क्या हम नब्बे दिन बाद ही पड़ने वाले इस बार के पंद्रह अगस्त पर लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के तिरंगा फहराने और सामने बैठकर उन्हें सुनने वाली जनता के परिदृश्य की कल्पना कर सकते हैं? क्या सोच-विचार कर सकते हैं कि तीन महीनों के बाद हम अपनी उपलब्धियों के किस मुक़ाम पर होंगे और प्रधानमंत्री द्वारा जनता को ऐसा क्या संदेश दिया जाना चाहिए जो कि सर्वथा नया होगा। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि 255 दिनों के बाद मनाए जाने वाले ‘गणतंत्र दिवस’ पर राजपथ का नज़ारा इस बार कैसा होगा? क्या हम अपने वैभव का चार महीने पहले ही मनाए गए ‘गणतंत्र दिवस’ के उत्सव की तरह ही प्रदर्शन करना चाहेंगे?
‘आपको अपनी जान बचाना है या प्रजातंत्र? बताइए!’
- विचार
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- 17 May, 2020

हो सकता है कि दुनिया भर में जो बहस इस समय ‘अर्थव्यवस्था’ और ‘जानें बचाने’ के बीच किसी एक का चुनाव करने को लेकर चलाई जा रही है उसे सरकारों के द्वारा यूँ बदल दिया जाए कि : ‘आपको अपनी जान बचाना है या प्रजातंत्र? बताइए!’ जवाब क्या होना चाहिए, सबको मालूम है। कहा भी जा सकता है कि : ‘दोनों को।’ अब तो सब कुछ जनता के साहस पर ही निर्भर करने वाला है।
हमारे राजनेता जब हमें यह समझाते हैं कि महामारी हमारी समूची जीवन शैली को बदल देने वाली है तो वे जान-बूझकर या अनजाने में इस सच्चाई को दबा जाते हैं कि दुनिया भर में जनता इस समय अपने-अपने नेतृत्वों से नाराज़ है और उसकी यह नाराज़गी बढ़ भी सकती है। जो लोग सत्ताओं में हैं वे इसे अच्छे से जानते हैं। यह स्थिति अधिनायकवादी व्यवस्थाओं में भी प्रकट हो रही है। रूस में हज़ारों की संख्या में संक्रमण के मामले प्रतिदिन उजागर हो रहे हैं और दुनिया भर को वहाँ की जनता की नाराज़गी के साथ पता भी चल रहे हैं।