तो जनगणना भी रुक गई है। कायदे से अब तक पिछले दशक के बदलाओं और विकास को बताने वाले आँकड़े आ जाने चाहिए थे लेकिन अभी तो जनगणना शुरू भी नहीं हुई है। ऐसा 150 साल में पहली बार हो रहा है। इस बार सरकार की तरफ से कोरोना को कारण बताया गया लेकिन 2019 तक तो कोरोना कहीं न था और तब तक जनगणना की शुरुआत हो जानी चाहिए थी। बीते हर अवसर पर जनगणना का काम इतना पहले तो शुरू हो ही जाता था। और जिस तरह जनगणना में शामिल जानकारियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जनगणना का फार्म बड़ा हो रहा है, उसे भरवाना ज्यादा समय ले रहा है और उसके आंकड़ों का मिलान और विश्लेषण ज्यादा व्यक्त की मांग करते हैं। इसलिए होना यही चाहिए था कि वक़्त पर शुरुआत जरूर हो जानी चाहिए थी। पर जैसे सरकार किसी बहाने का इंतज़ार कर रही थी। कोरोना ने वह अवसर दे दिया।
यह जानना ज़रूरी है कि भारत के लिए इस बार के कोरोना से कहीं ज्यादा मारक साबित हुए स्पेनिश फ्लू ही नहीं, विश्व युद्धों के समय भी जनगणना का काम नहीं रोका गया था। और यह बताने में भी कोई हर्ज नहीं है कि दुनिया में भारत के जिन आंकड़ों पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता है उसमें जनगणना के आँकड़े भी शामिल हैं। अंग्रेज़ी राज में बनी यह व्यवस्था अपनी निरन्तरता के लिए भी भरोसेमंद बनी हुई है।
अब सरकार का बहाना तो कोरोना है लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो मानते हैं कि यह सरकार भरोसेमंद आंकड़ों से डरी हुई सरकार है। इसने जीडीपी की गणना में छेड़छाड़ कराने से लेकर सारे आंकड़ों को अविश्वसनीय बना दिया है या सांख्यिकी के कुल काम को ही बेकार कर दिया है। जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (जिसके आँकड़े भी दुनिया के लिए विश्वसनीय हैं) के राष्ट्रीय उपभोक्ता सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि 2012 की तुलना में 2018 में आम लोगों के उपभोग के स्तर में काफी गिरावट आई है तब सरकार ने इस सर्वे के आँकड़े को जारी नहीं होने दिया। जब ये आँकड़े लीक होकर मीडिया में आ गए तब कुछ समय बाद सरकार ने इन्हें चुपचाप जारी करा दिया। लेकिन हर पाँच साल पर होने वाले ऐसे सर्वेक्षण का क्रम रोक दिया गया। अब ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं हो रहा है।
ऐसा ही बेरोजगारी संबंधी एनएसएस के आंकड़ों के साथ भी हुआ। जब उसके सर्वेक्षण में बेरोजगारी की दर रिकॉर्ड छह फीसदी पहुंची बताई गई तो सरकार ने आंकड़ों को रोक लिया जबकि मुख्य आर्थिक सलाहकार इन्हें जारी करने की वकालत करते रहे, फिर जब चुनाव पास आया तब सरकार ने धीरे से इन्हीं आंकड़ों को जारी कर दिया। हर आँकड़े से डरने वाली सरकार जनगणना के आंकड़ों से भी डरे यह स्वाभाविक लगता है।
जानकार लोग मानते हैं कि इस बार की जनगणना को रोकने का काम कोरोना नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और सीएए जैसे विवादास्पद प्रावधानों की उलझन के चलते हुआ है।
हम जानते हैं कि शाहीन बाग का और उसकी देखादेखी देश भर में जगह जगह चल रहे आंदोलन तो कोरोना के चलते बंद हुए। और इनके चलाने से नागरिकता के उलझे सवाल पर सरकारी नजरिए का दोष जाहिर हुआ लेकिन यह भी हुआ कि इस आंदोलन ने भाजपा को हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण कराने में मदद की। अब सरकार जनगणना के मत्थे ऐसा ध्रुवीकरण और राजनीतिकरण नहीं चाहती क्योंकि नागरिकता रजिस्टर वाले प्रावधान से एक सामान्य जनगणनाकर्मी भी किसी व्यक्ति, परिवार, मुहल्ले और बस्ती को रजिस्टर से बाहर कर सकता है। फिर ऐसे लोगों की धर-पकड़ होगी और उनको खास बने कैंपों में डाला जाएगा। नागरिकता का फैसला होने तक उनका भविष्य अधर में लटका होगा। यह एक बड़ा हंगामा पैदा करेगा जिसे संभालना आसान न होगा।
यहाँ एक पेंच और है। जैसे ही सरकार ने जनगणना के साथ जनसांख्यिकी रजिस्टर और नागरिकता रजिस्टर वाली बात उठायी अनेक राज्यों ने विरोध कर दिया। केरल, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में यह मुद्दा बनने लगा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो एनआरसी वाली जानकारी भरने वाले जनगणनाकारों का घेराव और धर पकड़ का आह्वान कर दिया था। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का कहना था कि वे अपने नागरिकों को बाहरी घोषित कराना और जेल भेजना नहीं चाहते। सरकार इससे भी डर गई।
सरकार के डरने और जनगणना रोकने का तीसरा कारण जातिगत जनगणना की मांग हो सकती है। पिछली बार देर से और अलग से ऐसी गिनती हुई थी लेकिन सरकार ने उसके आँकड़े जारी नहीं किए। इस बार यह मांग बहुत प्रबल ढंग से उठ रही है और बिहार में तो पक्ष-विपक्ष ने साथ मिलकर मांग की। भाजपा शुरू में पिछड़ों के आरक्षण के भी पक्ष में नहीं थी। पर धीरे धीरे पार्टी ने लोकतांत्रिक मजबूरी के चलते अपने को पिछड़ा राजनीति से जोड़ा। नरेंद्र मोदी ने खुद को देश का पहला पिछड़ा प्रधानमंत्री बताना शुरू कर दिया। लेकिन अभी भी मंडलवादी ताक़तें भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों को लेकर संशय में हैं। उन्हें लगता है कि सारी सरकारी नौकरियां खत्म हो रही हैं और निजी शिक्षा संस्थान भी पिछड़ों के कोटे का खयाल नहीं रखते। उनका कहना है कि एक बार गिनती हो जाए और आँकड़े साफ हो जाएं तो उस अनुपात में पिछड़ों के लिए संसाधनों का बंटवारा आसान हो जाएगा। अभी पिछड़ों का हिसाब 1930 की जनगणना के आधार पर लगाया जाता है।
अब जो बात पिछड़े नेता सिर्फ़ पिछड़ों के लिए कह रहे हैं उसे पूरे देश और हर तरह के आंकड़ों के संदर्भ में भी सोचा जाना चाहिए क्योंकि जनगणना के आँकड़े नीतियों और योजनाओं को तय करने का आधार बनाते हैं। और अब दस साल में जितनी तेजी से जिंदगी बदल रही है उसका हिसाब रखना बहुत ज़रूरी है। अमीर गरीब, अगड़ा-पिछड़ा, दलित-आदिवासी, हिन्दू-मुसलमान, औरत-मर्द ही नहीं बढ़ता क्षेत्रीय असंतुलन, आर्थिक खायी, तकनीकी गैप और शैक्षिक असमानताओं को सही-सही समझे बगैर नीतियों और प्राथमिकताओं में बदलाव कैसे हो सकता है।
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