लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव ही नहीं होता। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कसौटी यह है कि उसमें मानवाधिकारों की कितनी हिफ़ाज़त और इज़्ज़त होती है। इस मामले में भारतीय लोकतंत्र का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। हमारे यहाँ पुलिस का रवैया लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के तकाजों से क़तई मेल नहीं खाता है। आम आदमी पुलिस की मौजूदगी में अपने को सुरक्षित और निश्चिंत महसूस करने के बजाय उसे देखकर ही ख़ौफ़ खाता है। फ़र्ज़ी मामलों में किसी बेगुनाह को फँसाने और पूछताछ के नाम पर अमानवीय यातना देने की घटनाएँ आमतौर पर पुलिस की कार्यप्रणाली का अहम हिस्सा बनी हुई हैं। फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में होने वाली हत्याओं के साथ ही हिरासत में होने वाली मौतें इस सिलसिले की सबसे क्रूर कड़ियाँ हैं।

हैदराबाद एनकाउंटर को जिस तरह समाज के विभिन्न तबक़ों का व्यापक समर्थन मिला, वह दरअसल एक तरह से हमारी न्याय व्यवस्था पर कठोर टिप्पणी है। इसका क्या होगा असर?
देश में फ़र्ज़ी एनकाउंटर में किसी को भी मार दिए जाने का सिलसिला क़रीब चार दशक पुराना है। आतंकवाद के दिनों में पंजाब से शुरू हुए इस सिलसिले ने बहुत जल्दी अखिल भारतीय स्वरूप धारण कर लिया। पिछले दिनों हैदराबाद में तेलंगाना पुलिस द्वारा बलात्कार और हत्या के चार कथित आरोपियों को एक एनकाउंटर में मार गिराए जाने की घटना ताज़ा मिसाल है।