अश्वेत और ग़ैर गोरे समाजों का अमेरिकी पुलिस एवं न्याय व्यवस्था पर भरोसा इतना कम है कि वे हमेशा उसको लेकर सशंकित रहते हैं। उनके अंदर यह खटका हमेशा बना रहता है कि गोरों के प्रभुत्व वाली और ग़ैर गोरों के प्रति नफ़रत तथा हिंसा से सराबोर व्यवस्था उन्हें इंसाफ़ देने की राह में हज़ार अड़चनें खड़ी करेगी और अपराधी बच निकलेंगे। वे दूध के जले हैं इसलिए छाछ भी फूँक-फूँक कर पीते हैं।
यही वज़ह है कि जॉर्ज फ्लॉयड के मामले में भी वे पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे कि उन्हें न्याय मिल ही जाएगा, जबकि यह केस ऐसा था कि कोई भी जज या जूरी आँख मूँदकर फ़ैसला कर सकता था। फ्लॉयड की हत्या के तमाम सबूत मौजूद थे। नौ मिनट तक जिस तरह से उनकी गर्दन को दबाकर गोरे पुलिस अधिकारी डेरेक शॉवेन ने साँस रोक दी थी, इसका वायरल वीडियो पूरी दुनिया ने देखा था।
'आई कान्ट ब्रीद'
उन नौ मिनटों में फ्लॉयड ने बीस बार कहा था कि वह साँस नहीं ले पा रहा है। उसने अपनी माँ की कसम भी खाई थी। वहाँ मौजूद लोगों ने भी पुलिस से उसे छोड़ देने के लिए कहा था। यानी कई प्रत्यक्षदर्शी भी मौजूद थे।
फिर फ्लॉयड की मौत के बाद पूरे अमेरिका में ज़बरदस्त आंदोलन छिड़ गया था, जिसकी गूँज पूरी दुनिया में सुनाई दी थी और जो आज भी जारी है। इस सबके बावजूद लोग आश्वस्त नहीं थे क्योंकि सैकड़ों वर्षों से जारी रंगभेद कभी भी अपना रंग दिखा सकता था।
फ्लॉयड का मामला इसलिए एक टेस्ट केस बन गया था। सबकी नज़रें जूरी पर लगी हुई थीं कि तमाम सबूत और गवाह होने के बावजूद इस बार एक अश्वेत को न्याय मिल पाएगा या नहीं।
फ्लॉयड के पक्ष में आंदोलन करने वाले अंदर से भरे बैठे थे और अगर जूरी शॉवेन को दोषी न करार देती तो अमेरिकी समाज में बड़ा बवाल खड़ा हो सकता था, हिंसा और आग़जनी हो सकती थी।
यह सही है कि लगभग साल भर बाद जॉर्ज फ्लॉयड के हत्यारे पुलिस अफ़सर डेरेक शॉवेन को सज़ा मिलने से अमेरिका के अश्वेत ही नहीं, बल्कि वे सब भी खुश हैं जो भेदभावपूर्ण व्यवस्था का ख़ात्मा चाहते हैं।
'ब्लैक लाइव्स मैटर'
इनमें नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता और 'ब्लैक लाइव्स मैटर' आंदोलन से जुड़ी बहुरंगी आबादी से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, उपराष्ट्रपति कमला हैरिस, तमाम जानी-मानी हस्तियाँ तक शामिल हैं। यहाँ तक कि पुलिस का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था तक ने जूरी को उसके फ़ैसले के लिए धन्यवाद दिया है।
फ्लॉयड केस के इस फ़ैसले को नागरिक अधिकारों और नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ाई की दिशा में एक महत्वपूर्ण मुकाम माना जा रहा है। इसकी तुलना पिछली सदी के साठ के दशक में चले नागरिक अधिकार आंदोलन और उसके हासिल से भी की जा रही है। लेकिन आंदोलनकारी खुश होने के बावजूद चिंतित और आशंकित भी हैं। ऐसा क्यों है?
अश्वेतों को न्याय!
इसकी कई वज़हें हैं। पहली तो यह कि आंदोलन विरोधी इस मामले का इस्तेमाल एक मिसाल के तौर पर कर सकते हैं। वे कह सकते है कि देखो अमेरिकी न्याय व्यवस्था में अश्वेत को न्याय मिल सकता है, जबकि यह एक आंशिक और क्षणिक सचाई है। फ्लॉयड का मामला जैसा कि हमने ऊपर कहा है बहुत स्पष्ट और सीधा था इसलिए उसमें न्याय की उम्मीद भी उतनी प्रबल थी। जूरी सबूतों और गवाहों की अनदेखी करने की स्थिति में ही नहीं थी।
इसके विपरीत सैकड़ों ऐसे मामले गिनाए जा सकते हैं, जिनमें ठोस सबूत न होने का बहाना करके गोरे अपराधियों को छोड़ दिया गया। कभी पुलिस ने सहयोग नहीं किया, कभी जाँच एजंसियाँ पक्षपात कर गईं तो कभी जूरी अपराधियों के पक्ष में खड़ी दिखाई दी। ऐसे में फ्लॉयड मामले के अपवाद को मिसाल बनाकर भेदभावों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन को भोथरा करने की कोशिश की जा सकती है।
फ्लॉयड मामले में उनका हत्यारा पुलिस अधिकारी डेरेक शॉवेन ही नहीं, पूरा गोरा अमेरिका कठघरे में था, वह गोरा अमेरिका जिसने 400 सालों से अश्वेतों को हिंसक तौर-तरीकों से गुलाम बनाकर रखा और जो अभी भी बहुत कम बदला है।
निशाने पर अश्वेत अब भी?
इसीलिए हम पाते है कि फ्लॉयड मामले पर जब फैसला सुनाया जा रहा था तो मिनेसोटा में एक और गोरे पुलिस अधिकारी ने बीस साल के नौजवान डांट राइट को मार डाला।
वैसे डेरेक शॉवेन को भले ही फ्लॉयड के मामले में अपराधी करार दे दिया गया हो, मगर उसका रिकॉर्ड बहुत ख़राब था और उसे पहले ही दंडित कर दिया जाना चाहिए था। अपने 19 साल के करियर मे उसने दर्ज़नों नस्लवादी वारदातों को अंजाम दिया था और उनकी शिकायतें भी मौजूद थीं, मगर कुछ भी नहीं हुआ।
यही नहीं, फ्लॉयड मामले पर साल भर चली सुनवाई के दौरान भी पूरे अमेरिका में हर दिन पुलिस के हाथों तीन लोगों की हत्याएं होती रहीं, जिनमें से आधे से अधिक या तो अश्वेत थे या फिर लैटिनो मूल के लोग।
ज़ाहिर है कि फ्लॉयड को इंसाफ़ मिलने से चीज़ें बिलकुल भी बदलने वाली नहीं हैं। जातीय नरसंहार और दास-प्रथा पर खड़ा अमेरिका इस एक फ़ैसले से बदल जाएगा ये सोचना भी ग़लत है।
नस्लवादी भय
गोरे अमरीकियों के अंदर नस्लवाद पर आधारित एक काल्पनिक भय बैठा हुआ है, जिसकी वज़ह से वे दूसरे रंगों के लोगों को ख़तरनाक़ मानते हैं और बगैर सोचे-समझे उन्हें दंड देने या मारने पर उतारू हो जाते हैं। उनकी इस मनोदशा की वज़ह से अश्वेत और लेटिनो हमेशा इस भय से ग्रस्त रहते हैं कि पता नहीं कब उनकी किस हरकत पर वे उतेजित होकर उनकी जान लेने पर आमादा हो जाएं।
इसका असर उनके पूरे जीवन पर पड़ा है। इसीलिए वे मोबाइल तक ऐसा रंग-बिरंगा खरीदते हैं, ताकि पुलिस वालों को वह पिस्तौल जैसा न लगे और वे उन पर गोली चला दें। वे महँगी कारें नहीं खरीदते, क्योंकि पुलिस वाले सोचेंगे कि ज़रूर उन्होंने चुराई होगी। गोरों के अंदर श्रेष्ठताबोध भी जड़ें जमाए बैठा है जो दूसरे समाजों को हीनता के साथ देखता है और ऐसे में जो व्यवहार वे करते हैं वह ग़ैर गोरों के लिए बेहद घातक साबित हो रहा है।
भारत में इसे ब्राह्रमणवाद के संदर्भ में समझा जा सकता है। ऊँची जातियों का श्रेष्ठतावाद कभी इस बात को पचा नहीं पाता कि दलित-आदिवासी उनकी दासता से मुक्त होकर बेहतर जीवन जिएं।
अमेरिकी ब्राह्मणवाद!
इसीलिए सवर्णवादी उनकी तरक्की पर चिढ़ते हैं, उन्हें दूसरे तरीक़ों से निशाना बनाते हैं। उनकी योग्यता और प्रतिभा को कम कर आँकते हैं, उन्हें बदनाम करते हैं। यही लोग व्यवस्था में ऊपर बैठे हैं और उनके साथ भेदभाव करते हैं, उनको इंसाफ़ मिलने मे रोड़ा लगाते हैं। उनके इस रवैये की वज़ह से अधिकांश दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक बचाव की मुद्रा में रहते हैं। सवर्णों के सामने उन्हें विनम्र बने रहना पड़ता है।
बहरहाल, भेदभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे आंदोलनकारियों की चिंता ये भी है कि कहीं फ्लॉयड मामले में अपराधी पुलिस अधिकारी को सज़ा मिलने से आंदोलन कमज़ोर न हो जाए। ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन का मुख्य मक़सद व्यवस्था में परिवर्तन का था। डिफंडिंग (पुलिस पर किए जाने वाले खर्च में कटौती) और पुलिस सुधार जैसे मुद्दे इसीलिए उसके केंद्र में आ गए थे। अब सवाल ये है कि उनका क्या होगा?
क्या बदलेगी अमेरिकी राजनीति?
फ्लॉयड की हत्या के समय डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में नहीं थी और उसने आंदोलन को खुलकर समर्थन दिया था। लेकिन अब उसकी सरकार है और उसके सामने चुनौती है कि वह उन उपायों को कैसे लागू करती है। अभी तक तो जो बाइडेन मोर्चे पर डटे हुए दिख रहे हैं।
फ्लॉयड मामले पर फ़ैसला आने के बाद जो बाइडन ने वादा किया कि परिवर्तन होने जा रहा है, लेकिन रिपब्लिकन पार्टी का रुख़ भी उतना ही सख़्त है। उल्टे वह तो पुलिस व्यवस्था को और भी कड़ा बनाना चाहती है ताकि ब्लैक लाइव्स मैटर जैसे आंदोलनों को रोका जा सके।
अब क्या होगा?
राष्ट्रपति पद पर रहते हुए डोनल्ड ट्रम्प ने आंदोलन को कुचलने की हर तरकीब आज़माई थी। उन्होंने आंदोलन को बदनाम करने, उसको लेकर भ्रम पैदा करने, गोरों को डराने तथा नेशनल गार्ड के ज़रिए दबाने का कोई हथकंडा बाक़ी नहीं रखा था (भारत में सीएए और कृषि कानून विरोधी आंदोलन के साथ यही हुआ, हो रहा है)।
अब वे सत्ता में नहीं हैं, मगर उनकी पार्टी उनके ही नक्शे क़दम पर चल रही है। इसलिए डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए किसी भी सुधार का रास्ता आसान नहीं होगा।
आंदोलनकारियों की एक चिंता ये भी है कि जिन राज्यों में रिपब्लिक पार्टी सत्ता पर काबिज़ है, वहाँ ऐसे नियम-कानून बनाए जा रहे हैं, जिनसे आंदोलनों पर पाबंदी लगाई जा सके। यानी तब पुलिस ज़्यादितियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना मुश्किल हो जाएगा (भारत में बीजेपी की राज्य सरकारें एनएसए और यूएपीए का मनमाना इस्तेमाल आंदोलनों को रोकने के लिए कर रही हैं)।
नस्लवाद की हौसला आफ़जाई!
यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ट्रम्प ने अपने शासन के दौरान गोरे नस्लवादी संगठनों की ख़ूब हौसला अफ़जाई की थी। ये हथियारबंद अतिवादी संगठन कभी हिंसा पर उतारू हो सकते हैं, जो कि अमेरिका को गृहयुद्ध में झोंक सकते हैं। दक्षिणपंथी राजनीति के इस दौर में बाइडेन के लिए इन पर काबू पाना बहुत मुश्किल साबित होगा।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि फ्लॉयड को मिला इंसाफ़ दरअसल इंसाफ़ की हल्की सी किरण भर है। बर्नी सैंडर्स ने ठीक ही कहा है कि इस फ़ैसले ने डेरेक शॉवेन की जवाबदेही तय की है, फ्लॉयड को न्याय नहीं दिया है। फ्लॉयड को न्याय तो तभी मिलेगा जब अमेरिकी पुलिस एवं कानून व्यवस्था नस्लवाद से मुक्त होगी।
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