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एक औसत समझ का इंसान भी यह सवाल पूछ सकता है कि आख़िर वास्तुकार और नगर योजनाकार सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का इतना विरोध क्यों कर रहें हैं। कुछ लोग इस प्रोजक्ट को रोकने के लिये सुप्रीम कोर्ट क्यों गये हैं।
अगर ये क़दम दिल्ली के आधुनिकीकरण और उसकी बेहतरी के लिये है तो इसकी आलोचनाएँ क्यों हो रही हैं?
आइए, तीन पहलुओं से इसकी पड़ताल करते हैं।
सबसे पहले यह देखा जाए कि इस योजना की हिमायत में क्या कहा जा रहा है और नया सेंट्रल विस्टा कैसा नज़र आएगा।
सेंट्रल विस्टा का सबसे पहला मक़सद है प्रत्येक शासकीय कार्यालय को एक जगह पर इकट्ठा करना। इनमें उन दफ़्तरों को शामिल किया गया है जिन्हें कुछ साल पहले विकेंद्रीकरण के नाम पर वहाँ से हटाया गया था।
नये प्रोजेक्ट के लिये यहाँ खड़ी 14 से 16 इमारतें ढहाई जाएँगी। मसला यह है कि यह पूरा इलाक़ा अपने वास्तुशिल्प और पर्यावरणीय महत्व की वजह से हेरिटेज ज़ोन की प्रथम श्रेणी में रखा गया है जहाँ किसी क़िस्म के निर्माण की क़तई इजाज़त नहीं है। ढहाना तो बहुत दूर की बात है।
इन संरक्षित विरासत को गिराने के बाद इस ज़मीन पर सड़क के एकदम क़रीब, बगैर अहाते की जगह छोड़े, एक-दूसरे से सटे हुए, सरकारी दफ्तरों के बारह बड़े-बड़े खंड तैयार किए जाएँगे। हर इमारत आठ मंजिल की होगी। इनमें सरकारी कर्मचारियों के लिए आज के मुक़ाबले 3-गुना ज़्यादा दफ्तर बनेंगे। एक विशेष भूमिगत रेलवे इन दफ़्तरों के बीच चला करेगी, जिसमें केवल पासधारियों को ही सवारी की इजाज़त होगी। इसका अर्थ यही हुआ कि राजपथ के आसपास की ज़मीन जनता की पकड़ से निकल के बन गई वीआईपी जॉन बन जायेगी। इंडिया गेट के बगीचों को छोड़, यह इलाक़ा उच्च सुरक्षा ज़ोन के रूप में बनाया जाएगा जहाँ जनता को जाने की इजाज़त नहीं होगी।
दिसंबर 2019 में नगर निगम के काग़ज़ात में ‘सार्वजनिक भूमि’ के रूप में दर्ज एक प्लॉट, जिस पर 20-30 विशाल पेड़ लगे हैं, बेहद ख़ामोशी से ‘शासकीय भूमि’ के रूप में तब्दील कर दिया गया था। इस ज़मीन पर नया त्रिकोणीय संसद भवन बनाया जाएगा। वहीं संसद की मौजूदा गोल इमारत को सैलानियों की सैरगाह बना दिया जायेगा। इसी तरह नॉर्थ ब्लॉक और सॉउथ ब्लॉक जहाँ से पिछले सत्तर साल से देश की हुकूमत चल रही है, वो अजायबघर में बन जायेंगे।
क्या आधुनिकीकरण के नाम पर विरासत को मिटाना और सार्वजनिक ज़मीन को ख़त्म करना सही है? और इसकी इतनी भारी क़ीमत चुकाना लाजिमी है?
दूसरा सवाल, इस प्रोजेक्ट की आवश्यकता ही क्या है? इस प्रोजेक्ट से देश के नागरिकों पर 20,000 करोड़ का बोझ बढ़ेगा। कोविड-19 महामारी के दौर में अगर आधुनिकीकरण इतना ज़रूरी है तो क्या इन इमारतों का ही संरक्षण कर इन्हीं में ज़रूरी रद्दोबदल नहीं किया जा सकता?
संसद भवन विधायी कार्यों के लिए बनाया गया था। नॉर्थ ब्लॉक और सॉउथ ब्लॉक प्रशासनिक कार्यों के लिए बनाए गए थे। वास्तुकारों का यह मानना है कि आवश्यकता होने पर आसानी से इनका पूरी तरह से आधुनिकीकरण किया जा सकता है। इसके अलावा, 1985 में इस इलाक़े का विकेंद्रीकरण करने के मक़सद से और आनेवाली नस्लों के लिए इसके अहम ऐतिहासिक महत्व को बरकरार रखने की दूर दृष्टि से, कुछ सरकारी दफ्तरों को सेंट्रल विस्टा से हटाने का एक प्रस्ताव लाया गया था।
इसी के तहत कई कम अहमियत वाले कार्यालयों को एक-एक कर के यहाँ से हटाया भी गया। रक्षा विशेषज्ञों ने भी इस तब्दीली को सही माना। उनकी सोच थी कि दुश्मन के एक ही हमले से, एक ही जगह सारे दफ़्तर होने की वजह से, पूरी सरकारी मशीनरी ढह सकती है। योजनाकारों का भी यह मानना था कि इन कार्यालयों के विकेंद्रीकरण से छोटी जगहों को भी विकसित होने का मौक़ा मिलेगा।
वहीं कोविड-19 ने इस दलील को और मज़बूत कर दिया कि बड़ी-बड़ी इमारतें बनाना दरअसल जनता के संसाधनों की भारी बर्बादी है, ख़ासकर जब एक छोटे से लैपटॉप से कोई भी कहीं भी बैठ कर अपने काम को अंजाम दे सकता है। और तो और दिल्ली, में बढ़ते प्रदूषण की समस्या ने भी यहाँ से दफ्तरों को हटाने के क़दम को सही साबित कर दिया।
बहरहाल, ये प्रोजेक्ट सभी तरक्कीपसंद दलीलों को ठुकरा कर दक़ियानूसी सोच की बिनाह पर खड़ा है, जिस सोच को दुनिया ने बहुत पहले ही खारिज कर दिया है। नए सेंट्रल विस्टा में सर्वाधिक केंद्रीकरण की माँग है, यानी उन कार्यालयों को वापस लाया जायेगा जो पहले यहाँ से हटा दिए गए थे।
अब यहाँ पहले से 3-गुना अधिक दफ्तरों की जगह बनाई जाएगी। सोचिए, कि इस 3 गुना अधिक जगह में, आज के मुक़ाबले, कितने ज़्यादा और अफ़सर और कितनी ज़्यादा और गाड़ियाँ और ट्रैफिक की आवाजाही हुआ करेगी जिससे, इस इलाक़े पर कैसा बुरा असर होगा?
लंबे समय से असहनीय वायु प्रदूषण से दिल्ली तड़पते मरीज़ों का शहर बन चुका है। सालों से इस समस्या को हल्केपन से लेने वाली सरकारों ने अपनी बेपरवाही से ऐसी हालत कर दी है कि दिल्ली में रोज़ाना इसकी वजह से 80 जानें जाती हैं! 45% अकाल मृत्यु का कारण प्रदूषण ही है। अब सोचिए सेंट्रल विस्टा परियोजना के निर्माणकार्य से, अगले दो साल तक, इससे भी ज़्यादा भयंकर वायु प्रदूषण होगा। इमारतों के मलबे के रूप में, 2 साल के लिए क़रीब 500 टन मिट्टी यहाँ से रोज़ाना, ढोकर ले जाई जाएगी। इसका कार्बन फुटप्रिंट होगा चेन्नई शहर जितना बड़ा।
आख़िर में तीसरी अहम बात यह है कि क्या इस प्रोजेक्ट से नफे से ज़्यादा नुक़सान होगा?
इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें उन हेरिटेज इमारतों और दूसरे भवनों की फेरहिस्त पर नज़र डालनी होगी, जिन्हें ढहाया जाना है।
1. संसद भवन में प्रवेश से पहले तिकोनिया प्लॉट जहाँ जाँच की जाती है और उस पर लगे क़रीब 20-30 पेड़ काट दिये जायेंगे।2. आठ एकड़ के प्लॉट पर बने उपराष्ट्रपति निवास और उस पर लगे पेड़ों को ज़मींदोज़ किया जाएगा। 3. विज्ञान भवन और बगल की इमारतों के अलावा, 15 एकड़ के इस इलाक़े में लगे पेड़ों को काटा जाएगा।4. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण कार्यालय को पहले ही गिराया जा चुका है।5. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, इसकी ख़ूबसूरत इमारतें और इसकी वजह से 24 एकड़ की ज़मीन पर लगे सैकड़ों वृक्षों को जमींदोज किया जाएगा।6. 1955 -1962 में निर्मित राष्ट्रीय संग्रहालय।7. सिर्फ़ 9 वर्ष पूर्व निर्मित विदेश मंत्रालय की नई इमारत।8. राष्ट्रीय अभिलेखागार (1932 में निर्मित भवन को छोड़ कर)।9. उद्योग भवन और कृषि भवन।10. निर्माण भवन और शास्त्री भवन।11. रक्षा मंत्रालय और मुख्य लेखा-नियंत्रक के कार्यालय की एकमंजिला छोटी-छोटी इमारतें गिरा दी जायेंगी।
इनमें से क़रीब हरेक भवन स्थापत्य, पर्यावरण या विरासत के नज़रिए से महत्वपूर्ण हैं। बड़े आकार के प्लॉट पर निर्मित हर भवन के चारों तरफ़ ख़ूब हरियाली है। ये इमारतें ज़्यादातर, दो या चार मंजिल से ज़्यादा ऊँची नहीं हैं। चारों तरफ़ बाड़ और हरियाली से घिरी ये इमारतें मुश्किल से नज़र आती हैं।
बड़े प्लॉट पर काफ़ी अंदर बनीं विज्ञान भवन जैसी ऊंची इमारतें भी, चारों तरफ़ से हरियाली से ढकी नज़र आती हैं। वहीं सड़क के पास बने उपराष्ट्रपति भवन के चारों तरफ़ ख़ूब पेड़-पौधे और सड़क तक फैली हरियाली की वजह से हवा शुद्ध और पारिस्थितिकी तंत्र सुरक्षित बना हुआ है।
यहाँ वाहनों की आवाजाही कम है और हरियाली ज़्यादा है। दिल्ली के दिल में बसे इस इलाक़े में लगभग वन-जैसा अहसास मिलता है। आपको इस शहरी वन का लुत्फ उठाने के लिए अमीर और दबदबे वाला होना ज़रूरी नहीं है। कोई भी आम आदमी साइकिल चला कर या टहलते हुए भारी सुरक्षा वाले इस वीआईपी इलाक़े में ताज़ी और ठंडी हवा का मज़ा ले सकता है। इसकी सुलभ ख़ूबसूरती का आनंद सभी दलों के लिए उपलब्ध है।
और सबसे अच्छी बात यह है कि आम जनता के लिए यह इलाक़ा पूरी तरह खुला हुआ है। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला संग्रहालय के 24 एकड़ में फैले घने वृक्षदार क्षेत्र में मेले, सांस्कृतिक महोत्सव और प्रदर्शनियाँ लगाई जाती हैं। इस ख़ूबसूरत खुली और हवादार जगह पर लोक संगीत सुनने, शास्त्रीय नृत्य देखने और विभिन्न राज्यों के स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ लेने आते हैं।
सेंट्रल विस्टा की दूसरी इमारतों से मेल खाती, बलुआ और धौलपुर के पत्थर से बनाई गई राष्ट्रीय संग्रहालय की इमारत में हमारी प्राचीनतम धरोहर संजोई गई हैं। स्कूल के बच्चे यहाँ आते हैं, इसके बेमिसाल पुरातत्व के खजाने की बेमिसाल जानकारी लेने और अपने संस्कृति और इतिहास को समझने के लिए। आज़ाद हिंदुस्तान के नए, जवान भारतीय वास्तुकर गणेश देवलालीकर द्वारा निर्मित इसके निर्माण के तीसरे चरण की शुरुआत पिछले साल ही हुई थी, जब इसके गिराने का फ़ैसला सुनाया गया। इसके सामने, सेंट्रल विस्ता की इमारतों से मिलती विदेश मंत्रालय की नई नवेली इमारत, जो मात्र 9 साल पहले बनी थी, के भी गिराए जाने का फ़ैसला सुनाया गया है।
यह पूरा इलाक़ा और ये इमारतें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की शान माने जाते हैं। यह इलाक़ा इसे दुनिया की उन शानदार राजधानियों में शुमार करता है जिनके शहरी केंद्रों में संग्रहालय, हरियाली, वास्तुकला आधारित विरासत, सांस्कृतिक प्रांगण और जिसे शहर का सबसे ख़ूबसूरत इलाक़ा माना जाता है। चाहे पेरिस हो, वाशिंगटन या ब्राज़ीलिया, दुनिया की बेहतरीन राजधानियों में वहाँ के नागरिकों के लिए पूरी तरह खुला क्षेत्र ज़रूर होता है।
इसी वजह से भारत सरकार ने यूनेस्को से इस क्षेत्र को ‘विश्व धरोहर’ का दर्जा देने के लिए 2013 में आवेदन किया था और भारतीय क़ानून के तहत इस क्षेत्र के संरक्षण के लिए निर्माण पर कड़ी रोक और सख़्त से सख़्त नियम बनाए गये थे।
इसके पीछे सोच यह थी कि इस इलाक़े को दुनिया में अहम दर्जा मिले जिससे पूरे विश्व में इसका नाम हो। इस कारण से प्राग और वेनिस जैसे शहरों की तरह या हमारे अपने ही विश्व धरोहर माने जाने वाले ताज़महल, कोणार्क मंदिर और गोवा के वेल्हा इलाक़ों की तरह, यहाँ भी सख़्त नियम लागू किये गये और बेहतरीन रखरखाव की व्यवस्था की गयी।
उस वक़्त कौन सोच सकता था कि ख़ुद सरकार ही इसकी हिफाज़त में सेंध लगाएगी।
2019 में नए प्रोजेक्ट का एलान किया गया। महीने- दो महीने के भीतर इसे उच्च स्तरीय संरक्षण ज़ोन की श्रेणी से निकाल बाहर किया गया और भूमि-उपयोग बदलने की अनुमति दे दी गई। आम आवाम से बगैर पूछे या चर्चा के यह ज़मीन छीन ली गई। आवाम को बस एक सरकारी इश्तहार के ज़रिए इत्तिला की गई।
इसीलिए इस योजना का मूल्यांकन आधुनिकीकरण के आधार पर न करके जनता के नफे-नुक़सान की बिनाह पर किया जाना चाहिए। इसीलिए शहरों का खाका बनाने वाले विशेषज्ञ सवाल करते हैं कि :
प्रश्न- नए प्रोजेक्ट में कितनी सार्वजनिक ज़मीन ली गई है?
उत्तर- सार्वजनिक/ अर्ध सार्वजनिक श्रेणी की क़रीब सौ एकड़ ज़मीन को शासकीय कार्यालय श्रेणी में बदला गया। वर्तमान में यह ज़मीन वृक्षों, उद्यान और खुले मैदान के रूप में है, जिसे पूरी तरह से समतल कर इस पर निर्माण किया जाएगा।
प्रश्न- इस पर क्या बनाया जाएगा?
उत्तर- 8 मंजिला कार्यालय खंड जो भीतर से आंगन की तरह खुले रहेंगे लेकिन बाहर से बंद होंगे। इसके भीतर लगाई गई हरियाली का लुत्फ केवल सियासतदान और नौकरशाह ही उठा सकेंगे। जबकि पुराने बंगलों का नक्शा वहाँ की हरियाली के सार्वजनिक इस्तेमाल के हिसाब से तैयार किया गया था। नई इमारतों को प्लॉट की बाउंड्री वॉल से ही खड़ा किया जाएगा ताकि कोई खाली जगह नहीं रहे।
प्रश्न- क्या नए प्रोजेक्ट में हरियाली, पेड़-पौधों और वाहनों की सीमित आवाजाही का प्रावधान होगा?
उत्तर- नहीं, राजधानी के इस प्रतिष्ठित सिटी सेंटर के निर्माण के लिए क़रीब 2000 पेड़ काटे जाएँगे। तकरीबन 3 गुना पहले से ज़्यादा दफ्तर होंगे जहाँ लोगों और गाड़ियों की आवाजाही होगी।
प्रश्न- इस इलाक़े में साइकिल सवार या किसी वाहन चालक को क्या नज़र आएगा?
उत्तर- आसमान देखने के लिए उसे पूरी गर्दन पीछे करके सीधा ऊपर देखना पड़ेगा। आमने-सामने या दाएँ बाएँ तो सिर्फ़ आठ मंजिला इमारतों की दीवारें ही नज़र आएँगी।
प्रश्न- इंडिया गेट पर अपने परिवार के साथ सैर पर आए किसी शख्स को लॉन में लेटे हुए या आईस्क्रीम खाते हुए क्या नज़र आएगा?
उत्तर- उसे खुद के एक-एक क़िले के अहाते में होने का अहसास होगा, जिसकी दीवारें पेड़ों से भी ऊँची होंगी और साफ़ नज़र आएँगी।
अगर इन सब सवालों को एक में जोड़ कर पूछा जाए कि क्या इस प्रोजेक्ट से जनता का भला होगा? ज़ाहिर है, जवाब होगा - नहीं।
वजह बहुत साफ़ है। इस प्रोजक्ट का मक़सद न तो आधुनिकीकरण है और न ही जनता का हित। सत्ता पर काबिज़ सियासतदानों और बाबूशाहों ने ख़ुद को ही एक ख़ूबसूरत नज़ारा दिया है।
दिल्ली के नागरिकों के हिस्से में आयेगा -
- शहर के सबसे ख़ूबसूरत इलाक़े में भारी भीड़-भाड़
- दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहर के प्रदूषण में और बढ़ोत्तरी
- देश पर हुकूमत करने वाले वीआईपी व्यक्तियों के लिए और ज़्यादा जगह
ऐसे में क्या इस प्रोजेक्ट की ज़रूरत को लेकर सवाल उठाना लाज़िमी नहीं है?
जब अर्थव्यवस्था गढ्ढे में चली गई हो, छोटे काम-धंधे बंद होने के कगार पर हों, किसान बदहाली के शिकार हों, प्रवासी मज़दूर लाचार और बेबस हों, ऐसे में अभिजात्य वर्ग के लिए बनाया जा रहा यह निर्माण ब्रिटिशकाल में दिल्ली साम्राज्य की याद दिलाता है, जिसमें हुकूमत करने वाले ख़ास तबक़े और वीआईपी व्यक्तियों को विशेषाधिकार हासिल था और बाक़ी सभी दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रह गए थे।
इन हालातों में पूछने के लिए सिर्फ़ एक जायज़ सवाल बचता है। क्या हम सच में एक लोकतंत्र कहलाने लायक हैं?
(हिंदी अनुवाद: अंशुमन त्रिपाठी)
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