कहा जाता है कि परिवर्तन हमेशा अच्छा होता है। लेकिन बेवजह और बगैर तर्क के किया गया बदलाव ऐसा घाव दे जा सकता है जिसका दर्द आने वाली नस्लों को भी उठाना पड़ता है। ऐसा ही एक बदलाव सेंट्रल विस्टा में जल्द देखने को मिल सकता है जो भारत का सबसे पसंदीदा नेशनल स्पेस यानी एक राष्ट्रीय प्रांगण है।
जब भी लोग अपने हकोहुकूक और उसूलों के लिए एकजुटता जताने, विरोध प्रदर्शन या अपने सुख-दुख बाँटने की बात सोचते हैं तो ज़ाहिर है कि वह जगह इंडिया गेट ही होती है। कोई कैसे भूल सकता है यहाँ निर्भया के लिए संवेदना और एकजुटता का प्रदर्शन? कौन भूल सकता है कि इसी जगह देश की आज़ादी के पचासवीं सालगिरह मनाने के लिए इंसानों का समंदर उमड़ आया था?
इसी तरह सियासी तमाशे! दिल्ली के नए मुख्यमंत्री की भारी बारिश में वैगन-आर कार में कैबिनेट मीटिंग; शहीद सैनिकों के नाम पर बनाए गए इंडिया गेट के साए में रिटायर्ड फौजियों का वन-रैंक-वन पेंशन के लिए एकजुट होना। सैकड़ों, अनगिनत विरोध प्रदर्शन यहीं हुए हैं - सीएए क़ानून, प्रदूषण, दिल्ली के दंगे या बलात्कार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन। इसीलिए यह राष्ट्रीय प्रांगण देश की जनता के दिल और रूह से जुड़ा हुआ है।
यह शहरी भारत के लिए खेल का मैदान भी है। यहाँ हर किसी और हरेक व्यक्ति का स्वागत है। शहर के हर कोने से इसके लॉन में लोग आ कर बैठते हैं, अपने परिवार के साथ क्रिकेट खेलते हैं, आइस्क्रीम खाते हैं। सभी इस ख़ूबसूरत इलाक़े की तहे दिल से तारीफ़ करते हैं। दरअसल यह ख़ूबसूरती उस लोकतंत्र की हैसियत और ताक़त भी बयाँ करती है जिसका वजूद आम आवाम से है।
लेकिन आज इस राष्ट्रीय प्रांगण का अस्तित्व नए सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के कारण ख़तरे में आ गया है। क्य़ोंकि इस अनमोल इलाक़े में ख़ास ‘जनता के लिए’ के सौ एकड़ आरक्षित ज़मीन को अब ‘वीवीआईपी’ ज़ोन घोषित कर दिया गया है।
इस वीवीआईपी इलाक़े में नेताओं और बड़े अफ़सरों के अलावा किसी आम आदमी का क़दम रखना मुश्किल होगा। सरकारी दफ्तरों के लिए बनाई जा रही आठ मंज़िली इमारतों के लिए क़रीब दो हज़ार पेड़ों की कुर्बानी भी ली जाएगी।
सबसे अहम कुर्बानी है देश का संसद भवन, जहाँ भारतीय गणतंत्र की परवरिश हुई। इसी संसद भवन ने आज़ाद हिंदुस्तान की पहली झलक देखी। यहीं 1971 की जंग की ऐतिहासिक जीत का एलान किया गया था, वगैरह-वगैरह। यहीं मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों पर जोरदार बहस हुई थी। लेकिन अब इस ऐतिहासिक संसद के गलियारे सूने और इमारत बेमानी हो जाएगी। वहाँ संसदीय सदस्यों की लोकतांत्रिक बहस और चर्चा नहीं चलेगी। सैलानी अब गाइड की मदद से घूमने और तसवीरें लेने जाया करेंगे।
क्या यह लोकतांत्रिक क़दम है? जिसमें लोक पीछे छूट गया है और तंत्र हावी हो गया है।
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कहा जाता है कि विरासत हमारी पहचान होती है। यह किसी से छिपा नहीं है कि अंग्रेज़ों से अपनी आज़ादी छीनने के लिए हमने लंबी और मुश्किल लड़ाई लड़ी थी। आज़ादी की लड़ाई ने लोगों को जोड़ा और एक राष्ट्रीय पहचान बनी। ये इमारतें भी मुख़ालिफ़त और लड़ाई की बेशक़ीमती यादों को जमाने से संजोए हुए है। कैसे?
निस्संदेह यह राष्ट्रीय प्रांगण एक अंग्रेज़ वास्तुकार की परिकल्पना थी। लेकिन अंग्रेज़ी साम्राज्य ने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि इन इमारतों के ज़रिए भारतीय संस्कृति और प्राचीन सभ्यता की ख़ूबसूरती, ज्ञान और पांडित्य को अभिव्यक्त करना ज़रूरी है। और इसके लिए पूरा प्रयास भी किया गया।
हर इमारत की बुनियाद ज्यामिति के उन सिद्धांतों पर रखी गई है, जो इस वास्तुशिल्प का आधार है। किंतु अंतर्निहित भारतीय शिल्पकला, स्थापत्य और मूर्तिकला का सौंदर्य और आभा नज़र आती है।
राष्ट्रपति भवन के निर्माण में सांची के स्तूप और उसके गुंबद की प्रेरणा झलकती है। वहीं नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक में राजपूत और मुग़ल स्थापत्य के प्रतीक- छतरी और झरोखों से आबाद है। संसद भवन की प्रेरणा मध्य प्रदेश के मुरैना स्थित एकट्टसो महादेव मंदिर की चक्राकार दीवारें और उसके बीच खुले केंद्रीय मंडप से ली गई है, जिसे चौसठ योगिनी मंदिर के नाम से जाना जाता है। संसद भवन के मेहराब, जालियाँ और झरोखे इस बात की तस्दीक करते हैं कि औपनिवेशिक काल के इन भवनों के वास्तुशिल्प की प्रेरणा सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी धरती से ली गई है।
इन ऐतिहासिक भवनों को अंग्रेज़ों से जोड़ना एक तरह की कुटिलता है, जिसके मायने ये हैं कि इन भवनों को नीची निगाह से देखना चाहिए और हमें अपना ही कुछ बनाना चाहिए। लेकिन हम ऐसा सोचते ही क्यों हैं कि यह हमारी विरासत नहीं है?
सबसे अव्वल बात, ये इमारतें, हमारे अपने किसान, मज़दूर और दस्तकारों के संसाधनों से बनी हैं जो शोषक और लालची ब्रिटिश साम्राज्य को लगान दर लगान की शक्ल में चुकाया गया था। इस आय का बड़ा हिस्सा ब्रिटेन भेजा गया, जिसने उसे दुनिया के सबसे अमीर मुल्कों में शुमार कर दिया और वहाँ की आवाम की ज़िंदगी को ख़ुशहाल बनाने में बड़ी भूमिका निभाई।
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इस राजस्व का एक छोटा हिस्सा देश की कुछ योजनाओं पर ख़र्च किया गया, जैसे रेलवे के विस्तार, मुंबई और कोलकाता की भव्य इमारतें और नई दिल्ली का ख़ाका। इसी योजना के तहत बनाया गया सेंट्रल विस्टा आज हमारी धरोहर है। यह सही है कि इसे अंग्रेज़ों ने बनवाया लेकिन हमारे श्रमिकों और वास्तुकारों के ख़ून-पसीने और जनता के चुकाए गए करों से ये निर्माण संभव हो सका। आज़ादी के बाद जम्हूरियत को एक शक्ल देने वाली संविधान सभा की गर्मागर्म बहस के लिए इन भवनों का बहुत सलीके से इस्तेमाल किया गया था, अब ये भवन हमारे लोकतंत्र के प्रतीकों के रूप में ढल चुके हैं।
आज ये इमारतें हम पर हुकूमत कर चुके अंग्रेज़ साम्राज्य की पहचान नहीं हैं, ना ही आज की पीढ़ी इन्हें ऐसा मानती है, बल्कि इन्हें लोकतंत्र के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इसी तरह इतिहास गवाह है कि राजाओं के महलों को आज़ाद हिंदुस्तान में जनता के लिए सार्वजनिक उपयोग के लिए बदल दिया गया था।
हमारे ही संगतराशओं और कारीगरों की मदद से तैयार हमारी पूंजी से निर्मित ये इमारतें, भला हमारी कैसे नहीं हैं? ऐसे में आख़िर हम जानबूझकर इन्हें बेकार साबित करना क्यों चाहते हैं? मिसाल के तौर पर, क्या हमें रेल की पटरियों को इसलिए उखाड़ देना चाहिए क्योंकि उनका निर्माण अंग्रेज़ों ने करवाया था। ज़ाहिर है कि यह एक बेहूदा और मूर्खतापूर्ण क़दम होगा।
इसी तरह इंडिया गेट जो हमारे ही 70,000 शहीदों की स्मृति में अंग्रेज़ों के द्वारा ही बनवाया गया था, क्या इसे भी हमें अपना नहीं मानना चाहिए? क्या इन जवानों के नाम मिटाना इतिहास मिटाने की कोशिश नहीं होगी? बल्कि इस प्रतीक को बेमानी बनाने की कोशिश हमारे गौरवशाली इतिहास का अपमान होगा।
राष्ट्रीय प्रतीक देश को जोड़ने का काम करते हैं। यही कारण है कि हम राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करते हैं और राष्ट्रगान के समय खड़े हो जाते हैं। भारतीय मुद्रा के बीच सारनाथ का शेर इसी सम्मान का प्रतीक है। हमारा इतिहास बताता है कि 1857 में आज़ादी की पहली लड़ाई आख़िरी मुग़ल बादशाह के झंडे तले लड़ी गई जिसके लिए फिरंगियों के ख़िलाफ़ देश भर के राजा मतभेद भुला कर उठ खड़े हुए थे।
इसी तरह लाल क़िला भी एक राष्ट्रीय प्रतीक है। हर पंद्रह अगस्त को इसी के प्राचीर से अपने प्रधानमंत्री का संबोधन हम अपने टीवी सेट पर देखना और सुनना चाहते हैं। इसी तरह संसद भवन, नॉर्थ और साउथ ब्लॉक तो हर पल देश का राजनीतिक इतिहास गढ़ते हैं। इन्हें उजाड़ कर सैलानियों को तसवीर लेने के लिए वीरान कर देना वाक़ई देश की जनता की आकांक्षा का गहरा अपमान होगा।
विरासत एक ऐसी चीज़ है जिसे एक बार खो देने पर दोबारा हासिल करना आसान नहीं होता। इसीलिए यह अनमोल भी होती है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फिनलैंड और जर्मनी ने राष्ट्रीय स्मारकों के लिए ‘एडॉप्टिव रियूज़’ का सिद्धांत अपनाया है। यानी अपने ऐतिहासिक संसद भवनों को खाली-बियावान बनाने के बजाय उनका समझदारी और और सम्मान से नवीकरण किया गया है। आज वे पूरी जीवंतता के साथ इस्तेमाल होने वाले समृद्ध प्रतीक हैं।
ब्रिटेन की संसद 800 वर्ष पुरानी
ब्रिटेन की संसद 800 वर्ष पुरानी है, जी हाँ, 800 बरस पुरानी! क़रीब डेढ़ सौ बरस पहले यह आग से पूरी तरह बर्बाद हो गई थी। लेकिन इसी जगह इसे फिर से पहले की तरह खड़ा किया गया। हर दौर में कई और संसाधन इसमें जुड़ते गए, मसलन प्रकाश की व्यवस्था, हीटिंग, डिजिटाइज़ेशन और अकॉस्टिक व्यवस्था।
ब्रिटेन की संसद के नवीकरण के वक़्त इस बात का हर वक़्त खयाल रखा गया कि इसके मौलिक ढाँचे और ख़ूबसूरत नक्काशी में झलकता ब्रिटेन के इतिहास और ब्रिटिश पहचान पर ज़रा सी भी आँच ना आए।
आज एक बार फिर नवीकरण का दौर है। ब्रिटिश सरकार ने ऐतिहासिक नवीकरण के लिए बारह वर्ष का समय दिया है। और इस दौरान ब्रिटिश संसद के प्रतिनिधि अपने प्रगति मैदान जैसे एक विशाल सभागार में बैठेंगे ताकि संसद की इमारत का बहुत एहतियात और तफसील से बारीकी के साथ रेनोवेशन किया जा सके।
इन मिसालों से ज़ाहिर है कि परिवर्तन के लिए सबसे अहम है समय। अगर किसी सुधार, नवीकरण या नया स्वरूप देने में ज़रूरी वक़्त दिया जाए तो निस्संदेह बेहतर बदलाव देखने को मिलेगा। लेकिन अगर बदलाव गुणवत्ता की परवाह किए बगैर सिर्फ़ निजी शोहरत के लिए सब कुछ मिटा देने के मक़सद से किया जाता है तो ऐसा क़दम इस अनमोल ऐतिहासिक राष्ट्रीय प्रांगण को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर देगा।
और हम? क्या हम जाहिलों की तरह खड़े अपनी ही बर्बादी का तमाशा देख रहे होंगे?
किस तरह से...? पढ़िए अगले अंक में...
(हिंदी अनुवाद: अंशुमन त्रिपाठी)
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