भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन काफ़ी अहम माना जाता है। दिसंबर 1929 में हुए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पहली बार ‘पूर्ण स्वराज’ का लक्ष्य घोषित हुआ था। अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये जवाहरलाल नेहरू ने 31 दिसंबर को रावी के तट पर तिरंगा फहराकर अंग्रेज़ी राज के विरुद्ध ‘खुला विद्रोह’ करने का आह्वान किया था। लेकिन उनके लिए यह मात्र अंग्रेज़ी राज से मुक्ति का विद्रोह नहीं था। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था, “मुझे स्पष्ट स्वीकार कर लेना चाहिए कि मैं एक समाजवादी और रिपब्लिकन हूँ। मेरा राजाओं और महाराजाओं में विश्वास नहीं है, न ही मैं उस व्यवस्था में विश्वास रखता हूँ जो राजे-महाराजे पैदा करते हैं और जो पुराने राजों-महाराजाओं से अधिक जनता की ज़िंदगी और भाग्य को नियंत्रित करते हैं और जो पुराने राजों-महाराजों और सामंतों के लूटपाट और शोषण का तरीका अख्तियार करते हैं।”
इस अधिवेशन में ही 26 जनवरी 1930 को पहला स्वतंत्रता दिवस मनाने और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया गया। सत्याग्रह और अहिंसा जैसे अभूतपूर्व अस्त्र-शस्त्रों और विश्वदृष्टि से लैस स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के अनथक प्रयासों से साढ़े 17 साल बाद 1947 में आज़ादी का सूरज उगा जिसने पूरे भारत को नई आशा और उमंग भर दिया था।
बहरहाल, 94 साल बाद लाहौर से 1350 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जब कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा है तो ऐसा लगता है कि उन तमाम आशाओं पर तुषारापात हो गया है जो लाहौर से निकली थीं। 24-26 फ़रवरी के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह 85वाँ पूर्ण अधिवेशन ऐसे समय में हो रहा है जब संविधान पर छाये संकट के बादल हर उस व्यक्ति को चिंता में डाल रहे हैं जो लोकतंत्र में आस्था रखता है। केंद्रीय सत्ता पर क़ाबिज़ भारतीय जनता पार्टी सरकार के तौर-तरीक़ों ने लोकतंत्र को वास्तविक अर्थों में संभव बनाने वाली तमाम संस्थाओं को बेमानी बना दिया है। कार्यपालिका के बारे में तो कहना ही क्या, मीडिया की आज़ादी की बात भी हास्यास्पद हो चली है। हद तो ये है कि अब न्यायपालिका भी निशाने पर है। केंद्रीय मंत्रियों की तरफ़ से आये दिन न्यायपालिका की ओर उछाली जा रहीं चुनौतियाँ एक भयावह ख़तरे की ओर इशारा कर रही हैं। ऐसा लगता है कि राजा-महाराजाओं की वह व्यवस्था फिर से उभर आयी है जो जनता के भाग्य को नियंत्रित करते थे और जिसकी ओर पं. नेहरू ने लाहौर अधिवेशन में चिंता ज़ाहिर की थी।
कांग्रेस के अधिवेशन के पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओं के खिलाफ़ हुई प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी) की छापेमारी इसी का सबूत है। यही नहीं, गुरुवार सुबह अधिवेशन में शामिल होने जा रहे कांग्रेस मीडिया विभाग के चेयरमैन पवन खेड़ा को दिल्ली में हवाई जहाज से उतार दिया गया और फिर असम की पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया।
‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी भारत’ की स्थापना आज़ादी की लड़ाई का संकल्प था। मौजूदा सरकार की वैचारिक प्रेरणा यानी आरएसएस और उससे जुड़े संगठन संविधान के प्रस्तावना में दर्ज किये गये इन दोनों शब्दों से निजात पा लेना चाहते हैं।
धर्मनिरपेक्षता के लिए तो गाँधी और नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए लगातार अभियान चलाया जाता है जबकि सरदार पटेल से लेकर सुभाषचंद्र बोस तक और डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर बाबा साहेब आंबेडकर तक धर्मनिरपेक्ष भारत ही चाहते थे और आरएसएस के प्रिय स्वप्न यानी ‘हिंदू राष्ट्र’ को पागलपन या आम जनों के लिए विपत्ति मानते थे।
भारत का जन्म मज़हब के नाम पर बने पाकिस्तान की प्रतिक्रिया में नहीं हुआ था बल्कि धर्मनिरपेक्षता की राह को चुनकर उसने अपनी हज़ारों साल से चली आ रही परंपराओं का ही निर्वाह किया था। इस परंपरा में एक तरफ़ वेदों को ‘अपौरषेय़’ माना गया है तो वेद निंदक चार्वाक को भी ऋषि मानते हुए उनके ‘लोकायत’ को दर्शन के रूप में मान्यता दी गयी है। बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक दर्शनों का प्रभाव तो स्पष्ट है ही, ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार न करने वाले सांख्य दर्शन को ‘षट्दर्शनों’ में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
जिस ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात करके आरएसएस और बीजेपी नेता अक्सर भारत के विश्वगुरु होने का दावा करते हैं वह पूरा श्लोक अपने पराये का भेद करने वालों को गलत बताता है (अयं निजः परोवेती गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुंबकम॥) और कहता है कि उदार चरित्र के लोगों के लिए पूरी धरती ही परिवार की तरह है। ऐसे में नये भारत के निर्माताओं ने अगर धर्म के आधार पर भेदभाव की राह पर न जाकर सबको बराबर माना तो वे भारतीय परंपरा के असल ध्वजावाहक थे न कि तुष्टिकरण करने वाले जैसा कि आरएसएस और बीजेपी का प्रचार है।
कुछ ऐसी ही कहानी ‘समाजवाद’ की भी है। शास्त्रीय अर्थों में उत्पादन के साधनों पर राज्य के नियंत्रण की शास्त्रीय समाजवादी धारणा पर शासन चाहे न चला हो लेकिन अमीर-ग़रीब की खाई पाटना हमेशा ही नीतियों का आधार रहा। मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत को अपनाते हुए पूँजीपतियों के प्रयासों के लिए भरपूर जगह मुहैया कराते हुए सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की गयी थी ताकि एक संतुलन बना रहे।
मोदी सरकार ने बीते 70 सालों में विकसित हुए लाभकारी सार्वजनिक उपक्रमों को जिस तरह बेचा है वह देश की संपत्ति को लुटाने की तरह है।
हिंडनबर्ग रिसर्च ने इसके पीछे छिपी बदनीयती को भी उजागर कर दिया है या कहें कि पीएम मोदी और गौतम अडानी की जुगलबंदी के नीचे पल रहे याराना पूँजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म) के प्रेत को बेपर्दा कर दिया है। महज़ एक फ़ीसदी लोगों के पास देश की 40 फ़ीसदी सम्पत्ति पहुँच जाने की कहानी इसी जुगलबंदी का नतीजा है।
इसी के साथ केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन को बनाये रखना भी एक संकल्प था लेकिन मोदी युग में लगातार केंद्र तमाम शक्तियों को अपने हाथों में लेता जा रहा है जो भविष्य में एक बड़ी समस्या बन सकता है। नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुठाराघात की नित नई मिसालें बन रही हैं। राज्यों में बीजेपी सरकारों का बुलडोज़र प्रेम अतंरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना हुआ है। सामान्य आलोचनाओं के लिए भी मुक़दमा दर्ज हो रहा है और धरना-प्रदर्शन करने वाले देशद्रोही माने जा रहे हैं। एक ‘आधुनिक और सभ्य’ राज्य की कसौटियों को मोदी की शासन शैली रोज़ाना चुनौती दे रही है।
इस लिहाज़ से देखें तो रायपुर अधिवेशन का महत्व कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन से कम नहीं है। लाहौर में आज़ादी पाने की चुनौती थी तो रायपुर में आज़ादी बचाने की चुनौती होगी। देश खुली हवा में साँस लेता रहे, इसके लिए एक नये सविनय अवज्ञा आंदोलन की घोषणा का इंतज़ार पूरा देश कर रहा है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के रूप में की गयी तपस्या ने इस उम्मीद को काफ़ी बढ़ा दिया है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)
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