लोकतंत्र की प्रहरी संस्था फ़्रीडम हाउस के आकलन के अनुसार पिछले साल दुनिया के 73 देशों में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ा है। इनमें दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका और सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत, दोनों शामिल हैं। इस साल लोकतंत्र के ह्रास की रफ़्तार और भी तेज़ हुई।
म्यानमार और सूडान में लोकतंत्र के लिए आंदोलन करने वालों को निर्वासन, यातना और मौत का सामना करना पड़ा। हांग-कांग की स्वायत्तता पर अंकुश लगाया गया। ताइवान के आसमान पर चीनी विमान मँडरा रहे हैं और रूसी सेनाएँ यूक्रेन के दरवाज़े पर दस्तक दे रही हैं।
यानी आप कह सकते हैं कि तानाशाही ताकतें लोकतंत्रों पर हावी होती जा रही हैं।
दूसरे नज़रिए से देखें तो लोकतंत्र का ठप्पा सत्ता की वैधानिकता और सुशासन का सर्वसम्मत पर्याय बन चुका है। तानाशाही देश भी तानाशाही की वकालत करने के बजाय अपनी व्यवस्था को लोकतांत्रिक सिद्ध करने की कोशिशें कर रहे हैं।
लोकतंत्र होने का दावा
एक पार्टी शासन वाले चीन ने दावा किया है कि चीन की पीपल्स कांग्रेस के चुनाव दुनिया के सबसे बड़े चुनाव होते हैं। इसलिए चीन दुनिया का सबसे बड़ा और स्थिर लोकतंत्र है जिसमें भारत जैसी घोर अराजकता और अस्थिरता नहीं है। सिंगापुर भी अपने-आप को लोकतंत्र मानता है। रूस का दावा है कि उसके यहाँ तो बहुदलीय लोकतंत्र है। ईरान भी बहुदलीय लोकतंत्र होने का दावा कर सकता है।
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यह लगातार पाँचवाँ साल है जिसमें लोकतंत्र की तरफ़ बढ़ने वाले देशों की तुलना में तानाशाही की तरफ़ बढ़ने वाले देशों की संख्या ज़्यादा रही है।
अमेरिका में है लोकतंत्र?
ऐसे में लोकतंत्र पर अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन का विचार बुरा नहीं था। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जिस तरह कुछ विवादास्पद देशों को बुलावा भेजा और कुछ को नहीं भेजा उसे लेकर सवाल उठने स्वाभाविक थे। लोकतंत्र के मंच पर अमेरिका के नेतृत्व के औचित्य पर भी सवाल उठना स्वाभाविक था क्योंकि एक के बाद एक अमेरिकी राज्य मतदान के अधिकारों पर अंकुश लगाते जा रहे हैं और पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले चुनाव में न केवल अपनी हार मानने से इंकार किया बल्कि सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण को रोकने की कोशिशें भी कीं।
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लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों को तीन लक्ष्यों पर ठोस वचन देने थे – तानाशाही प्रवृत्ति को रोकना, भ्रष्टाचार मिटाना और मानवाधिकारों की रक्षा करना। भारत की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन तीनों लक्ष्यों पर कुछ वचन देने या जिन बातों को लेकर भारत की आलोचना हो रही है उनपर कुछ कहने के बजाय भारत के जन-जन में बसी लोकतंत्र की भावना पर व्याख्यान दे डाला।
उन्होंने कहा कि भारत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने और प्रशासन के हर क्षेत्र में डिजिटल समधानों के ज़रिए पारदर्शिता लाने के काम में भारत की विशेषज्ञता को साझा करने के लिए तैयार है।
आलोचकों का कहना है कि लोकतंत्र के लिए केवल स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव ही काफ़ी नहीं हैं। उसके लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता, राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता और मीडिया की स्वतंत्रता जैसी और भी बहुत सी चीज़ें हैं जिनका होना ज़रूरी है।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का दावा तो सिंगापुर, चीन, ईरान और रूस जैसे देश भी कर सकते हैं जहाँ या तो एक ही दल है, या एक से ज़्यादा दल होने की सूरत में, चुनाव लड़ने के लिए किसी और ऊँची सत्ता की अनुमति ज़रूरी है, जैसे ईरान में शूरा-ए-निगहबान की।
सवाल उठता है कि बहुदलीय व्यवस्था और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग जैसी संस्था होने के बावजूद क्या भारत में सही मायने में लोकतंत्र है?
हाईकमान ही सर्वेसर्वा
पंचायती चुनावों को छोड़ दें, तो बाक़ी हर चुनाव में उम्मीदवारों का चयन पार्टियों का हाईकमान करता है। खानापूर्ति के लिए चाहे जो दिखा दें, पर ज़्यादातर नेता अपनी पार्टियों को ख़ानदानी जागीर या कुनबाशाही की तरह चलाते हैं। इसलिए हाईकमान का मतलब नेता, उसका कुनबा या कृपापात्र होते हैं। आपके इलाक़े के पार्टी उम्मीदवार का फ़ैसला करने में आपका कोई हाथ नहीं होता भले ही आप उस पार्टी के सदस्य हों।
पार्टियों का हाईकमान या कुनबाशाहियाँ जिन्हें खड़ा करती हैं, आपको उन्हीं में से किसी एक को चुनना पड़ता है। बहुत से लोग इसी से निराश होकर वोट डालने ही नहीं जाते।
अमेरिका, ब्रिटन और यूरोप में ऐसा नहीं है। यहाँ ब्लॉक स्तर के निकाय चुनावों से लेकर आमचुनाव और प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के चुनाव तक उम्मीदवारों के चयन में ब्लॉक और मोहल्ला स्तर के पार्टी सदस्यों की भूमिका होती है। ब्लॉक, ज़िला, प्रांत और संसदीय क्षेत्रों के उम्मीदवारों का चयन हमेशा पार्टी सदस्य करते हैं। सर्वोच्च नेता या पार्टी हाईकमान कोई दख़लअंदाज़ी नहीं करता। लोक और तंत्र के बीच का रिश्ता बना रहता है इसीलिए इसे लोकतंत्र कहा जाता है।
भारत की पार्टियों में व्याप्त हुई कुनबाशाही और अधिनायकवाद की वजह से लोक और तंत्र के बीच का यह रिश्ता टूट चुका है। इसलिए इसे सही अर्थों में लोकतंत्र कहा ही नहीं जा सकता।
यह सोलहवीं सदी की अंग्रेज़ी लॉर्डशाही जैसी है जिसमें ज़मींदार बैरन और लॉर्ड दर्जनों सांसदों के मालिक होते थे।
हैरत की बात है कि फ़्रीडम हाउस जैसी लोकतंत्र प्रहरी संस्थाओं ने अभी तक इस इतनी बड़ी कमी पर या तो विचार ही नहीं किया है या इसे नज़रअंदाज़ किया है। जब आप पार्टी सदस्य बनकर भी अपने इलाके के पार्टी उम्मीदवार के चयन में कोई भूमिका नहीं निभा सकते, तो फिर आपमें और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य में या ईरान की पार्टी के सदस्य में क्या अंतर हुआ?
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यदि कोई अंतर नहीं है तो फिर चीन की इस आलोचना को कैसे ग़लत ठहराया जा सकता है कि “चीनी पीपुल्स कांग्रेस की चुनाव प्रक्रिया भारत से बेहतर है क्योंकि उसमें भारत वाली अराजकता नहीं है।”
दिक़्क़त यह है कि चुनाव आयोग पार्टियों को दलगत लोकतंत्र और पारदर्शिता का उपदेश देने के अलावा कर भी क्या सकता है? रही भ्रष्टाचार की बात, तो यह अब एक विश्वव्यापी समस्या बन चुकी है। कहने को अमेरिका में जनता से चंदा माँग कर चुनाव लड़े जाते हैं। पर हर पार्टी जानती है कि चुनाव लड़ने और पार्टी चलाने के लिए चंदे से कहीं ज़्यादा पैसे की ज़रूरत पड़ती है जो अमीरों, उनकी कंपनियों और निगमों से लिया जाता है।
भारत में स्थिति और भी ख़राब है। चुनाव प्रचार में चुनाव आयोग की तय सीमा से कई गुना पैसा ख़र्च किया जाता है और वह अक्सर काले स्रोतों से आता है।
दलगत लोकतंत्र लाना होगा
जिस व्यवस्था की बुनियाद ही संदेहास्पद पैसे पर और कुनबाशाही या हाईकमान द्वारा थोपे गए उम्मीदवारों पर टिकी हो उससे आप सुधारों की कितनी उम्मीद रख सकते है, यह हम सब के लिए विचार का विषय है। भारत को यदि प्रशासन और राजनीतिक पार्टियों में तानाशाही और कुनबाशाही की प्रवृत्ति को रोकने के लिए गंभीरता से कुछ करना है। यदि भ्रष्टाचार मिटाने और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कुछ करना है तो सबसे पहले देश की पार्टियों के भीतर कुनबाशाही को हटा कर दलगत लोकतंत्र लाना होगा।
चुनाव प्रचार में होने वाले फ़िज़ूल के ख़र्च पर अंकुश लगाना होगा। सोशल मीडिया और मुख्यधारा का मीडिया घर-घर पहुँच चुका है। इसलिए अब सूचना क्रांति से पहले की रैलियों और पोस्टरबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं है।
लोगों को ला-ला कर मैदानों में जमा करने के बजाय उम्मीदवारों को घर-घर जाना चाहिए जिससे ख़र्च भी घटेगा और मतदाता और प्रत्याशी के बीच नाता भी कायम होगा। पर क्या भारत की राजनीतिक पार्टियाँ इसके लिए तैयार हैं?
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