आम तौर से ख़बरों से दूर रहने वाले छत्तीसगढ़ से आजकल दो तरह की ख़बरें आ रही हैं जो राष्ट्रव्यापी चर्चा में दिल्ली और बिहार की चुनावी चकल्लस वाली ख़बरों पर भारी पड़ रही हैं। युवा और जुनूनी पत्रकार मुकेश चंद्राकर की सरकारी दुलारे ठेकेदार सुरेश चंद्राकर और उसके लोगों द्वारा हत्या कराने का मामला अगर सबको झकझोर रहा है और शासन (जिसके समर्थन के बगैर सुरेश न तो इतना बड़ा बनता और न ऐसा दुस्साहस करता) को भी सक्रिय होने के लिए मजबूर कर रहा है, तो बस्तर में छिड़ी सुरक्षा बलों और नक्सलियों की लड़ाई ने दर्जनों जानें ले ली हैं। अब नक्सलियों की तरफ़ से तो जवाबी कार्रवाई होने पर ही उनकी तैयारी और मंशा की ख़बर आती है लेकिन शासन की तरफ़ से केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह और प्रदेश सरकार के काफी सारे लोग तथा नेता इस बार की लड़ाई में नक्सलवाद की सफाई का संकल्प दोहरा चुके हैं।
बीजापुर में बारूदी सुरंगों में विस्फोट कराके नक्सलियों ने स्थानीय स्तर पर तैयार दो बलों के आठ लोगों को मार दिया तब अमित शाह ने कहा कि हम बस्तर से नक्सलवाद ख़त्म करके रहेंगे। कुछ समय पहले उन्होंने कहा था कि हम 2026 तक पूरे देश से नक्सलवाद मिटा देंगे। बस्तर में भी अबूझमाद के एक हिस्से को छोड़कर बाकी सभी जगह नक्सलियों से जुड़ा सर्वे चल रहा है और अभी के जारी टकराव में सुरक्षा बलों ने नक्सलियों का काफी नुकसान किया था। रविवार को ही तीन दिन की भिड़ंत के बाद पाँच नक्सली मारे गए थे जबकि सुरक्षा बलों का एक जवान भी शहीद हुआ था। सोमवार की बीजापुर की घटना उसका जबाब थी।
गृहमंत्री के संकल्प को ठीक और ज़रूरी मानना चाहिए क्योंकि देश के अंदर किसी भी गैर सरकारी संगठन या व्यक्ति की हैसियत कानून और संविधान से ऊपर नहीं हो सकती। और जिस ताक़त की भी जरूरत हो, शासन को उसका इस्तेमाल करके ऐसी गैर संवैधानिक सत्ता को समाप्त करना चाहिए। अमित शाह लंबे समय से सरकार में हैं और उनके कार्यकाल तथा भाजपा के कुल कार्यकाल को देखें तो इस मामले में उनकी उपलब्धियां और दावों में अंतर दिखेगा। पर पिछले साल से बस्तर में निश्चित रूप से सरकारी प्रयास बढ़े हैं।
स्थानीय लोगों को लेकर फौज बनाना और उनको सामने करके एक्शन लेना अभी तक प्रभावी रहा है और पिछले साल में 287 नक्सली मारे जा चुके हैं। दूसरी ओर सुरक्षा बलों को कम नुकसान हुआ है (92 जवान मारे गए हैं) तो सिविलियन कैजुअल्टी ( 241 मौत) बढ़ी है। इसका बढ़ना बताता है कि नक्सलियों में बौखलाहट बढ़ी है और वे निहत्थे लोगों को अपना निशाना बना रहे हैं। पर दिलचस्प तथ्य यह है कि अबूझमाड़ के पास की यह घटना बारूदी सुरंगों में विस्फोट कराके अंजाम दी गई जो नक्सलियों का पुराना तरीका रहा है।
ग्यारह साल के मोदी राज या उससे पहले के मनमोहन राज को देखें तो देश में नक्सली समस्या काफी काम हुई है।
कायदे से सैनिक कार्रवाई या सख्ती के साथ शिक्षा और संवाद का कार्यक्रम भी चलना चाहिए, भटके नौजवानों की वापसी और पुनर्वास का काम भी होना चाहिए। यह याद रखना होगा कि नक्सली नेताओं में सिर्फ प्रचंड जैसे लोग ही नहीं हुए हैं (जो सत्ता पाते ही बदल जाएं) बल्कि त्याग तपस्या वाले भी हैं। वे वैचारिक रूप से भटके हो सकते हैं, हिंसा के सहारे राजनैतिक-सामाजिक बदलाव का भ्रम पाले हो सकते हैं पर उनका निजी आचरण और जीवन काफी लोगों को प्रेरक भी लगा सकता है। और सबसे बढ़कर जिन स्थितियों में नक्सलवाद जन्मता और पनपता है, जमीन बनाता है उसको भी समाप्त करना लक्ष्य होना चाहिए। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी बस्तर, पलामू, कालाहांडी और गढ़चिरौली जैसे पिछड़े इलाके का होना देश के कथित विकास और भारत के विश्व शक्ति बन जाने का मुंह ही चिढ़ाते हैं। उन पर शर्म करना भी हमें और गृह मंत्री को सीखना होगा। जैसे ही इन सब मोर्चों पर फौजी मुहिम जैसी तत्परता दिखेगी, कोई नक्सलवाद नहीं बचेगा।
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