर उसमें कलुष नहीं होता था।
अस्सी की होली
बनारस में अस्सी पर होने वाला कवि सम्मेलन तो बनारसी होली की पहचान बन गया था। इसमें राजनेताओं की मौजूदगी में उन्हें डंडा करती कविताएं पढ़ी जाती थीं। इन हास्य गोष्ठियों की जगह अब गाली-गलौज वाले सम्मेलनों ने ले ली है। जहाँ सत्ता प्रतिष्ठान पर तीखी टिप्पणी होती है। हालांकि ये सम्मेलन अश्लीलता की सीमा लांघते हैं, लेकिन चोट कुरीतियों पर करते हैं।
होली सिर्फ उच्द्दृंखलता का उत्सव नहीं है। वह व्यक्ति और समाज को साधने की भी शिक्षा देती है। यह सामाजिक विषमताओं को दूर करने का त्योहार है।
बच्चन कहते हैं—‘भाव, विचार, तरंग अलग है, ढाल अलग है, ढंग अलग, आज़ादी है, जिसको चाहो आज उसे वर लो। होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो।’
फागुन में बूढ़े बाबा भी देवर लगते थे। वक्त बदला है! आज देवर भी बिना उम्र के बूढ़ा हो शराफ़त का उपदेश देता है। अब न भीतर रंग है न बाहर। होली बालकों का कौतुक है या मयखाने का खुमार।
कहाँ गया वह हुलास, वह आनंद और वह जोगिरा सा रा रा रा! कहाँ बिला गई है फागुन की मस्ती! दिल्ली में हम होलीयारे समाज से वंचित वर्ग हैं। लेकिन बनारस में आज भी होली जिन्दा है। मुझे बनारस याद आता है। वे गलियाँ याद आती हैं। वह जीवन याद आता है।
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