पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व
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बाबूलाल मरांडी
बीजेपी - धनवार
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खेती-किसानी, व्यापार, उद्योग अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों से आ रही तमाम निराशाजनक खबरों और आम आदमी के जीवन में छायी तरह-तरह की दुश्वारियों के बीच सरकार की ओर से आंकड़ों के जरिए अर्थव्यवस्था की चमकदार तस्वीर पेश की जा रही है। महंगाई अब पूरी तरह लूट में तब्दील हो चुकी है और नग्न बाजारवाद का बेशर्म प्रदर्शन हो रहा है। विश्व बाजार में भारतीय रुपए की हैसियत गिरने के रोजाना नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। देश का विदेशी मुद्रा भंडार लगातार खाली होता जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय हंगर इंडेक्स, हैपीनेस इंडेक्स, पेंशन इंडेक्स आदि में भी भारत शर्मनाक रूप से नीचे जा चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस पूरे सूरत ए हाल से बेपरवाह होकर धार्मिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण का मंत्रोच्चार करते हुए धार्मिक पर्यटन में व्यस्त हैं।
बाजार की बड़ी ताकतें, समाज का खाया-अघाया तबका, सामाजिक सरोकारों से पूरी तरह कट कर मुनाफाखोरी की लत का शिकार हो चुका मीडिया और समूचा सत्ता प्रतिष्ठान, सब मिलकर पूरी मक्कारी के साथ माहौल यही बना रहे हैं कि देश में सब कुछ सामान्य है और लोग धूमधाम से दीपावली मना रहे हैं।
ज्यादा सच तो यह आख्यान प्रतीत होता है कि चौदह वर्ष का वनवास काटने और लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद राम के अयोध्या लौटने पर अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था और खुशियां मनाई थी। तभी से दीपावली मनाने की परंपरा शुरू हुई। इस लिहाज से यह सुशासन कायम होने का उत्सव है। भारत में सुशासन की कल्पना राम-राज्य से जुड़ी रही है। लेकिन हमारे देश ने इतने लंबे समय तक सुशासन ही नहीं, शासन का भी ऐसा नितांत अभाव देखा है कि राम-राज्य की कसक उसके अंतर्मन में बैठ गई है।
अनैतिक साधनों से अर्जित किया गया धन जीवन में अभिशाप ही पैदा करता है। इसकी पुष्टि हमारे देश के मौजूदा हालात देखकर भी होती है। देश ने विदेशी दासता से आजाद होते ही धन की उपासना शुरू कर दी थी। देशी शासकों ने देशवासियों को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए तरह-तरह के यत्न शुरू किए। पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जाने लगी। बड़े-बड़े कल-कारखाने लगाए गए। जीवनदायिनी नदियों का प्रवाह रोक कर या मोड़ कर बड़े-बड़े बांध बनाए गए। हरित क्रांति के जरिए देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना। आर्थिक असमानता दूर करने के लिए जहां जमींदारी प्रथा खत्म की गई तो वहीं सामाजिक गैरबराबरी खत्म करने के लिए दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों को विशेष अवसर दिए गए। स्पष्ट तौर पर यह उपासना समाजवादी संपन्नता की थी।
लेकिन चूंकि इस संपन्नता के लिए अपनाए गए तौर-तरीके कतई समाजवादी नहीं थे, इसलिए गरीबी के विशाल हिन्द महासागर में समृद्धि के कुछ टापू ही उभर पाए। देश में पिछले तीन दशक से यानी जब से नव उदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू हुई है, तब से सरकारों की ओर से आए दिन आंकडों की हेराफ़ेरी के सहारे देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है। आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को भरपेट भोजन तक मयस्सर नहीं है। हमारे लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं। वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 116 देशों में 107 वां है। लेकिन इसके बावजूद ढींगे हांकी जा रही हैं कि भारत तेजी से दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है।
भारतीय आर्थिक दर्शन और जीवन पद्धति के सर्वथा प्रतिकूल 'पूंजी ही जीवन का अभीष्ट है' के अमूर्त दर्शन पर आधारित नव उदारीकरण की अर्थव्यवस्था को लागू हुए ढाई दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है और तब से लेकर आज तक हम एकाग्रभाव से बाजारवाद की ही पूजा-अर्चना कर रहे हैं। लक्ष्मी अब लोक की देवी नहीं, बल्कि ग्लोबल प्रतिमा बन गई हैं। उसकी पूजा में अब लोक-जीवन को संपन्न बनाने की इच्छा कम और खुद को समृद्ध बनाने की लालसा ज्यादा व्यक्त की जाती है। डिजायनों और ब्रांडों के बोलबाले ने मिट्टी की लक्ष्मी प्रतिमाओं और कुम्हार के कलाकार हाथों से ढले दीयों को भी डिजायनर बना दिया है। डिजायनर दीयों के साथ ही ब्रांडेड मोमबत्तियां और मोम के दीयों का भी चलन बढ़ गया है। पारंपरिक मिठाइयों की जगह अब ब्रांडेड मिठाइयों और मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चॉकलेटों ने ले ली है।
दीपावली पर उपहारों और मिठाइयों के आदान-प्रदान का चलन पुराना है लेकिन पहले उनमें गहरी आत्मीयता होती थी। अब जिन महंगे उपहारों और मिठाइयों का लेन-देन होता है उनमें से आत्मीयता और मिठास का पूरी तरह लोप हो गया है और उनकी जगह ले ली है दिखावे और स्वार्थ ने। यानी अब राजनीति के साथ-साथ हमारी संस्कृति और सामाजिकता भी बाजार के रंग में रंग गई है।
निस्संदेह बाजारवाद से देश में समृद्धि का एक नया वातावरण निर्मित हुआ है। महानगरों में एक बड़े वर्ग के बीच हमेशा उत्सव का माहौल रहता है। लेकिन उनके इस उत्सव में न तो बहुत ज्यादा सामाजिकता और परस्पर आत्मीयता होती है और न ही इसके पीछे किसी प्रकार की कलात्मकता। उसमें जो कुछ होता है, उसे भोग-विलास या आमोद-प्रमोद का फूहड़ और बेकाबू वातावरण ही कह सकते हैं।
यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो, कोई खास हर्ज नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि 'यथा राजा-तथा प्रजा' की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने 'ऋणं कृत्वा, घृतम्पीवेत' की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछा कर अपने खजाने खोल रखे हैं। लोग इन महंगी ब्याज दरों वाले कर्ज और क्रेडिट कार्डों की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन खरीद रहे हैं। विभिन्न कंपनियों के शोरूमों से निकलकर रोजाना सड़कों पर आ रहीं लगभग पांच हजार कारों और शान-ओ-शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिग मॉल्स पर लगने वाली भीड़ देखकर भी इस वाचाल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
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