दिल्ली की सरहदों पर चल रहे किसान आंदोलन के विरोधियों को ऐसे ही किसी लम्हे का इंतज़ार था। उन्हें बस एक चूक चाहिए थी जिसके आधार पर वे इस समूचे आंदोलन को ख़ारिज कर दें। मंगलवार की ट्रैक्टर परेड के दौरान कुछ जगहों पर उनकी हिंसा और उनके उत्पात ने यह बहाना मुहैया करा दिया। दो महीने से ज़्यादा समय से बिल्कुल शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे इस आंदोलन के दूध में जैसे एक मरी हुई छिपकली गिर गई और सारा दूध बेकार हो गया।
लेकिन ठीक से समझने की कोशिश करें कि 26 जनवरी को आख़िर क्या-क्या हुआ जो अस्वीकार्य और निंदनीय था और किन चीज़ों को उसकी आड़ में ख़ारिज या अनदेखा किया जा रहा है।
पहली जो अस्वीकार्य चीज़ थी, वह लाल क़िले पर एक धार्मिक झंडा लगाने की हरकत थी। किसानों ने लाल क़िले पर पहुँच कर अगर तिरंगा ही लहराया होता या अपने आंदोलन का झंडा लगाया होता तो शायद इतनी आपत्तिजनक बात नहीं होती, लेकिन एक धार्मिक ध्वज लगा कर उन्होंने उन सारे समूहों को सांसत में डाल दिया जो धर्मनिरपेक्षता और समानता के मूल्यों में भरोसा रखते हैं। अगर हम इसका बचाव करते हैं तो उन लोगों का विरोध कैसे कर सकते हैं जो भारतीय राष्ट्र राज्य की बुनियादी बुनावट को बदलने का मंसूबा रखते हुए रोज़ अपने धार्मिक प्रतीकों को किसी न किसी बहाने सार्वजनिक जीवन में थोप रहे हैं?
हम फिर राम मंदिर के नाम पर संविधान के शीर्षस्थ पदों की ओर से दिए जा रहे चंदे की आलोचना कैसे कर सकते हैं या इस पर एतराज़ कैसे कर सकते हैं कि 26 जनवरी की झाँकी में राम मंदिर का मॉडल भी प्रस्तुत किया गया? कल को कोई समूह लाल क़िले पर केसरिया झंडा फ़हरा आएगा तो भी क्या हम उसका बचाव करेंगे?
दरअसल, ऐसा करके किसान आंदोलन के इस भटके हुए समूह ने न सिर्फ़ दूसरों के लिए एक गली खोल दी है, अपनों के लिए भी एक वैचारिक संकट पैदा किया है।
दूसरी बात वह हिंसा है जो दिल्ली की सड़कों पर दिखी। लाल क़िले में पुलिसवालों की पिटाई का दृश्य वाक़ई दारुण था। उसे देखते हुए किसी भी आंदोलन से सहानुभूति ख़त्म हो जाती है। इसी तरह दिल्ली की सड़कों पर तलवार लहराते घोड़े पर घूमते निहंगों और बेक़ाबू दौड़ते ट्रैक्टरों का दृश्य दहशत पैदा करने वाला था। ऐसी हिंसा के साथ आप किसी लोकतांत्रिक आंदोलन का दावा नहीं कर सकते।
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दरअसल, इस हिंसा के दो और नतीजे हुए। किसानों के साथ जो हिंसा हुई या आने वाले दिनों में हो सकती है, उस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा। किसानों के ट्रैक्टर भी पुलिसवालों ने तोड़े हैं लेकिन उनकी ख़बर अब नहीं ली जा रही। दूसरी बात यह कि इस हिंसा की वजह से किसान आंदोलन को जो नैतिक साख हासिल थी और उसकी सांगठनिक ताक़त से बड़ी थी, वह कुछ बिखर गई है। किसान आंदोलन से जुड़े कुछ संगठन अभी ही उससे अलग होने का एलान कर चुके हैं। यह ख़बर भी आ रही थी कि दिल्ली से बाहर चल रहे धरनों को अब स्थानीय लोगों का समर्थन घटा है।
पुलिस का रवैया
जबकि सही स्थिति यह है कि दिल्ली में हज़ारों ट्रैक्टरों और लाखों लोगों के घुस आने के बावजूद हालात लगभग क़ाबू में रहे। यह उचित ही कहा जा रहा है कि इस रैली का सामना करते हुए दिल्ली पुलिस ने काफ़ी संयम बरता, लेकिन सच्चाई यह भी है कि किसान संगठनों ने भी वह लीक पार नहीं की जो कई आंदोलन पार करते रहे हैं। दिल्ली और देश ने पहले बहुत सारे ऐसे आंदोलन देखे हैं जो बुरी तरह हिंसक साबित हुए हैं। ज़्यादा दिन नहीं हुए जब वकीलों के साथ एक पार्किंग विवाद में हुआ प्रदर्शन कई सीमाएँ तोड़ता नज़र आया था। तब पुलिस की महिला अधिकारी के साथ हुई बदसलूकी सुर्खियों में रही थी। वकीलों से इंसाफ़ हासिल करने के लिए पुलिसवालों को प्रदर्शन करना पड़ गया था। कुछ अरसा पहले आरक्षण को लेकर जाट आंदोलन का खौफ़ याद किया जा सकता है।
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ऐसे प्रदर्शनों के मुक़ाबले किसानों का आंदोलन बेहद शांत रहा। लेकिन क्या इस दलील से किसान आंदोलन की साख लौट आएगी? और क्या यह सिर्फ़ साख का मामला है? यह सवाल कई लोग पूछ रहे हैं कि आख़िर किसान आंदोलन कहाँ जा रहा है? मान लें कि सरकार तीनों क़ानूनों को वापस ले लेती है।
इसके बाद क्या होगा? क्या किसानों की मौजूदा स्थिति बदल जाएगी? क्या आंदोलन कर रहे किसान यह मानते हैं कि इन तीन क़ानूनों की वापसी करा कर ही वे अपने लक्ष्य पूरे कर लेंगे?
इन सवालों का मक़सद यह साबित करना नहीं है कि किसान आंदोलन बेमानी हो चुका है बल्कि इस बात की ओर ध्यान खींचना है कि अगर उसने अपने कहीं और व्यापक लक्ष्य निर्धारित नहीं किए तो एक सीमित लक्ष्य हासिल कर विसर्जित हो जाने की नियति उसे झेलनी पड़ेगी। दो महीनों से ज़्यादा समय में यह जितना बड़ा आंदोलन हो चला है, उस ढंग से इसके लक्ष्य भी बड़े होने चाहिए। तीन क़ानूनों में संशोधन या उस पर अमल टालने के सरकार के प्रस्ताव को उसने ख़ारिज कर दिया है तो इसलिए कि मामला तीन क़ानूनों का नहीं, बल्कि उस नीयत का है जिसकी वजह से ये क़ानून लाए गए हैं।
इस लिहाज से ये तीन क़ानून एक तरह के प्रतीक हैं- सरकार की बदनीयती के भी और किसानों की बेबसी के भी। लेकिन क्या इन्हें वापस करा देने से ही किसानों और किसानी के संकट टल जाएँगे? भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजी के बढ़ते वर्चस्व और खेती के सिकुड़ते आधार का विकल्प क्या होगा? कृषि में नया पूंजीनिवेश कहाँ से होगा? क्या नए और बड़े पूंजीनिवेश के बिना भी कृषि-क्षेत्र की स्थिति सुधारी जा सकती है? छोटे और सीमान्त किसानों का जो वैध और फ़िलहाल स्थगित प्रश्न है, वह भी सिर उठाए खड़ा है और उनके साथ खेतिहर मज़दूरों के भविष्य का भी सवाल है। बल्कि खेत और ज़मीन से उखड़े मायूस और मजबूर किसान जिस तरह दिहाड़ी के मज़दूरों में बदलते चले गए हैं, उसे देखें तो अंततः समस्या शहरी श्रमिकों की भी है जिनके वजूद को असंगठित क्षेत्र जैसा नाम देकर उनकी समस्या का एक तरह का साधारणीकरण कर दिया जाता है।
किसानों के हालात
लेकिन इन सारे सवालों के जवाब हम किसान आंदोलन से क्यों लें? क़ायदे से यह पूरे भारतीय राष्ट्र राज्य और अर्थतंत्र की विफलता है जिसने भूमंडलीकरण की आंधी में अपने नागरिकों के बहुत बड़े हिस्से को बिल्कुल तिनकों की तरह उड़ जाने को छोड़ दिया है। यह उसकी नाकामी है कि किसान इन तमाम वर्षों में खुदकुशी करते रहे हैं और मज़दूर शहरों में बीमारी और अभाव की मौत मरते रहे हैं। कमाल यह है कि जिन लोगों ने इन छोटे किसानों और ग़रीब मज़दूरों की कभी परवाह नहीं की, वे अब उनका हवाला देकर दिल्ली की सरहदों पर चल रहे किसान आंदोलन को अमीर किसानों का आंदोलन बताते हुए ग़रीब किसानों का खैरख़्वाह दिखने की कोशिश कर रहे हैं।
दरअसल, किसान आंदोलन की सबसे बड़ी कामयाबी यही है। उसके पास सारे प्रश्नों के उत्तर भले न हों, लेकिन उसने बहुत सारे प्रश्नों की तरफ़ ध्यान ज़रूर खींच दिया है।
तीन क़ानूनों की वापसी दरअसल भूमंडलीकरण के एजेंडे से वापसी है। इस वापसी के लिए न सरकार तैयार होगी न इस देश का मध्यवर्ग- और बहुत संभव है कि बहुत सारे किसान भी तैयार न हों। आख़िर इसके कई फ़ायदे उनके जीवन में तरह-तरह की चमक-दमक के तौर पर दिख रहे हैं। इसीलिए यह सवाल उठ रहा है कि आगे किसान क्या करें और उनका आंदोलन कैसे अपनी साख वापस हासिल करे।
क्योंकि यह फिर दुहराने की ज़रूरत है कि अगर यह आंदोलन अपने मुद्दों से बड़ा हो गया है तो इसलिए कि उसने एक लोकतांत्रिक मिसाल पेश की है- ऐसी मिसाल जिसके आगे सरकारें बल प्रयोग करने से डरती हैं और असहाय दिखाई पड़ती हैं।
अगर 26 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने संयम दिखाया तो उसके पीछे असली वजह किसान आंदोलन द्वारा हासिल यह साख भी थी। सरकार ने पुलिस के हाथ बांध रखे थे क्योंकि उसे डर था कि अगर इसे जबरन कुचला गया तो पूरे देश में सरकार के विरुद्ध माहौल बनेगा। वरना यही पुलिस है जिसने ज़्यादा दिन नहीं हुए, जामिया में लाठियाँ बरसाई थीं और यही पुलिस है जो दिल्ली दंगों की जाँच इस तरह कर रही है जैसे नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन करने वालों को सज़ा दे रही हो।
तो किसान आंदोलन यह भी साबित करता है कि उसने दूसरी संस्थाओं को लोकतांत्रिक संयम बरतने के लिए मजबूर किया है। यह संयम अगर उसके अपने लोगों से टूटा तो वाक़ई यह पश्चाताप और चिंता का विषय है। यह संदेह निराधार नहीं है कि किसान आंदोलन में ऐसे अराजक तत्व जान-बूझ कर दाखिल होने दिए गए जो इस पर कालिख पोत सकें और जिस दीप सिद्धू गुट पर इसका आरोप लगाया जा रहा है, उसकी बीजेपी नेताओं से क़रीबी इस संदेह को कुछ और मज़बूत करती है।
बहरहाल, अगर यह साज़िश भी थी तो किसान आंदोलन ख़ुद को इससे बरी नहीं कर सकता। लेकिन इस एक चूक पर पूरे आंदोलन को कुरबान होने नहीं दिया जा सकता।
दरअसल, किसान आंदोलन से जुड़े नेताओं के सामने असली इम्तिहान की घड़ी अब है। उन्हें फिर से आंदोलन को उसकी पुरानी नैतिक ताक़त लौटानी होगी। उन्हें फिर से लोकतांत्रिक आंदोलन के अपने नए व्याकरण पर भरोसा करना होगा। उन्हें फिर से अपने मुद्दों को भी निर्धारित करना होगा ताकि लोगों को यह सिर्फ़ तीन क़ानूनों की वापसी का नहीं, ज़्यादा बड़े मूल्यों का आंदोलन लगे। यह किसान आंदोलन के लिए ही नहीं, इस देश के लिए भी ज़रूरी है।
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