कल्पना कीजिए कि सेंट्रल विस्टा परियोजना सिर्फ एक नौकरशाह के हाथ में ना होती जिसे संपूर्ण निर्णय लेने का असीमित अधिकार होता, बल्कि लोकतांत्रिक तरीके से नागरिकों से यह पूछा जाता कि हम इसका कैसा रूप चाहते हैं?
राजतंत्र में साम्राज्य का केंद्र शाही ठाठ और दरबार होता है। जबकि लोकतंत्र का केंद्र लोक ही होना चाहिये। राष्ट्रीय प्रांगण के सबसे महत्वपूर्ण और ज्यादा से ज्यादा हिस्सों में बगीचे, सांस्कृतिक गतिविधियों की संस्थाएं व मेलों के लिए खुली जगह होनी चाहिए यानी कि ‘जनता का इलाक़ा’ जहां आम लोग बेफिक्र घूम सकें और जम्हूरियत के वाशिंदे होने पर गर्व महसूस कर सकें।
अमेरिका, विश्व का सबसे ताक़तवर देश है। इसकी राजधानी वाशिंगटन का राष्ट्रीय प्रांगण ‘दी मॉल’ कुछ ऐसी ही जगह है। इस विशाल इलाक़े में निशुल्क पार्क और बेशुमार संग्रहालय हैं। सरकारी इमारतें इस शानदार प्रांगण के पीछे बनी हुई हैं। इसकी प्राथमिकता सरकार और अफ़सर नहीं बल्कि आम आदमी के लिए घूमने की आजादी है।
इसीलिए सेंट्रल विस्टा के नवीनीकरण का असली प्रयास होना चाहिए कि सरकारी मौजूदगी को कम से कम करना। अगर 20 हजार करोड़ ख़र्च करने ही हैं, तो फिर इस ख़र्च का सीधा मक़सद होना चाहिए विकेंद्रीकरण और लोग ही इस योजना के केंद्र में रहें।
ना कि जनता की इस ज़मीन पर सरकारी दफ्तर का कब्जा हो या फिर प्रधानमंत्री के लिए एक दूसरा आलीशान आवास बने, वो भी तब जबकि पहले वाले आवास में सुरक्षा और बाकी के इंतज़ाम में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है।
छोटे शहरों में स्थापित हों दफ़्तर
अगर इस प्रांगण का असली विकेंद्रीकरण हो, तो छोटे शहर, कस्बे और इलाक़े इसका पूरा फायदा उठा सकते हैं। दिल्ली के बजाय कुछ कम महत्व के केंद्रीय दफ्तरों को अगर बठिंडा, हिसार, संगरूर, बीकानेर या रणकपुर जैसे शहरों में स्थापित किया जाये और इसके साथ उनकी नगर पालिकाओं के विकास के लिए उन्हें रकम दी जाए, तो यह दोनों- दिल्ली और छोटे शहरों के लिए फायदेमंद साबित होगा।
इन कम महत्व के दफ्तरों के हटने से बची जगह में सोचिए, जनता के लाभ के लिए क्या-क्या बन सकता है? कल्पना कीजिए खूबसूरत बगीचों की, रंगमंच, अजायबघर और कला केंद्र की, जिनको बेहद नज़ाकत से बनाया गया हो और जहाँ हरियाली को पूरी तरह सुरक्षित रखा गया हो। लेकिन हो इसका उलटा रहा है।
इस परियोजना की शुरुआत अकस्मात हुई, एक एलान के साथ। इस परियोजना की कल्पना और डिज़ाइन बनाने के लिए वास्तुकारों को केवल 4 हफ्ते का समय दिया गया और कहा गया कि यह एक प्रतियोगिता है जिसमें सबसे अव्वल योजना का चुनाव होगा।
पीएम के पसंदीदा शख़्स को मिला काम
लेकिन बाद में पता चला कि यह एक नाटक था, जनता की आंखों में धूल झोकने का जरिया। चुनाव तो प्रतियोगिता के पहले ही हो चुका था। नियम में बदलाव किया जा चुका था। प्रधानमंत्री के पसंदीदा वास्तुकार का चयन हो चुका था। ये वही शख़्स हैं जिन्होंने अहमदाबाद में विवादास्पद रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट का निर्माण किया था। हैरानी की बात है कि एक भी संस्था से विरोध के स्वर नहीं निकले।
क़ानून से खिलवाड़
ऐसे क़ानूनी तोड़-मरोड़ की यह पहली मिसाल नहीं है। 2018 में गर्वी गुजरात भवन की भी इसी तरह नींव रखी गई थी। 2018 में ही अकबर रोड की 22 एकड़ की जमीन, जो अभी तक खास क़ानून के तहत सुरक्षित थी, सरकार की नजर में आई। जहां हरियाली और खुली जमीन पर कुछ छोटे दफ्तर होते थे, वहां प्रधानमंत्री ने 22 एकड़ के बड़े वाणिज्य भवन की नींव रखी।
आज कागज और दस्तावेज के हिसाब से सब क़ानूनी है, लेकिन नैतिकता की नजर से देखें, तो भारतीय क़ानून का मजाक उड़ाया गया है। आज वाणिज्य भवन हेरिटेज जोन की क़ानूनी ऊंचाई से कहीं ज्यादा ऊंचा है और इसमें क़ानून का उल्लंघन किया गया है।
सेंट्रल विस्टा परियोजना के मामले में वास्तुकारों और जनता को अपनी आपत्ति दर्ज कराने के लिये मात्र 48 घंटे का वक्त दिया गया। आज इश्तेहार निकला, अगले दिन सुनवाई!
सुप्रीम कोर्ट पहुंचे लोग
सुनवाई हुई। 1292 एतराज दर्ज किए गए। हर एक एतराज़ के लिए वक़्त मिला 2.30 मिनट का! जी हां, इतनी विशाल महापरियोजना पर जनता को मिले कुल 2.30 मिनट! इन आपत्तियों को दरकिनार कर दिया गया। अब वास्तुकार, योजनाकार और विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट में भूमि उपयोग के बदलाव के ख़िलाफ़ केस लड़ रहे हैं।
ऐसी अनमोल, नाजुक, महापरियोजना के लिए कार्यक्षमता की जगह गुणवत्ता सबसे ज़रूरी है। बेहतरीन डिजाइन के लिए ज़रूरी है गहरी सोच। जुगाड़ और जल्दबाजी का नतीजा कहीं विनाशकारी न साबित हो और आने वाली पीढ़ियां उसे कभी ठीक ही ना कर पाएं।
ब्रिटेन की संसद अपने नवीनीकरण के लिए 12 साल लगाएगी। सेंट्रल विस्टा परियोजना को दो साल में पूरा होना है। अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ और वास्तुकार इस रफ्तार से हैरान हैं।
1978 में तालिबान ने अफगानिस्तान में सदियों से मौजूद बामियान की बौद्ध मूर्तियों को डायनामाइट से उड़ा दिया था। उनका यह मानना था कि बुद्ध की मूर्तियां इसलाम से पहले के जमाने में स्थापित की गई थीं जो तालिबान की सोच के विरुद्ध था। उनकी नजर में बामियान के बुद्ध का विनाश ज़रूरी था। वो उग्रवाद का एक नज़रिया था।
राय लेने से इनकार क्यों?
क्या हमारी सरकार भी चरमपंथी सोच का शिकार बन चुकी है? विशेषज्ञों की सलाह लेने से सख्त इनकार, उनकी चेतावनियों को नकारना क्या उस ओर इशारा नहीं करता? यानी ये वो नज़रिया है जो ताक़त के बलबूते, हमारी जिंदगी को तय करता है। हमारी अकेली आवाज़ बनने का सपना देखता है।
लेकिन लोकतंत्र में केवल एक आवाज़ क्यों? यह आवाज एक नहीं, अनेक होनी चाहिये! लोगों का हक है कि ऐसी परियाजनाओं में और विशेषज्ञों की राय भी शामिल हो। ऐसी विशाल परियोजना के लिए सबसे ज्यादा प्रचार करने वाले नहीं, सबसे काबिल दिमाग वालों की सख्त आवश्यकता है। वह विशेषज्ञ जो हां में हां मिलाये उसका वास्तुकला में क्या योगदान हो सकता है?
आज कहां हैं वे शहरी योजनाकार, जो अपनी अद्वितीय सोच से सरकार को विकेंद्रीकरण पर अंतर्दृष्टि दें, जिससे दिल्ली में प्रदूषण और ट्रैफिक में कमी आये? कहां है वह ‘इंपैक्ट एसेसमेंट रिपोर्ट’ जो हर बड़े प्रोजेक्ट से पहले ध्यानपूर्वक तैयार की जाती हैं ताकि एक पेड़ का भी बाल बांका न हो? कहां है वह आवश्यक ‘कनसर्वेशन एसेसमेंट रिपोर्ट’ जिसके बिना कोई प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट शुरू ही नहीं हो सकता?
आज कहां हैं वे वित्त योजनाकार, जो सरकार को समझा सकें कि पीएम या उपराष्ट्रपति के लिए नया, आलीशान बंगला जनता के पैसे का घोर दुरुपयोग है?
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