भारत भ्रष्टाचार की नयी ऊंचाइयाँ छूने लगा है। मुख्य न्यायाधीश के ठीक बाद की वरीयता वाले न्यायाधीश जस्टिस एन. वी. रमन्ना, जो कि सीजेआई बनने के क्रम में सबसे आगे हैं, के ख़िलाफ़ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई. एस. जगनमोहन रेड्डी ने लिखित आरोप लगाया है कि वह अपने प्रभाव से प्रदेश की हाई कोर्ट में भ्रष्टाचार के मामलों में बेंच बदलवा रहे हैं, मनमर्जी से फैसले करवा रहे हैं और उनकी दो बेटियों ने अमरावती में राज्य की राजधानी बनने की घोषणा से पहले ही बड़े पैमाने पर दलितों की ज़मीन को गैर-कानूनी ढंग से ख़रीदा।
उधर, बीजेपी शासित राज्य कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के नाती शशिधर मार्डी पर आरोप है कि नाना के सीएम बनने के मात्र 15 दिनों में वह पांच साल से लगभग बंद एक कंपनी के डायरेक्टर बन गए और उनकी कंपनी को अचानक करोड़ों की रकम कुछ ऐसी फर्जी कंपनियों द्वारा दी गयी जिनका संबंध उस कंपनी से है जो राज्य में 600 करोड़ रुपये की लागत से सरकारी आवास बना रही है।
अगर सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई के बाद सबसे वरिष्ठ जज पर एक मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के ऐसे गंभीर आरोप लगाये तो लगता है कि शायद सिस्टम हाथ से निकल चुका है।
जब चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगाया कि महत्वपूर्ण केसों को एक खास जज की बेंच को सौंपा जा रहा है तो वह “क्रूड” (भौंडा और मन को झकझोरने वाला) नहीं था लेकिन सीएम का आठ पेज का शिकायत-पत्र, जो मीडिया को दिया गया, एक “चीखता दस्तावेज” है।
कोढ़ है पे-ऑफ़ सिस्टम
समाजशास्त्रियों के अनुसार, दुनिया में भ्रष्टाचार दो तरह के होते हैं- शेकडाउन सिस्टम और पे-ऑफ़ सिस्टम। पहले में सत्ता/कानून का भय दिखा कर अधिकारी भयादोहन करता है, जैसे- दारोगा का किसी को अपराध में फंसा कर पैसे लेना, जबकि दूसरे में इंजीनियर-ठेकेदार एक सहमति बना कर जनता के पैसे से होने वाले विकास कार्यों में लूट करते हैं जैसे पुल में कम सीमेंट लगाना। पहले किस्म में व्यक्ति सीधा और तत्काल शिकार होता है जबकि दूसरे में समाज का बड़ा भाग और वह भी कुछ वर्षों बाद जब पुल गिरता है।पे-ऑफ़ भ्रष्टाचार जाता नहीं
समाजशास्त्रियों का मानना है कि सामजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े देशों में शेकडाउन सिस्टम का भ्रष्टाचार प्रबल रहता है। सन 1970 से भारत में जब बड़ा धन सरकार के विकास-कार्यक्रमों के लिए आने लगा तो अफ़सर ने सोचा कि शेकडाउन सिस्टम में ख़तरा ज्यादा है और माल कम लिहाज़ा अफसर-नेता-व्यापारी का एक नया नेक्सस बना।
अगर शीर्ष पर बैठा अफसर या मुख्यमंत्री शिद्दत से चाह ले तो शेकडाउन सिस्टम को ख़त्म किया जा सकता है लेकिन जिन समाजों में पे-ऑफ़ सिस्टम का भ्रष्टाचार जड़ें जमा चुका है वहां से इसका हटना लगभग नामुमकिन होता है।
इसका कारण यह है कि पुल 20 साल बाद गिरता है और तब तक ठेकेदार पैसे के दम पर सांसद बन चुका होता है और इंजीनियर, इंजीनियर-इन-चीफ़।
कोर्ट को प्रभावित करने की ताकत
दोनों के पास सिस्टम यानी कोर्ट तक को प्रभावित करने की ताकत आ चुकी होती है। शेकडाउन का शिकार व्यक्ति अपने घर-परिवार में आ कर आपबीती बताता है लिहाज़ा, भ्रष्ट अफसर के ख़िलाफ़ नाराजगी बढ़ती है। इसके ठीक उलट पे-ऑफ़ सिस्टम में समाज शिकार होता है और वह भी लम्बे समय बाद, लिहाज़ा सामूहिक गुस्सा पनप नहीं पाता और पनपा भी तो पुल के मलबे की जांच तो किसी संस्था से ही होगी और वहाँ भी कोई आदमी ही होगा। उसे सहज ही पैसे से खरीदा जा सकता है।
दोनों केस पे-ऑफ़ के बेहतरीन उदाहरण
वैसे तो स्वयं मुख्यमंत्री पर भी लैंड-घोटाले के आरोप तब से हैं जब इनके पिता मुख्यमंत्री होते थे। कोई एक दशक पहले एक मीडिया हाउस ने उन भ्रष्टाचारों को प्रमाण देते हुए एक पुस्तक छापी थी। लेकिन जनता शायद भ्रष्टाचार को इतना बड़ा मुद्दा नहीं मानती लिहाज़ा जानते हुए भी ऐसे व्यक्ति या उसकी पार्टी को जाति या अन्य कारणों से वोट दे कर सत्ता पर बैठा देती है।
बहरहाल, चूंकि क्रिमिनल न्यायशास्त्र में “प्रश्न का जवाब प्रश्न नहीं होता” लिहाज़ा, सीएम का भ्रष्टाचार फिलहाल मुद्दा नहीं है लेकिन उनका आरोप काबिले तवज्जो है। उनके अनुसार पूर्व सरकार के फ़ैसलों को लेकर जितने भी मुकदमे उनकी सरकार में हुए उनमें से अधिकांश में हाई कोर्ट की एक खास बेंच जांच पर रोक लगा देती है।
आरोप के अनुसार, इस सब के पीछे सुप्रीम कोर्ट के अमुक जज हैं। वैसे तो यह आरोप मीडिया को देना ही आम तौर पर सबसे बड़ी अदालत की अवमानना का कारण बन सकता है लेकिन आज शीर्ष कोर्ट के उस न्यायाधीश के लिए अपनी इमेज अक्षुण्ण रखना ज्यादा ज़रूरी है क्योंकि उन्हें भविष्य में मुख्य-न्यायाधीश की शपथ लेनी है।
येदियुरप्पा पर पद छोड़ने का दबाव
दूसरे मामले में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर पद छोड़ने का दबाव पहले से ही उनकी अपनी पार्टी यानी बीजेपी बना रही है लेकिन पे-ऑफ़ सिस्टम का बेहतरीन नमूना पेश करते हुए उनके नाती ने अपनी सफाई में कहा, “मैं व्यक्तिगत रूप से किससे लोन लेता हूँ, इसका हमारे नाना की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है।”
कोई कानून नहीं तोड़ा?
दरअसल, ऐसे ही जवाब इस किस्म के भ्रष्टाचार में हाल के दस साल में उजागर हुए सभी मामलों में दिए गए। तार्किक रूप से कितना सहज लगता है यह जवाब। सीएम भी आदमी है उसका भी परिवार होता है और भारत के संविधान के तहत उसका नाती या बेटा-बेटी भी एक नागरिक है, वे बिज़नेस कर सकताे हैं और किसी पांच साल से बंद पड़ी कंपनी में नाना के मुख्यमंत्री बनने के 15 दिन बाद डायरेक्टर हो सकते हैं। कौन सा कानून तोड़ा गया?
फिर कौन गवाह, कौन अभियोजन यह सिद्ध कर सकेगा कि कांग्रेस के ज़माने में पास हुआ टेंडर नयी सरकार में तब तक फंसा रहेगा जबतक वर्क आर्डर नहीं जारी होता। लिहाज़ा, बड़ी कंपनियां किसी दूरस्थ बड़े शहर में कई फर्जी कंपनियां खोल देती हैं जो सीएम के नाती की बंद कंपनी में भी भविष्य की संभावनाएं देख कर पैसे लगा सकती हैं।
सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ जज पर आरोप लगाने वाले सीएम पर भी सन 2009 के पूर्व इसी तरह के आरोप थे कि पिता के मुख्यमंत्रित्व काल में उनकी कंपनी का शेयर रातों-रात 100 गुना भाव पर एक ऐसी कंपनी ने खरीदा जो राज्य में सरकार से एक बड़ा ठेका ले चुकी थी।
गौर कीजिये, सीएम बनते ही कई मुख्यमंत्रियों के बेटों के भीतर बिज़नेस का कीड़ा कुलबुलाने लगता है भले ही बेटे (या बेटी) लालू के हों या येद्दियुरप्पा के या फिर चिदंबरम के या रमन सिंह या करूणानिधि के। अब यह गुण कई जजों के परिवार में भी दिखने लगा है।
पे-ऑफ़ सिस्टम के भ्रष्टाचार का स्वरुप एक ही होता है सिर्फ किरदार बदल जाते हैं। सही और तार्किक जनचेतना के अभाव में जनता किसी को मुख्यमंत्री बना देती है तो कोई न्याय का तराजू थाम लेता है। खरबूजा छुरी पर चले या छुरी खरबूजे पर, कटना खरबूजे को ही होता है।
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