बचपन में वह बहुत सीधे-साधे थे। परिवार की लड़कियों के बीच खेल कर उनका बचपन बीता। इसका असर यह हुआ कि उनके बोलने का लहज़ा बहुत शालीन और मिज़ाज शर्मीला हो गया। यह बच्चा जब लड़का बना तब भी उसमें पुरुषों जैसी आक्रामकता और बेबाक़ी नहीं आयी। और कमाल यह है कि कम बोलने वाला और प्रेम विषय पर शायरी की शुरुआत करने वाला वह शख्स ऐसा क्रांतिकारी शायर बना जिसके मरने के 35 साल बाद भी उसकी शायरी जीवन के रणक्षेत्र में कठिन और विपरीत समय में सपनों और इंसान के आत्मसम्मान को बचाए रखने की प्रेरणा दे रही है।
फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे' हिंदू विरोधी है या हुक्मरान डरते हैं?
- विचार
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- 3 Jan, 2020

दो घटनाओं से फ़ैज़ की शायरी के असर को समझने में और मदद मिल सकती है। 1979 में उनकी लिखी नज़्म ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ को गायिका इक़बाल बानो ने एक सार्वजनिक समारोह में गाया तो लोगों में इतनी उत्तेजना फैल गयी कि जियाउल हक प्रशासन को वह कार्यक्रम रुकवाना पड़ा। और चालीस साल बाद दिल्ली में नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान जब छात्रों ने यह नज़्म गायी तो इस नज़्म को हिंदू-विरोधी क़रार दिया गया...।
यह शायर हैं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़। 1911 में पाकिस्तान के सियालकोट में जन्मे फ़ैज़ हालाँकि पाकिस्तान के नागरिक थे लेकिन उनके देश से अधिक उनके चाहने वाले भारत में हैं। फ़ैज़ एक सामंतवादी माहौल में पले-बढ़े लेकिन जब पिता का साया सिर से उठा तो पता चला कि पिता जितनी संपत्ति छोड़ कर गए उससे ज़्यादा क़र्ज़ भी छोड़ा। यहीं से जीवन की वास्तविकताओं से उनकी मुठभेड़ शुरू हुई।