कृषि क्षेत्र में लाए गए तीन सुधारवादी क़ानूनों के विरोध में किसान 26 नवंबर से दिल्ली घेरे हुए हैं। कई दौर की वार्ता के बाद भी अभी तक सहमति नहीं बन पाई है। सैकड़ों किसान संगठनों ने भारत बंद भी किया। 9 दिसंबर को आंदोलनकारियों और सरकार के बीच निर्णायक चरण की बातचीत भी प्रस्तावित है। मोदी सरकार के लिए किसान आंदोलन अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। पूरा विपक्ष भी किसानों के पक्ष में कूद पड़ा है। किसान इन मुद्दों पर आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं। किसानों की समस्याओं का जल्द कुछ हल नहीं निकाला गया तो यह आंदोलन सरकार के गले की फाँस बन सकता है।
किसानों की मूल आशंका यह है कि इन सुधारों के बहाने सरकार एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर फ़सलों की सरकारी खरीद और वर्तमान मंडी व्यवस्था से पल्ला झाड़कर कृषि बाज़ार का निजीकरण करना चाहती है। नए क़ानूनों के फलस्वरूप कृषि क्षेत्र पूंजीपतियों के हवाले हो जाएगा जो किसानों का जम कर शोषण करेंगे। सरकार का तर्क है कि इन क़ानूनों से कृषि उपज की बिक्री हेतु एक नई वैकल्पिक व्यवस्था तैयार होगी जो वर्तमान मंडी व एमएसपी व्यवस्था के साथ-साथ चलती रहेगी। इससे फ़सलों के भंडारण, विपणन, प्रसंस्करण, निर्यात आदि क्षेत्रों में निवेश बढ़ेगा और साथ ही किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।
पहले क़ानून में किसानों को अधिसूचित मंडियों के अलावा भी अपनी उपज को कहीं भी बेचने की छूट प्रदान की गई है। सरकार का दावा है कि इससे किसान मंडियों में होने वाले शोषण से बचेंगे, किसान की फ़सल के ज़्यादा खरीदार होंगे और किसानों को फ़सलों की अच्छी क़ीमत मिलेगी। दूसरा क़ानून 'अनुबंध कृषि' से संबंधित है जो बुवाई से पहले ही किसान को अपनी फ़सल तय मानकों और क़ीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा देता है। तीसरा क़ानून 'आवश्यक वस्तु अधिनियम' में संशोधन से संबंधित है जिससे अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन, आलू और प्याज़ सहित सभी कृषि खाद्य पदार्थ अब नियंत्रण से मुक्त होंगे। इन वस्तुओं पर कुुुछ विशेष परिस्थितियों के अलावा स्टॉक की सीमा भी अब नहीं लगेगी।
तमाम दावों के बावजूद किसानों की आशंकाओं को दूर करने में सरकार अब तक असफल रही है। किसानों का कहना है कि वर्तमान मंडी और एमएसपी पर फ़सलों की सरकारी क्रय की व्यवस्था इन सुधारों के कारण किसी भी तरह से कमज़ोर ना पड़े।
अभी मंडियों में फ़सलों की खरीद पर 8.5 प्रतिशत तक टैक्स लगाया जा रहा है परन्तु नई व्यवस्था में मंडियों के बाहर कोई टैक्स नहीं लगेगा। इससे मंडियों से व्यापार बाहर जाने और कालांतर में मंडियाँ बंद होने की आशंका निराधार नहीं है। अतः निजी क्षेत्र द्वारा फ़सलों की खरीद हो या सरकारी मंडी के माध्यम से, दोनों ही व्यवस्थाओं में टैक्स के प्रावधानों में भी समानता होनी चाहिए। किसान निजी क्षेत्र द्वारा भी कम से कम एमएसपी पर फ़सलों की खरीद की वैधानिक गारंटी चाहते हैं। किसानों से एमएसपी से नीचे फ़सलों की खरीद क़ानूनी रूप से वर्जित हो। किसानों की माँग है कि विवाद निस्तारण में न्यायालय जाने की भी छूट मिले। सभी कृषि जिंसों के व्यापारियों का पंजीकरण अनिवार्य रूप से किया जाए। छोटे और सीमांत किसानों के अधिकारों और ज़मीन के मालिकाना हक का पुख्ता संरक्षण किया जाए। प्रदूषण क़ानून और बिजली संशोधन बिल में भी उचित प्रावधान जोड़कर किसानों के अधिकार सुरक्षित किए जाएँ।
23 फ़सलों के लिए एमएसपी
एमएसपी पर सरकारी खरीद की व्यवस्था किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। हमारे देश में 23 फ़सलों की एमएसपी घोषित होती है। इसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न- गेहूँ, धान, मोटे अनाज, दालें, तिलहन, गन्ना व कपास जैसी कुछ नकदी फ़सलें शामिल हैं। दूध, फल, सब्ज़ियों, मांस, अंडे आदि की एमएसपी घोषित नहीं होती। 2019-20 में एमएसपी पर खरीदी जाने वाली फ़सलों में से गेहूं और चावल (धान के रूप में) दोनों को जोड़कर लगभग 2.15 लाख करोड़ रुपये मूल्य की सरकारी खरीद एमएसपी पर की गई। चावल के कुल 11.84 करोड़ टन उत्पादन में से 5.14 करोड़ टन यानी 43 प्रतिशत एमएसपी पर सरकारी खरीद हुई। इसी प्रकार गेहूँ के 10.76 करोड़ टन उत्पादन में से 3.90 करोड़ टन यानी 36 प्रतिशत सरकारी खरीद हुई। गन्ने की फ़सल की भी लगभग 80 प्रतिशत खरीद सरकारी रेट पर हुई जिसका मूल्य लगभग 75,000 करोड़ रुपये था। इसी प्रकार कपास के कुल उत्पादन 3.55 करोड़ गांठों में से 1.05 करोड़ गांठों यानी लगभग 30 प्रतिशत की एमएसपी पर सरकारी खरीद हुई। दलहन और तिलहन की फ़सलों की भी एमएसपी पर कुछ मात्रा में सरकारी खरीद होती है।
अपने कुल उत्पादन विशेषकर खाद्यान्नों का किसान स्वयं भी बहुत बड़ी मात्रा में उपभोग कर लेते हैं जिससे सारा उत्पाद कभी भी बाज़ार में नहीं आता। अतः यदि किसान द्वारा बाज़ार में बेची गई मात्रा के सापेक्ष सरकारी खरीद का आकलन करें तो उपरोक्त सरकारी खरीद का प्रतिशत और अधिक बढ़ जाता है। इस प्रकार फ़सलों की सरकारी खरीद से करोड़ों किसान परिवार लाभान्वित होते हैं।
जिन फ़सलों की एमएसपी पर बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद होती है उन फ़सलों के दाम बाज़ार में भी संभले रहते हैं और निजी क्षेत्र के व्यापारी भी एमएसपी के आसपास ही दाम देने को मजबूर होते हैं। इस प्रकार एमएसपी पर सरकारी क्रय की व्यवस्था किसानों की जीवनरेखा है।
जिन लोगों का यह कहना है कि एमएसपी निजी क्षेत्र पर बाध्यकारी नहीं हो सकता उन्हें गन्ने की अर्थव्यवस्था को समझना चाहिए। गन्ने का रेट सरकार घोषित करती है और उसी रेट पर निजी चीनी मिलें किसानों से गन्ना खरीदती हैं। इसी प्रकार मज़दूरों का शोषण रोकने के लिए सरकार न्यूनतम मज़दूरी दर घोषित करती है। सरकार अपने राजस्व की सुरक्षा के लिए ज़मीनों का न्यूनतम बिक्री मूल्य व सेक्टर रेट घोषित करती है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहाँ जनहित या वर्गहित में सरकार सेवाओं या वस्तुओं का मूल्य निर्धारित या नियंत्रित करती है तो किसानों की आर्थिक सुरक्षा के लिए फ़सलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित क्यों नहीं किया जा सकता।
एमएसपी से खरीद की स्थिति
हमारे देश में लगभग 30 करोड़ टन खाद्यान्न का वार्षिक उत्पादन हो रहा है जिसमें 75 प्रतिशत केवल गेहूँ और चावल ही हैं। एमएसपी पर सरकारी खरीद भी मुख्यतः इन दो फ़सलों की ही होती है। किसान अपने परिवार के लिए खाद्यान्न रखने के बाद बाक़ी लगभग 20 करोड़ टन बाज़ार में बेच देता है। इसमें से लगभग 10 करोड़ टन सरकार खरीद लेती है, बाक़ी 10 करोड़ टन ही निजी व्यापारी खरीदते हैं। अब यदि यह मान लिया जाए कि निजी व्यापारी औसतन 5000 रुपये प्रति टन एमएसपी से नीचे मूल्य पर फ़सल खरीदते हैं तो एमएसपी बाध्यकारी होने पर उन्हें 50,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त चुकाने होंगे। इसी प्रकार एमएसपी वाली ग़ैर-खाद्यान्न फ़सलों को भी जोड़ दें तो भी यह राशि किसी भी सूरत में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा नहीं बैठती। यह राशि हमारी जीडीपी का केवल आधा प्रतिशत है। 30 लाख करोड़ रुपये की कृषि जीडीपी के सापेक्ष यह मात्र 3.33 प्रतिशत है।
पिछले साल कंपनियों की आयकर दर घटाने के एक निर्णय से ही सरकार को लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का घाटा और कंपनियों को यह लाभ हुआ है। इस तथ्य के प्रकाश में सरकार के लिए एमएसपी बाध्यकारी बनाने का निर्णय शायद कुछ आसान हो।
इससे सरकार को कोई घाटा नहीं होगा क्योंकि यह अतिरिक्त राशि सरकार को नहीं चुकानी है। कृषि जिंसों के व्यापार में लगे लाखों व्यापारियों और निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए भी यह बहुत बड़ी रक़म नहीं है। वास्तव में यह राशि किसानों का हक है जिसे अब तक निजी व्यापारी हजम करते रहे हैं। सरकार को चाहिए कि वह एमएसपी को निजी क्षेत्र में भी बाध्यकारी बनाने की किसानों की इस मुख्य मांग को तत्काल मान ले जिससे आंदोलनकारी किसान अपने घर लौट जाएँ।
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